अब सुशासन का इंतजार

By: Jan 23rd, 2021 12:08 am

चुनावों की फेहरिस्त में जनता की आस्था व अनुराग का ठिकाना हम स्थानीय निकायों की बनती-बिगड़ती तस्वीर में देख सकते हैं। हम दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके लौटी, रोहड़ू की लोहरकोटी की प्रधान अवंतिका के रूप में राजनीति के प्रति नई आस्था का श्रीगणेश कर सकते हैं या उन तमाम युवाओं को स्वीकार कर सकते हैं जो शिक्षित व करियर के प्रति वफादारी का सबूत बनकर इन चुनावों में सफल हुए। जाहिर तौर पर इस बार हिमाचल में स्थानीय निकाय चुनाव कठिन स्पर्श के मुलायम आसन साबित नहीं हुए। जागरूकता के नए स्तर पर हिमाचल के मतदाता ने अपने आसपास की सियासी धूल को झाड़ने का प्रयास नहीं किया, बल्कि अस्सी फीसदी के लगभग वोटिंग की हुंकार भरकर कई परिवर्तन भी लिख डाले। खासतौर पर शहरी मानसिकता में राजनीतिक टकराव की स्थिति का पैदा होना अब सीधे-सीधे विधायकों के लिए चुनौती सरीखा है, तो दूसरी ओर ग्रामीण परिवेश में कूदे पढ़े-लिखे युवाओं की तरफ जनता का भरोसा पूरे राजनीतिक चरित्र को बदल रहा है। ऐसे में ग्रामीण विकास के नए तौर तरीके व जनाधिकारों की गूंज सुनाई दे सकती है।

 शहरों में करियर की धार खोज रहे युवा अगर गांव लौट कर ग्रास रूट से कुछ पाने की उम्मीद कर रहे हैं, तो योजनाओं के प्रति संवेदना बढ़ेगी। ऐसे में ग्रामीण रोजगार या स्थानीय आर्थिकी में कृषि-बागबानी तथा लघु उद्योगों का स्वरूप बदलना होगा। ग्रामीण पर्यटन एक नई संभावना के रूप में रेखांकित हो सकता है और इसके साथ-साथ सहकारिता आंदोलन को बल मिल सकता है। ग्रामीण संसद के चुनाव परिणाम, प्रशासनिक संबोधनों में सुशासन की अभिलाषा बढ़ा देते हैं। सीधे तौर पर विकास खंड अधिकारी अपने दायित्व और नेतृत्व के एहसास में पूरे परिदृश्य की तस्वीर बदल सकते हैं। स्थानीय निकाय चुनाव परिणाम की तलहटी में अगर सुशासन की खेती हो जाए, तो प्रगति और विकास के किस्से बदल सकते हैं। हिमाचल में टॉप हेवी एडमिनिस्ट्रेशन के जानिब से गांव के भविष्य को चुनना आसान नहीं, बल्कि पूरी मशीनरी को विकेंद्रीकृत करना होगा। महकमे गांव की दहलीज पर योजनाओं के फलक लिखें, तो ही आशातीत परिवर्तन आएगा। हर गांव को अपने भीतर नवाचार और प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ने की तरकीब ईजाद करनी है, तो सुशासन के तंत्र को व्यवहार में लाना ही पड़ेगा।

 बहरहाल स्थानीय निकाय चुनावों का एक दौर गुजर गया, लेकिन एक फांस लेकर पहली बार नगर निगम चुनाव अपनी बिसात बिछा चुके हैं। बाकायदा सरकार के कुछ मंत्री शहरी आवरण में अपने औचित्य व रणनीति के प्रयोग कर रहे हैं। भाजपा के प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना भले ही मिशन रिपीट की नब्ज टटोल रहे हैं, लेकिन इसकी मुनादी नगर निगम चुनाव ही करेंगे। पांच शहरों की वोटिंग मानसिकता का पीछा करती सियासत अपने पिछले अनुभव से सीख सकती है और इसी परिप्रेक्ष्य में नगर पंचायतों से परिषदों तक के परिणाम नत्थी रहेंगे। घुमारवीं, नयनादेवी, सुजानपुर या कांगड़ा जैसे शहरों में जिस बुनियाद पर चुनाव हुए, उसके आधार पर सत्ता के लिए कई सबक हैं। इसी तरह विधानसभा क्षेत्रों के भीतर ग्रामीण चौपाल से रूठे-खिसके मंतव्य पर विधायक अपना-अपना ठौर देख सकते हैं। बहरहाल प्रदेश के पांच शहर अपने साथ एक नया रेला खड़ा कर सकते हैं। स्वशासन की अहम तस्वीर अगर इन शहरों में बनती है, तो आम नागरिक की ख्वाहिशों में लोकतांत्रिक मंसूबे चरितार्थ होंगे। ये पांच शहर नहीं, बल्कि पांच विधानसभा क्षेत्रों की जनता का मूड उजागर कर सकते हैं या यह भी कि हिमाचल का शहरीकरण अब सियासत की नई खोज बन जाए। शहरी प्रबंधन में ढर्रे की राजनीति से कहीं ऊपर उठकर सोच विकसित करने की जरूरत है और इस लिहाज से एक बड़े चारित्रिक बदलाव की कोशिश होनी चाहिए।


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