प्रधानमंत्री की चुनावी भूमिका

By: Mar 8th, 2017 12:02 am

एक बहुत पुराना प्रसंग याद दिला रहा हूं। उत्तर प्रदेश में सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बनाया गया था। सरकार कांग्रेस की थी। कांग्रेस में चंद्रभान गुप्ता, कमलापति त्रिपाठी सरीखे नेताओं ने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से आग्रह किया कि उपचुनाव का समय आ गया है, लिहाजा आपको प्रचार के लिए सुचेता जी के क्षेत्र में जाना चाहिए। इस पर नेहरू ने तुरंत इनकार कर दिया और कहा-मैं देश का प्रधानमंत्री हूं। संवैधानिक और कार्यकारी पद पर बैठा हूं। क्या मैं चुनाव में जाकर बिजली, सड़क, पानी, सीवर के मुद्दों पर बोलूंगा? नहीं…मैं कभी चुनाव प्रचार करने नहीं जाऊंगा। आग्रह करने वाले कांग्रेसी नेताओं ने आशंका जताई कि यदि सुचेता चुनाव हार गईं, तो आचार्य जी नाराज होंगे। नेहरू का फिर जवाब था कि वह किसी भी कीमत पर नहीं जाएंगे। पार्टी का अपना संगठन है। संगठन के नेता, पार्टी अध्यक्ष जो भी जाना चाहें, प्रचार करने जा सकते हैं। बहरहाल नेहरू उपचुनाव में प्रचार करने नहीं गए। हालांकि सुचेता की जीत हुई। एक और तथ्य गौरतलब है कि नेहरू लोकसभा चुनाव के दौरान भी अपने चुनाव क्षेत्र फूलपुर में भी प्रचार करने नहीं जाया करते थे। उत्तर प्रदेश में ही बाद के कालखंड में पार्टी सांसद टीएन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी उपचुनाव में प्रचार करने से इनकार कर दिया था। बेशक तब टीएन सिंह उपचुनाव हार गए और उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था, लेकिन 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने देश की गलियों की खाक छानी, खूब प्रचार किया। ऐसा ही 1980 में कुछ राज्यों के चुनाव थे। इंदिरा गांधी ने उनमें भी खूब प्रचार किया था। चूंकि अब प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार किया है, कुल 23 रैलियों को संबोधित किया है, गंगा से लेकर बाबा विश्वनाथ की पूजा की है और गोशाला जाकर गायों को केले और चारा खिलाया है। चूंकि यह अलग-अलग कालखंडों में प्रधानमंत्री की चुनावी भूमिका का संदर्भ है, तो नेहरू-गांधी से मोदी की तुलना फिजूल है। तब कांग्रेस का देश में एकछत्र वर्चस्व था, नेहरू बेहद लोकप्रिय नेता थे। जनसंघ और बाद में भाजपा का राजनीतिक अस्तित्व वैसा नहीं रहा है। उनके नेताओं ने अनथक परिश्रम और संघर्षों से मौजूदा स्थान अर्जित किया है। नेहरू-गांधी और मोदी के कालखंडों की चुनौतियां भी भिन्न हैं, लिहाजा यह सीमारेखा तय नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री किन चुनावों में प्रचार करेंगे और किनमें प्रचार नहीं करना चाहिए। इंदिरा गांधी ने तो गांव-गांव जाकर भी प्रचार किया था, क्योंकि वह दौर ही ऐसा था। भारत-पाक युद्ध हो चुका था, लेकिन फिर भी साजिशों के खतरे बरकरार थे। तब कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत से ज्यादा जनादेश मिला था। अब प्रधानमंत्री मोदी को आशंका थी कि कुछ महत्त्वपूर्ण सीटों पर पार्टी की हार संभावित है, तो उन्होंने धुआंधार चुनाव प्रचार किया। इसमें क्या गलत है? हम पहले भी इस मुद्दे पर टिप्पणी कर चुके हैं, लेकिन अब प्रधानमंत्री की चुनावी भूमिका पर सवाल उठाए जा रहे हैं, तो नेहरू और गांधी की भूमिकाओं से उसकी तुलना कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। बेशक प्रधानमंत्री के दायित्व भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय होते हैं। कई खुफिया सूचनाएं आती हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री से तुरंत साझा करने की जरूरत होती है। रक्षा नीति और कूटनीति के स्तर पर तुरंत कई निर्णय लेने होते हैं, लिहाजा राजधानी छोड़कर काशी में तीन दिन के प्रवास पर कई सवाल किए जा रहे हैं। ऐसा एक भी उदाहरण सामने नहीं आया है कि प्रधानमंत्री अपने दायित्वों से विमुख लगें। कोई आकस्मिक संकट भी देश पर नहीं है। कुछ घटनाएं अमरीका में हो रही हैं। हमारे राजदूत और विदेश सचिव वाशिंगटन में मौजूद हैं। टं्रप प्रशासन के संबद्ध जिम्मेदार लोगों से उन्होंने संवाद किया है। प्रधानमंत्री उसमें क्या टांग अड़ाएंगे? दरअसल देश ने लगातार 10 सालों तक एक निष्क्रिय प्रधानमंत्री देखा था। न तो वह रैली को संबोधित करते थे और न ही जनता उनकी बात सुनना चाहती थी। उनका एकमात्र चुनाव क्षेत्र 10, जनपथ था, जहां जाकर मकसद पूरा हो जाता है। अब देश का प्रधानमंत्री ऐसा है, जो कमोबेश 18-20 घंटे हररोज काम करता है और अपने तमाम दायित्व निभाता है। लिहाजा अपने चुनाव क्षेत्र काशी में लोगों के बीच तीन दिन गुजारने पर सवाल करना ही बौखलाहट, खीझ, चिंता की निशानी है। बहरहाल अब तो चुनाव प्रचार समाप्त हो चुका है। प्रधानमंत्री मोदी भी दिल्ली लौट आए हैं। अब तो जनादेश के ऐलान का इंतजार करना चाहिए।


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