खतरे में मोदी-शाह की सियासत

By: Nov 1st, 2018 12:07 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

भाजपा में यूं भी अब लोग स्वयं को घुटा-घुटा सा महसूस करते हैं और कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन चुनाव के समय टिकटें न मिलने पर असंतोष का जो लावा फूटेगा, उसे संभाल पाना मोदी और शाह की जोड़ी के लिए सचमुच बहुत कठिन होगा। ‘1914 : नमो ऑर मोना’ के लेखक अमित बागडि़या मोदी भक्त हैं और वे इसे छुपाते भी नहीं। उन्हीं की कंपनी ‘माई वोट टुडे’ द्वारा संचालित सर्वेक्षणों में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि मोदी की लोकप्रियता लगातार गिर रही है…

मोदी सरकार की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। चार जजों की प्रेस कान्फ्रेंस, अडानी समूह को टैक्स माफी, अडानी और अंबानी को दी जाने वाली सुविधाएं, भाजपा को विदेशी फंडिंग मामले में जवाबदेही से बचाने के लिए वित्त विधेयक में लगातार दूसरे साल भी अनैतिक प्रावधान, भारतीय सार्वजनिक उपक्रमों की हत्या, जय शाह मामला, व्यापम घोटाला, राफेल मामला आदि आरोपों से घिरी मोदी सरकार अब रिजर्व बैंक से मतभेदों के चलते फिर सुर्खियों में है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गर्वनर ने कहा है कि रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्थान है और इसकी स्वायत्तता पर आघात नहीं किया जाना चाहिए। इसके बाद सरकार ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को पत्र लिखकर बताया है कि जनहित के विभिन्न मुद्दों पर सरकार रिजर्व बैंक को निर्देश दिया करेगी। लिक्विडिटी के मुद्दे, बैंकों की कमजोर स्थिति तथा छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज आदि मामले अब सरकार के निर्देशानुसार तय किए जाएंगे। बीते शुक्रवार को रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने रिजर्व बैंक की स्वायत्तता बरकरार रखने और सरकार की तरफ से पड़ रहे दबाव का जिक्र किया था। विरल आचार्य का यह बयान ऐसे वक्त आया है, जब सरकार देश में पेमेंट सिस्टम के लिए एक अलग नियामक संस्था (रेग्युलेटर) बनाने की संभावना पर विचार कर रही है। केंद्र सरकार ने आरबीआई एक्ट के सेक्शन-7 के तहत मिली शक्ति का इस्तेमाल किया है। इस शक्ति के तहत सरकार को अधिकार है कि यदि जनहित से जुड़े कुछ मुद्दों को सरकार अहम और गंभीर समझती है, तो वह आरबीआई गवर्नर को सलाह या निर्देश दे सकती है। गौरतलब है कि सरकार को यह शक्ति भले मिली हुई है, लेकिन 1991 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुजर रही थी, तब भी और जब साल 2008 में वैश्विक मंदी ने अर्थव्यवस्था को घेरा था तब भी सरकार ने इस शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया था।

मोदी सरकार की ओर से लोकतांत्रिक संस्थाओं के अधिकारों के क्रमिक हनन की खबरें शुरू से ही चर्चा में रही हैं। रिजर्व बैंक से सरकार की तनातनी पहले ही एक संवेदनशील मुद्दा थी, सरकार के इस कदम से अब आग में और भी घी पड़ गया है। स्पष्ट है कि मोदी सरकार की लोकप्रियता में उत्तरोत्तर गिरावट आ रही है और सरकार के पास विकास के नाम पर दिखाने के लिए कुछ भी ठोस नहीं है। सरकार की मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं। इसी वर्ष प्रकाशित अमित बागडि़या की पुस्तक  ‘1914  ः नमो ऑर मोना’ में कई नए खुलासे हुए हैं, जिन्हें जानना-समझना आवश्यक है। यूपीए-2 के शासनकाल में सन् 2009 में शिक्षा का अधिकार (राइट टू एजुकेशन) अधिनियम पास हुआ, जिसमें यह प्रावधान था कि बहुसंख्यक समाज द्वारा संचालित निजी शिक्षण संस्थाओं में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों तथा अन्य वंचित वर्गों के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित रखी जाएंगी और इन बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देना शिक्षण संस्थान की जिम्मेदारी होगी। यदि कोई शिक्षण संस्थान ऐसा नहीं करता, तो राज्य सरकार या तो उस संस्थान को बंद कर सकती है या फिर उसका अधिग्रहण कर सकती है। सरकार द्वारा सहायता प्राप्त स्कूल और अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थान इस कानून के दायरे में नहीं आते।

अमित बागडि़या का कहना है कि इस कानून के कारण बहुसंख्यक समाज, यानी हिंदुओं द्वारा संचालित निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा महंगी हो गई है, क्योंकि उन्हें 25 प्रतिशत बच्चों को शिक्षा मुफ्त देनी पड़ रही है और इस खर्च को पूरा करने के लिए शेष छात्रों की फीस बढ़ गई है, जबकि ईसाई अथवा मुस्लिम समाज द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों पर ऐसा कोई बंधन नहीं है। टीएमए पाई बनाम कर्नाटक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को असंवैधानिक बताया था, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने 93वें संविधान संशोधन के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। उल्लेखनीय है कि सन् 2009 में शिक्षा के अधिकार का यह अधिनायकवादी कानून भाजपा के समर्थन से पास हुआ था। यानी स्वयं को हिंदुओं का एकमात्र प्रतिनिधि बताने वाले राजनीतिक दल ने हिंदू हितों के विरुद्ध जाकर एक पक्षपातपूर्ण कानून बनाने में भागीदारी की थी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर भाजपा में यह आम विचार था कि अब इस कानून को निरस्त कर दिया जाएगा, लेकिन साढ़े चार साल में मोदी सरकार ने इस कानून को वापस लेने या इसमें वांछित सुधार करने की कोई कोशिश भी नहीं की है। इससे भाजपा में ही नहीं, संघ और शेष अनुषंगी संस्थाओं में भी मोहभंग की जैसी स्थिति है। भाजपा में यूं भी अब लोग स्वयं को घुटा-घुटा सा महसूस करते हैं और कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन चुनाव के समय टिकटें न मिलने पर असंतोष का जो लावा फूटेगा, उसे संभाल पाना मोदी और शाह की जोड़ी के लिए सचमुच बहुत कठिन होगा। ‘1914 ः नमो ऑर मोना’ के लेखक अमित बागडि़या मोदी भक्त हैं और वे इसे छुपाते भी नहीं। उन्हीं की कंपनी ‘माई वोट टुडे’ द्वारा संचालित सर्वेक्षणों में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि मोदी की लोकप्रियता लगातार गिर रही है। मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर जहां 56 प्रतिशत लोगों ने मोदी सरकार से नाराजगी जाहिर की थी, वहीं पौने चार साल बीत जाने पर किए गए सर्वेक्षण में 67 प्रतिशत लोगों ने मोदी सरकार के कामकाज से अप्रसन्नता का इजहार किया। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह एक भाजपा समर्थक द्वारा मुख्यतः भाजपा समर्थकों के बीच किया गया सर्वेक्षण था।

इसी कंपनी के एक और सर्वेक्षण में लोगों ने अरुण जेतली को भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में सर्वाधिक भ्रष्ट व्यक्ति का खिताब दिया है। यदि भाजपा समर्थकों में ही मोदी सरकार की यह छवि है, तो मोदी की सियासत की दुकान कितने खतरे में है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। अमित बागडि़या ने मोदी सरकार को चुनाव जीतने के लिए जो सुझाव दिए हैं, उनमें से एक सुझाव यह भी है कि सरकार को एक कानून बनाकर राम मंदिर का निर्माण करना चाहिए तथा आतंकवाद के विरुद्ध जिहाद बोलते हुए पाकिस्तान पर आक्रमण कर देना चाहिए। राम जाने, मोदी जी ने अपने इस भक्त की यह किताब पढ़ी है या नहीं!

ईमेलः indiatotal.features@gmail.


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