विष्णु पुराण

By: Feb 1st, 2020 12:18 am

स्वगर् प्राप्ति रूप फल वाले यज्ञादिक कर्म भी श्रेय है,परंतु प्रमुख श्रेय तो कर्म के फल की कामना न करने में है। इसलिए हे राजन! योगी पुरुष को प्रकृति आदि से पर आत्मा का ही चिंतन करना चाहिए,क्योंकि उसी का संयोग रूप श्रेय यथार्थ श्रेय है।

श्रेयांस्येवमनेकानि शतशोऽथ सहस्रशंः।

संत्यत्र परमार्थस्तु न त्वेते श्रुयता व  में।।

धर्माय त्यज्यते किंतु परमार्थो धनं यदि।

व्ययश्च क्रियते कस्मात्मामप्राप्नुपलक्षणः।।

पुत्रश्चेत्परमार्थः स्यात्योऽप्यन्यस्य नरेश्वरः।

परमार्थभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तत्पिता।।

एव न परमोऽस्ति जगत्यस्तिंचराचरे।

परमार्थों हि कार्याणिकारणानामशेषतः।।

राज्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता परमार्थतया यदि।

परमार्था भवंत्यत्र न भविंत च वै ततः।।

ऋग्यजुः सामनिष्पाद्य यज्ञकर्म मतं तव।

परमार्थ भूत तत्रापि श्रूयता गदतो मम।।

यत्तु निष्पाद्यते कार्य मृदा कारणभूतया।

तत्कारणनुगानाज्यागते नृपं कर्मण्यम।।

एवं विनाशिभिः द्रव्यै समिदाज्यकुशादिभिः।

निष्माद्यते क्रिया या तु सां भवित्री विनाशिनी।।

इस प्रकार श्रेय सैकड़ों सहस्रों भंति के हैं,परंतु यह सब परमार्थिक नहीं है, अब मैं परमार्थ कहता हूं उसे सुनो। यदि धन को परमार्थ समझें तो धर्म के लिए उसका व्यय क्यों न करें और इच्छित भोगों की प्राप्ति के लिए उसका व्यय क्यों करें। यदि पुत्र को परमार्थ कहें तो वह अन्य का परमार्थ भूत है और उसका पिता भी अन्य का पुत्र होने से उसका परमार्थ हुआ। इसलिए इन चराचर विश्व में पिता का कार्य रूप पुत्र भी परमार्थ सिद्ध नहीं होता। यदि ऐसा हो जाए तो सभी कारणों के कार्य परमार्थ ही न बन जाए। यदि राज्यादि की प्राप्ति को परमार्थ कहें, तो यह सदैव पास नहीं रहते इसलिए यह भी परमार्थ नहीं हो सकते। यदि ऋक,यजु, सामरूप वेदत्रयी से संपन्न होने वाले यज्ञ को परमार्थ समझें तो उसके विषय में भी मेरी बात सुनो। हे राजन जो वस्तु कारण रूपी मिट्टी का कार्य होता है, वह वस्तु कारण की अनुगामिनी होने से मिट्टी ही समझी जाती है। इसलिए जो कर्क समिधा घृत और कुशादि नष्ट होने वाले पदार्थों से संपन्न होता है वह भी नष्ट होने वाला होगा।

अनाशी परमांर्यश्च प्राज्ञै रभ्युपागम्यते।

तत नाशि न संदेहो नाशिद्रव्योपपादित्तम।।

तदेवाभलद कर्म परमार्थो मतस्तव।

मुक्तिसाधनभूतत्वापरमार्थो न साधनम।।

ध्यानं चैत्वात्मनो भूतं परमार्थशाब्दितम।

भेदकारि परेभ्यस्सु परमार्थो न भेदवान।।

ज्ञानीजन परमार्थ को अविनाशी कहते हैं और नाशवान द्रव्यों से संपन्न होने के कारण कर्म सावधान है,उसमें संदेह नहीं है। यदि फल की आशा से रहित निष्काम कर्म को परमार्थ कहें, तो यह मोक्ष रूप फल का साधक होने से ही परमार्थ नहीं हो सकता। यदि शरीरादि से आत्मा को मित्रता विचार कर उसके चिंतन को परमार्थ कहें, तो वह अनात्मा से आत्मा का भेद करने वाला है और परमार्थ भेद रहित है।


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