‘हत्यारे’ पत्थरबाजों को माफी क्यों?

By: May 11th, 2018 12:05 am

अभी तक तो पत्थरबाज सैनिकों और सुरक्षा बलों को ही निशाना बनाते थे। मासूम स्कूली बच्चों पर भी पथराव किया गया था। अमरनाथ यात्रियों को भी नहीं बख्शा गया, लेकिन अब उन्होंने सैलानी की हत्या करके न सिर्फ अपनी ‘रोटी’ पर प्रहार किया है, बल्कि पर्यटन की जीवन-रेखा को भी अवरुद्ध करने की कोशिश की है। हम सेना के आतंकियों के खिलाफ आपरेशनों के संदर्भ में पत्थरबाजों की भूमिका पर सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन अब पत्थरबाज ‘हत्यारे’ भी साबित हो रहे हैं, तो उस पर सरकारें क्या कार्रवाई करेंगी? यह एक बड़ा सवाल है। शर्म से सिर झुकाना या गृह मंत्रालय और कश्मीर में सर्वदलीय बैठकें करना ही पर्याप्त नहीं है। यदि कश्मीर पर वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा श्रीनगर का दौरा कर आएंगे, तो उससे क्या हासिल होगा? पर्यटन जम्मू-कश्मीर की बुनियादी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सेदारी पर्यटन की है। औसतन 300 करोड़ रुपए पर्यटन से ही आते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पर्यटन 1 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया करवाता रहा है। 2016 में जम्मू-कश्मीर में 63,207 विदेशी पर्यटक आए थे। देश के शीर्ष 36 पर्यटन गंतव्यों में 23वां स्थान कश्मीर का है। 2016 के पहले चार महीनों में पर्यटकों की संख्या 3,91,902 थी, जो 2017 में घटकर 1,69,727 रह गई। 2018 में फिलहाल सैलानियों की संख्या 1,54,062 बताई जा रही है। आखिर ये  आंकड़े गिरते क्यों जा रहे हैं? एक तथ्य यह है कि जुलाई, 2016 में आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी में लगातार हिंसा और पत्थरबाजी की घटनाएं जारी हैं। 2016 में पत्थरबाजी की घटनाएं 2808 हुईं, तो 2017 में घटकर 1261 हुईं, लेकिन 2018 में अभी तक ये घटनाएं बढ़ी हैं। हालांकि उनके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। आतंकवाद और अब पत्थरबाजी ने कश्मीर की बुनियादी अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न किया है। कई जगहों पर तो दिवालियापन के हालात पैदा हो चुके हैं। पत्थरबाजों ने श्रीनगर-बारामूला राजमार्ग पर एक तमिल सैलानी की पत्थर मार कर  हत्या कर दी। उसका कसूर क्या था? वह तो ‘धरती की जन्नत’ के दीदार करने आया था। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने उसके परिजनों से मिलकर शोक जता लिया और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी इसे ‘शर्मनाक’ करार दिया। क्या यह पत्थरबाजों को लगाम लगाने का उचित तरीका है? गृह मंत्रालय के परामर्श से मुख्यमंत्री ने 9700 से ज्यादा पत्थरबाजों को माफी दे दी। आखिर यह बेलगाम रवैया क्यों? खुलासा किया जाना चाहिए कि किस आधार पर उन पत्थरबाजों को माफ किया गया, जो आज सैलानियों के ‘हत्यारे’ बन रहे हैं? अभी एक सैलानी मारा है, कल समूह पर पथराव कर सकते हैं! दरअसल पत्थरबाजी एक प्रवृत्ति है, जो आतंकवाद के बेहद करीब है। अब मुख्यमंत्री महबूबा ने नया सियासी दांव खेला है। सर्वदलीय बैठक से एक मांग उभरी है कि कमोबेश रमजान महीने और अमरनाथ यात्रियों की आवाजाही के दौरान मुठभेड़ें और तलाशी अभियान बंद किए जाएं। जम्मू-कश्मीर सरकार और सभी दलों ने मोदी सरकार से यह मांग की है। उसमें भाजपा भी शामिल है। सवाल हो सकता है कि जब कश्मीर घाटी में हिजबुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तैयबा के कमांडर आतंकी मारे जा रहे हैं, तो सैन्य आपरेशन बंद करने से किसे राहत मिलेगी-आम जनता को या आतंकियों को…? आपरेशन का निर्णय सेना का है। हमारा मानना है कि ऐसे मामलों में मोदी सरकार शायद ही दखल दे और यह राज्य सरकार के अधिकार-क्षेत्र से बाहर की बात है। दरअसल महबूबा अपनी ‘विश्वास निर्माण’ की सियासत को संबोधित करना चाहती हैं, जो उनसे छिटकती जा रही है। मुख्यमंत्री महबूबा पाकिस्तान को भी संबोधित कर रही हैं, क्योंकि गोलाबारी, ग्रेनेड, विस्फोट और घुसपैठ तो सीमा पार से ही होती है। हमारे कश्मीर में ‘निरकुंश पत्थरबाज’ ही बुनियादी समस्या हैं। क्या संघर्षविराम से उनकी हरकतों और साजिशों पर विराम लगेगा? लगाम पत्थरबाजों पर लगाई जानी है। अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ छोड़कर उन्हीं पर कोई नीतिगत निर्णय लिया जाना चाहिए, नहीं तो कश्मीर में सैलानियों की हत्या का सिलसिला जारी रहेगा!

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