पिछले दिनों माननीय उच्च न्यायालय ने प्रदेश के राजमार्गों से अवैध टैक्सी स्टैंड को चार हफ्ते के भीतर हटाने के निर्देश दिए हैं। जनहित याचिका ने शिमला के छोटा शिमला, कुसम्पटी, आकलैंड, संजौली कालेज, ढली चौक, लक्कड़ बाजार और कई स्थानों पर उकेरे गए टैक्सी स्टैंड्स को हटाने के स्पष्ट निर्देश दिए। यह समय की मांग है कि हम हिमाचल की तंग सडक़ों को बाधित होने से बचाएं। प्रदेश के कमोबेश हर कस्बे, शहर, चौराहे और पर्यटक स्थल की आबरू अवैध पार्किंग की शिकार है, जहां टैक्सियां, वोल्वो बसें, मालवाहक तथा स्कूल वाहन अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। हिमाचल में पार्किंग को लेकर न नियम बने और
आस्तीन चढ़ा कर सरकारों का खर्च मिट्टी होता है, फिर भी गुरूर यह कि काम इसी तरह होता है। एक साथ चौदह पिंजरे, भीतर इतने ही सरकारी होटल और तोते उड़ गए अपनी दिशा में। दिशाहीन कौन, होटल, पर्यटन निगम के कर्मचारी, पर्यटक या राज्य के संसाधन। फेहरिस्त पर नजर दौड़ाएं तो ये चौदह इकाइयां असफल हो ही नहीं सकती थीं, लेकिन सरकारी कार्य संस्कृति के दूध से कितनी मक्खियां निकालेंगे। आदेश अदालत को देने पड़े थे, क्योंकि सार्वजनिक धन से मकबरे नहीं सजाए जा सकते। अगर इमारतों के बीच सरकारी धन से बने मकबरों पर गौर करेंगे, तो जिंदा ताबूत में सारे सबूत रखने पड़ेंगे। इससे पहले एचआरटीसी के निकम्मे रूटों की नुमाइश हुई, तो अचानक फरमान आया कि निजी क्षेत्र को चुगने को कहा जाए। यहां आम तो सबने चुरा लिए, अब
वहां दर्द के काफिले, विडंबनाएं और समय के विकृत उद्गार चीख रहे हैं। बस्तियों के आंगन में रेत के ढेर और प्रगति के उजालों में घोर अंधेरा। यह मंडी का सराज क्षेत्र है, जो आज अपाहिज मुद्रा में हाथ फैलाए खड़ा है। चीखें कह रहीं सिर्फ यही, ‘मदद करो, मदद करो।’ सराज को नहीं मालूम कौन उसका मेहमान है, वह तो खुद परेशा
चुनाव आयोग को कोई नेता ‘पिट्ठू’ कहता है, तो कोई राजनीतिक दल ‘कठपुतली’ करार दे रहा है। कोई ‘भाजपा का प्रकोष्ठ या एजेंट’ मान रहा है। कोई तो ‘झूठा’ और ‘मक्कार’ जैसी गालियां दे रहा है। चुनाव आयोग को ‘मोदी आयोग’ करार देने वालों की संख्या भी कम नहीं है। आखिर शिष्टाचार और मर्यादा की तमाम हदें क्यों लांघी जा रही हैं? आखिर चुनाव आयोग ने कौनसा अपराध या घपला किया है कि उसके लिए अपशब्दों का प्रयोग किया जा रहा है? चुनाव आयोग बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ कर रहा है। संविधान के अनुच्छेद 326 में उसे यह विशेषाधिकार दिया गया है। भारत की लगभग 78 साल की आजादी और गणतंत्र के 75 सालों में न जाने कितनी बार यह प्रक्रिया सामने आई होगी! मतदाता सूचियों के शुद्धिकरण का संवैधानिक अधिकार चुनाव आ
आतंकवाद पर एक सनसनीखेज खुलासा सामने आया है। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (फाट्फ) की एक रपट में यह चौंकाने वाला आयाम बेनकाब हुआ है कि अमेजन जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म, ऑनलाइन, सोशल मीडिया के जरिए आतंकवाद की फंडिंग की जाती रही है। आतंकियों ने अमेजन प्लेटफॉर्म के जरिए ऐसा विस्फोटक हासिल किया, जिसने पुलवामा, 2019 के आतंकी हमले को और भी तीक्ष्ण बना दिया। नतीजतन सीआरपीएफ के 40 जवान ‘शहीद’ हुए थे।
इस बार हिमाचल के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने यह बात कही, तो जिक्र बदल गया, वरना यह तथ्यों से भरा अनुभव है कि महामहिम दलाईलामा की उपस्थिति के कारण धर्मशाला शहर क्या एक अंतरराष्ट्रीय डेस्टिनेशन बन गया है। आश्चर्य यह कि हिमाचल के मंच सिर्फ कह देने के लिए कह देते हैं, वरना दलाईलामा के संदर्भों में हमारे पर्यटन की तासीर बदल जाती। दूर जाने की जरूरत नहीं, कुछ दशक पहले जब महामहिम को विश्व शांति पुरस्कार मिला, तो उनकी आभा में एक हिमालय उत्सव का श्रीगणेश मकलोडगंज में हुआ। हैरानी यह कि अब विधायकों के महिमामंडन में ऐसी जगह ऐसे समारोह शिफ्ट हो गए, जहां सिर्फ पंजाबी गायकों के बागीचे में लाखों खर्च होते हैं। धर्मशाला के जिस वैभव का जिक्र महोदय उपमुख्यमंत्री कर रहे हैं, वहां हिमालय उत्सव ढूंढे नहीं मिलता। जिस शहर में अंतरराष्ट्रीय हस्तियां पूजनीय दलाईलामा से मिलने आती हैं, वहां उनकी पहली भेंट सदाबहार गंदगी, ट्रैफिक जाम, अव्यवस्था, अतिक्रमण, सूटा-सट्टा और प्रकृति की डड्डियों के ढांचे से होती है। राजनीति ने बस स्टैंड की बीओटी को मुर्दाघर बना दिया, जहां दफन हैं मोटे और लंबे देवदार के पेड़। पार्किंग के नाम पर होटल खड़ा कर देने वालों को सियासी पनाह भी गजब कि सुप्रीम कोर्ट की हदें अब इसी अंतरराष्ट्रीय शहर में लगती हैं। ऐसे गुनाह से तो बेवफाई भी अच्छी, लेकिन यहां तो वर्षों से डल झील की गाद ने सारी बस्ती उजाड़ दी। एक जलप्रपात था, उसके पानी को इतना खींच लिया कि यह आलम अब लुप्तप्राय होने के कगार पर है।
बाढ़ की त्रासदी में फंसे हिमाचल में इस वक्त राहत की गलियां खोजी जा रही हैं। प्रदेश सरकार अपने संसाधनों के दायित्व में जुटी है, तो पिछली आपदा से गुजरे लम्हे फिर से सिसक उठे हैं। लांछन यह कि केंद्र बहुत देता है, मगर हकीकत यह कि पिछली राहत के तहत अनुमोदित 2006 करोड़ भी अभी जमीन पर खाली हाथ ही पहुंचे हैं। राहत राशि पर भी प्रदेश को अपने योगदान के पांच सौ करोड़ का इत्र छिडक़ना है, तो फिर कहानियों के समुद्र में जहाज चलाने के मायने क्या होंगे। खैर इन पैबंदों की लड़ाई में जख्म रिसते रहेंगे, तेरे आंगन में टूटे मेरे पांव चलते रहेंगे। कुछ क्षेत्र पूरे हुए भी तो इस कद्र कि निशानियां कब्र की हमारे घर तक पहुंच गईं। बर्बादी की दास्तान को पढ़ा जा सकता है, लेकिन लिखने के लिए भविष्य की योजना चाहिए। आश्चर्य यह कि आपदाओं ने बता दिया कि हमारे जीने
पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में, कुछ दिन पहले, एक मंच सजा था, जिससे वक्फ संशोधन कानून को कूड़ेदान में फेंकने और ‘शरिया लाओ’ की हुंकारें भरी गई थीं। एक विशाल जनसभा को भी संबोधित किया गया था। वह वैचारिक कम और राजनीतिक अधिक आयोजन था। अब उसी मैदान में भगवान परशुराम के जन्म-महोत्सव की आड़ में एक और मंच सजा है-‘सनातन महाकुंभ।’ इस पूरे कार्यक्रम के आयोजक पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे थे। यदि इस मंच से सनातन धर्म पर कुछ उपदेश दिए जाते, विचार रखे जाते और सनातनियों के लिए संदेश दिए जाते, तो आयोजन को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक माना जा सकता था। जगद्गुरु रामभद्राचार्य मुख्य अध्यक्ष थे और बाबा बागेश्वर धीरेंद्र शास्त्री मुख्य आकर्षण थे। हालांकि बाबा ने स्पष्ट कहा कि व
हमारी शिक्षा व्यवस्था एक बच्चे के बाल्यकाल से जवानी के कम से कम ढाई दशक ले लेती है। व्यक्तित्व मूल्यांकन की कसौटी पर चढ़ते हैं अभिभावक, जबकि बच्चों के जीवन के पहले 25 वर्ष स्कूल, कालेज व विश्वविद्यालय के प्रांगणों में गुजर जाते हैं। प्रांगण बढ़ते गए, लेकिन बच्चों के जिंदगी के 25 साल जाया होने लगे। जिंदगी की कल्पना, भविष्य की ऊर्जा और सपनों की चहलकदमी शिक्षण संस्थानों में होनी चाहिए, लेकिन वहां महज परीक्षा के मूल्यांकन ने