हिमाचल में सियासी तरलता

By: Jun 10th, 2017 12:02 am

चुनाव के उज्ज्वल इरादों की तस्वीर लगातार साफ हो रही है और इसी के परिप्रेक्ष्य में दो सरकारों की पेशकश में हिमाचल अपना भविष्य देख रहा है। सक्रियता के सिलसिलों में दिल्ली की दूरियां निरंतर घट रही हैं, तो भाजपा का दिल हिमाचल पर पूरी तरह आ गया है। जाहिर है केंद्र सरकार की अपनी चमक है और अगर इसकी कुछ किरणें हिमाचल पर मेहरबान होती रहें, तो राजनीतिक प्रकाश में उज्ज्वल मंतव्य दिखाई देगा। हिमाचल में पेट्रोलियम टर्मिनल के जरिए केंद्र बहुत कुछ उंडेल पाएगा और इससे राजनीतिक तरलता का भी हिसाब हो सकता है। हालांकि परियोजना के प्रारंभिक कार्य काफी पहले से जारी हैं, फिर भी इस दौर का यह शिलान्यास कोई आम समारोह नहीं है, बल्कि बहुत कुछ तसदीक होना बाकी है। परियोजना की अपनी खूबियों में हिमाचल को जो मिल रहा है, उसकी तारीफ करनी होगी। इसके लक्ष्य में प्रदेश तक पहुंचने वाले पेट्रोलियम उत्पादों की लागत कम होगी और जिसका सीधा लाभ मिलेगा, जबकि शिलान्यास पर टंगे उद्देश्य अपने साथ रोजगार का इंतजाम भी करेंगे। इस माहौल के सदके हम भविष्य को रंगीन या रेखांकित होते देखते हैं। भारत के एक मंत्रालय से हिमाचली अपेक्षाओं का सफर ऊना से मुखातिब हो रहा है, तो अगली पायदान पर हमें मोदी मंत्रिमंडल की सूची पलटनी पड़ेगी, ताकि कुछ और मंत्री विकास का नाता मजबूत करें। हिमाचल से पर्वतीय राज्य को कुछ मंत्रालयों को छोड़कर कमोबेश हर केंद्रीय विभाग से अपने हित की दरकार है। इस सूची में सबसे ऊपर पहले ही नितिन गडकरी विराजमान हैं, फिर भी समूचा प्रदेश चाहता है कि एक बार रेल मंत्री सुरेश प्रभु यहां आकर देखें कि बिना ट्रैक के हिमाचली जिंदगी किस आधार पर चलती है। विषमताओं की गणना में पर्वतीय परिवेश की वकालत अगर यह चुनाव सही मायने में कर दे, तो यकीनन राष्ट्रीय नीतियों में बदलाव आएगा। ऐसे में जो भी केंद्रीय मंत्री अभी तक हिमाचल पहुंचे हैं, उन्होंने पहाड़ की चोटियों से बहते पसीने को अवश्य ही अंगीकार किया होगा। पैरामिलिट्री फोर्सेज की भर्ती का बंदोबस्त अगर इसी प्रदेश में हो जाता है, तो केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का आगमन भी फलदायी माना जाएगा। अब यह समझना तो मतदाता को है कि बड़े और रंगीन फल अचानक क्यों हिमाचल में पकने लगे। बहरहाल आंसुओं की जंग में बिना नहाए अगर चुनावी इबारतें हमें समझने लगीं, तो यह भी कबूल है। हमें तो यह भी स्वीकार है कि चुनावी बरसात में पौंग बांध में जज्बात की किश्तियां दौड़ें और विस्थापन के टापू पर राजनीति हो। अचानक राजस्थान की करवटों में महान होने की कोशिश और लगने लगा कि भाजपा का किसान संघर्ष, इस बार मोहतरमा वसुंधरा राजे सिंधिया को पौंग में खींची गई लकीरें दिखाएगा, लेकिन जमीन जब पानी के नीचे डूब जाए तो उसकी शिनाख्त नहीं होती। देश के लिए सबसे बड़े विस्थापन के बीच सियासत अपनी संस्कृति तो फैला लेती है, लेकिन डूबे मंजर की कहानी बन चुके कांगड़ा के तीस हजार परिवार आज भी अस्तित्व के भंवर में खड़े हैं। हम सुखद एहसास कर सकते हैं कि भाजपा शासित राजस्थान के तीन मंत्री प्रदेश के मुख्यमंत्री को आश्वासन देते हैं, लेकिन पौंग अब हमारे लिए तो छाती पर रखकर मूंग दलने जैसा ही बना रहेगा। बहरहाल हिमाचल के आईने में एक साथ कई सरकारों का अर्द्धसत्य प्रतिबिंबित हो रहा है, फिर भी हम इसके आगे की ओस हटाकर जो तस्वीर देखना चाहते हैं, उसे राजनीति से अलग करके देखना होगा। इधर, प्रदेश सरकार भी कसरतों में अपनी आजमाइश का मुलम्मा ओढ़ रही है, तो अब हिमाचली रात भी दिन लगती है। यह श्रेय तो हिमाचल सरकार को जाएगा कि सत्ता के इन सालों में नौकरशाही व अफसरशाही अपनी मौलिकता में लौट आई और काम करने की मनाही छंट गई। राजनीति से हटकर घोषणा हो नहीं सकती, फिर भी चुनावी साल में पत्थर दिहाड़ी लगाते हैं। हिमाचल प्रदेश के लिए केंद्रीय मंत्रियों की दिहाडि़यां जिस तरह बढ़ रही हैं, हर घर की ईंट इसे समझ रही है। यह ईंटों का चबूतरा है और इसलिए हर दिशा में उजाला है। ऊना के पेखुबेला में भी तो एक ऐसा चबूतरा सजा, जो एक साथ मोदी और वीरभद्र सिंह की जय जयकार सुन सका।

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