मोदी को नया नेहरू बनाने से पहले जरा सोचें
भानु धमीजा
(सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’ लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं)
जब मजबूत विपक्ष की बात आती है तो मोदी का दृष्टिकोण नेहरू से पूरी तरह भिन्न है। जहां नेहरू ने एक बार कहा था, ‘‘मैं ऐसा भारत नहीं चाहता जिसमें लाखों लोग एक व्यक्ति की हां में हां मिलाएं, मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं।’’ मोदी तो सिर्फ ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ चाहते हैं। भारत से सच्चा प्रेम करने वाले सभी लोगों के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए…
ताजा राज्य चुनावों के परिणामों ने मोदी भक्ति को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। निश्चित रूप से मोदी में पसंद करने लायक बहुत कुछ है-जैसे नेहरू में प्रशंसा के लिए काफी कुछ था-परंतु अगर हम एक और प्रधानमंत्री नेहरू बनाते हैं तो हम अपने देश के हित नहीं साध रहे। प्रधानमंत्री नेहरू को समूचे भारत के एकछत्र नेता के रूप में ऐसी ही ऊंचाई प्रदान करने से देश में कई समस्याएं पैदा हुई थीं। राजनीति में व्यक्तिगत भक्ति के खिलाफ भारतीयों को सावधान करने वाले अंबेडकर पहले व्यक्ति थे। भारतीय संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण के दौरान अंबेडकर ने कहा, ‘‘भारत में, भक्ति किसी अन्य देश के मुकाबले कहीं अधिक भूमिका निभाती है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘धर्म में भक्ति आत्मा के मोक्ष की राह हो सकती है। लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा निम्नीकरण और अंततः तानाशाही का निश्चित रास्ता है।’’
शोध ने भी दर्शाया है कि जब नेताओं को मसीहा बनाया जाता है, वे वास्तविकता भूल जाते हैं। वे सोचने लगते हैं कि वे उस जनमानस से श्रेष्ठ हैं जो उन्हें सत्ता में लाया है। यह स्वयं की उन्नति, घमंड, शक्ति संचयन और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। वर्ष 2010 के एक अध्ययन में नीदरलैंड्स की एक यूनिवर्सिटी के दो प्रोफेसरों ने दिखाया कि ‘‘शक्ति भ्रष्ट बनाती है, परंतु केवल उन्हें जो सोचते हैं कि वे विशेषाधिकार के पात्र हैं।’’ उनके शोध का निष्कर्ष था कि ऐसे नेता ‘‘किसी स्तर पर यह महसूस करते हैं कि वे जो चाहें वह कर सकते हैं।’’ यह नैतिक लचीलापन मात्र धन लेने तक सीमित नहीं रहता बल्कि उनके निर्णयों तक जा पहुंचता है। नेहरू, जैसा हम सभी जानते हैं, ईमानदार थे, परंतु जैसे-जैसे उन्होंने और अधिक लोकप्रियता पाई, अपनी प्रसिद्धि और शक्ति के केंद्रीकरण की उनकी तीव्र इच्छाएं बदतर होती गईं। नेहरू अपनी व दूसरों की शक्ति की लालसा में अंतर देखने लगे। जहां उनकी अपनी पावर ‘‘लोगों का भला करने के लिए शक्ति का प्राकृतिक प्रेम’’ था, दूसरों की लालसा ‘‘जनता की सेवा के लबादे में छिपी अप्राकृतिक शक्ति की इच्छा’’। ऐसा उन्होंने 1958 में पार्टी के अनुनयन पर बतौर प्रधानमंत्री अपना तीसरा इस्तीफा वापस लेने के बाद लिखा था। भारतीय संविधान के प्रख्यात इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन ने नेहरू के शासन को ‘‘संस्थागत केंद्रीकरण’’ बताया है। मजबूत विपक्ष के अभाव में नेहरू की कभी स्वयं गलत न होने की भावना से कई परेशानियां पैदा हुईं। नजरबंदी और राष्ट्रपति शासन का दुरुपयोग, आर्थिकी और प्रशासन का अत्यधिक केंद्रीकरण, कमजोर संघवाद और असफल चीन नीति जो युद्ध का कारण बनी, इत्यादि कुछ उदाहरण हैं।
मोदी में नेहरू की कई समानताएं हैं। वह एक करिश्माई नेता और महान वक्ता हैं। वह अपने समय के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्हें अखिल भारतीय लोकप्रियता हासिल है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी दोषारोपण से परे है। मोदी भी अपनी पार्टी को समर्पित हैं। उनका कैडर पर गहरा प्रभाव और पदाधिकारियों पर पूर्ण नियंत्रण है। साथ ही, नेहरू की भांति, उनके संदेश जोशीले राष्ट्रवाद में लिपटे होते हैं, और एक महान राष्ट्र के निर्माण की भावना प्रस्तुत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी मोदी का कद के प्रति प्रेम नेहरू के बराबर ही लगता है। देश की व्यवस्था में मोदी ने केंद्रीकरण व व्यक्तिगत नियंत्रण के लिए समान झुकाव प्रदर्शित किया है, जिसमें गोपनीयता से कार्य करना शामिल है। परंतु सबसे चिंताजनक समानता यह है कि मोदी भी लोकतांत्रिक परंपराओं की भाषा बोलने की तीव्र समझ रखते हैं, लेकिन पालन तभी करते हैं जब सुविधाजनक हो।
इसका अर्थ मोदी से श्रेय छीनना नहीं बल्कि यह स्पष्ट करना है कि भारत को एक मजबूत विपक्षी पार्टी की कितनी अधिक आवश्यकता है। यह मजबूत विपक्ष का अभाव ही था जिसने नेहरू को उनकी गलतियों की ओर धकेल दिया, क्योंकि भारतीय सरकार की प्रणाली प्रधानमंत्री को निरंकुश नियंत्रण की अनुमति देती है। हमने इसका चरम इंदिरा गांधी के आपातकाल में देखा है। मुझे परेशान यह बात करती है कि मोदी के सुपुर्द यह वही प्रणाली है। उन्हें विकेंद्रीकरण या पारदर्शी रूप से काम करने को मजबूर करने से कहीं दूर यह प्रणाली उन्हें प्रलोभित करेगी। और मोदी शक्ति व प्रसिद्धि की अपनी अभिलाषा का शिकार बन जाएंगे। बेशक, मोदी भक्त यह सब नहीं सुनना चाहते हैं। न ही नेहरू भक्त सुनना चाहते थे। भक्त की परिभाषा ही यह है कि वह अपने आराध्य को कभी गलत नहीं देखता, और उसे हमेशा सदाचार का प्रतीक मानता है। परंतु समझदार दृष्टिकोण यह है कि इतिहास से हम सीखें कि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो कभी गलती न करे। दरअसल, एक होनहार नेता के अनुयायी उसकी सबसे बेहतर सेवा यह कर सकते हैं कि वे उसे आलोचना और जांच का सामना करने को मजबूर करें।
समस्या यह है कि इस समय भारत का विपक्ष ज्यादा कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। विपक्षी एकजुट नहीं हैं, उनके पास मुद्दा नहीं है, न ही मोदी को चुनौती देने के लिए उनके पास नेता। विकल्प के इस अभाव ने अति निष्पक्ष भारतीयों को भी मोदी के खेमे में धकेल दिया है। ताजा राज्य चुनावों ने राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को भारी नुकसान पहुंचाया है। अखिलेश यादव ने कुछ संभावना जगाई परंतु वह अनुभवहीन हैं। ममता बनर्जी केवल क्षेत्रीय नेता हैं। दक्षिण के किसी नेता की उत्तर भारत में पहचान नहीं है। बिहार के नीतीश कुमार की अच्छी साख है, परंतु वह जाति आधारित संकीर्ण राजनीति के लिए कुख्यात लालू यादव जैसों के साथ हो लिए हैं।
मजबूत राष्ट्रीय विपक्ष उपलब्ध करवाने की सबसे बड़ी उम्मीद अभी भी कांग्रेस है। पार्टी को अपनी वंश परंपरा और खुशामद की संस्कृति तुरंत बदलनी चाहिए। इसे अपने अरसे से उपेक्षित लेकिन अच्छे नेताओं को राष्ट्रीय परिदृश्य में लाना चाहिए। इसे आंतरिक लोकतंत्र लागू करना चाहिए। इससे विस्तृत समर्थन वाले नेता और सबसे उत्थानपूर्ण विचार सामने आएंगे। कांग्रेस के पास कई अनुभवी और सुपरिचित राजनेता हैं-पी. चिदंबरम, शशि थरूर, आनंद शर्मा, अमरिंदर सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आदि-जो पार्टी को विषाद से बाहर लाने में सक्षम होने चाहिए। परंतु समय महत्त्वपूर्ण है। इतिहास गवाह है कि भाजपा को कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय विकल्प बनने में 15 से अधिक वर्ष लगे। कांग्रेस की हालांकि एक और भी विशेष चिंता है। जब मजबूत विपक्ष की बात आती है तो मोदी का दृष्टिकोण नेहरू से पूरी तरह भिन्न है। जहां नेहरू ने एक बार कहा था, ‘‘मैं ऐसा भारत नहीं चाहता जिसमें लाखों लोग एक व्यक्ति की हां में हां मिलाएं, मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं।’’ मोदी तो सिर्फ ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ चाहते हैं। भारत से सच्चा प्रेम करने वाले सभी लोगों के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए।
साभार : हफिंग्टन पोस्ट/टाइम्स ऑफ इंडिया
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