प्रतिबिम्ब

वही कहानी सफल मानी जाती है, जो पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखती है। पाठक को कहानी से बांधने का गुर हर किसी के पास नहीं होता। एक सफल कहानीकार कहानी के संदर्भ को हकीकत के धरातल पर उतारकर उसमें रंग भरता है। रोचकता कहानी में नहीं होती है, कहानी में रोचकता

गंगा राम राजी आज की कहानी में कहानी के तत्त्व कथानक, पात्र संवाद, देश, काल, भाषा शैली और उद्देश्य आदि की चर्चा नहीं हो सकती। आज कहानी में इनकी अनिवार्यता खोजना कहानी के स्थूल रूप को दर्शाना है। कथानक में ह्रास आया है और चरित्रों में जटिलता का समावेश हुआ है और प्रतिनिधि चरित्रों की

आशा कुमारी हिंदी कहानी के आरंभ से ही हिंदी जगत में हिमाचली हिंदी कहानी की अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ से लेकर वर्तमान समय में हिमाचल के विभिन्न कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही कहानियां एक विशेष उद्देश्य को परिलक्षित या निर्दिष्ट करती हैं। हिंदी कहानी के आरंभ

प्रकाश चंद धीमान गुलेरी एवं यशपाल के बाद जिन कहानीकारों ने हिमाचल की हिंदी कहानी परपंरा को आगे बढ़ाया, उनमें सन् 1968 में प्रकाशित रमेश चंद्र शर्मा कृत ‘पगध्वनियां’ व कुलभूषण ‘कायस्थ’ कृत ‘घिराव’ कहानी संग्रहोें का नाम उल्लेखनीय है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सन् 1972 में किशोरी लाल वैद्य ने ‘एक कथा

डा. हेमराज कौशिक चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,यशपाल,योगेश्वर गुलेरी,कृष्न कुमार नूतन के बाद सुशील कुमार अवस्थी का नाम आता है, जिनका राखी शीर्षक संग्रह सन् 1957 में प्रकाशित हुआ। अवस्थी की कहानियां सपाट शैली की रचनांए हैं। इसके बाद सत्येन शर्मा का ‘संपादित  संग्रह ‘बर्फ  के हीरे’ उल्लेखनीय है।ं इस संग्रह में प्रकाशित होने वाले कहानीकारों में

अरुण भारती कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे हिमाचल प्रदेश के एक चर्चित कहानीकार की एक कहानी को पढ़ने का आग्रह किया। वह कहानी प्रदेश से बाहर छपने वाली एक पत्रिका में छपी थी और उस पत्रिका में नामी गिरामी तथा कथित आलोचकों द्वारा लगभग सभी कहानियों पर कहानियों से भी लंबी प्रतिक्रियाएं

त्रिलोक नाथ कहानी के क्षेत्र में हिमाचल की समृद्ध देन है। कहानी लेखन के इतिहास की जांच परख करते समय दिवंगत और वरिष्ठ कहानीकारों के योगदान का वर्णन अधिकतर होता रहता है। मेरे लिए वरिष्ठ वे हैं जो सत्तर वर्ष पार कर चुके हैं। उनमें पद्म गुप्त अभिताभ और सुंदर लोहिया के संकलन उपलब्ध नहीं

हंसराज भारती मैं वर्ष 1987 में ही हिमाचल प्रदेश से सीधे संबद्ध हुआ। मेरी जन्मभूमि तो थी, पर उस वक्त तक कर्मभूमि नहीं। यहां के साहित्यिक परिवेश से उस समय अधिक परिचित नहीं था। अपनी बिखरी जिंदगी को जैसे-जैसे व्यवस्थित करने के बाद यहां के अदबी माहौल की ओर रू-ब-रू हुआ। इन तीन दशकों के

आजकल हिमाचल में कवि तो बड़ी उछलकूद मचा रहे हैं, परंतु कथाकारों की चाल धीमी हो गई है। क्या कथा की जमीन इतनी पथरीली है, इतनी खुश्क है कि तोड़ने में बहुत ताकत लगती है और सब्र और समय चाहिए। क्या ज्यादा कागज काले करने पड़ते हैं। कहानी से सृजनकर्मी बचते हुए क्यों दिखते हैं।