क्यों लुढ़क रहा विश्व व्यापार संगठन

By: Jan 1st, 2019 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

1995 में जब डब्लूटीओ संधि बनाई गई उस समय अमरीका में तमाम एकाधिकार वाले उत्पादों का आविष्कार हो रहा था। इंटरनेट के राउटर, बिजली से चलने वाली कारें तथा अन्य तमाम नए हाईटेक उत्पाद अमरीका में बन रहे थे। इनका अमरीका ऊंचे दाम पर निर्यात कर रहा था और विश्व से सस्ते माल आयात कर रहा था। उस समय हमारे नेता मुक्त व्यापार के इस पक्ष को भूल गए कि मुक्त व्यापार के अंतर्गत एकाधिकार वाले माल का आयात करके वे घाटा खाएंगे…

वर्ष 2015 में भारत ने जापान से आयातित कुछ विशेष प्रकार के स्टील पर आयात कर बढ़ा दिए थे। भारत का कहना था कि अपने घरेलू स्टील उद्योगों को बचाने के लिए जापान से हो रहे स्टील के आयात पर आयात कर बढ़ाना जरूरी था। हाल में विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ ने निर्णय दिया है कि भारत द्वारा लगाए गए ये आयात कर अनुचित थे। डब्लूटीओ का कहना है कि घरेलू उद्योगों को बचाने के लिए आयात कर तभी बढ़ाए जा सकते हैं, जब आयातों में तीव्र वृद्धि हो जो कि घरेलू उद्योग के लिए कठिनाई पैदा करे। घरेलू उद्योगों को हानि हो तो भी सामान्य रूप से बढ़ रहे आयातों पर आयात कर नहीं बढ़ाए जा सकते हैं। इसी प्रकार कुछ वर्ष पूर्व अमरीका ने भारत से आयातित स्टील पर भी आयात कर बढ़ा दिए थे। तब भी डब्लूटीओ ने निर्णय दिया कि था कि अमरीका द्वारा लगाए गए आयात कर अनुचित हैं। इसी क्रम में चीन और अमरीका में चल रहे ट्रेड वार को भी देखा जाना चाहिए। अमरीका का कहना है कि चीन के सस्ते आयात उसके अपने घरेलू उद्योगों को नष्ट कर रहे हैं। इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन से आयातित माल पर आयात कर बढ़ा दिए हैं। इन प्रकरणों से स्पष्ट होता है कि प्रमुख देशों के लिए मुक्त व्यापार अब लाभ का सौदा नहीं रह गया है, अब इससे उन्हें हानि दिखने लग गई है। इसलिए तमाम देश मुक्त व्यापार से पीछे हट रहे हैं। वर्ष 1995 में जब डब्लूटीओ की संधि पर दस्तखत किए गए थे उस समय अमरीका मुक्त व्यापार का पुरजोर समर्थन कर रहा था। आज वही अमरीका उसी मुक्त व्यापार का विरोध कर रहा है।

आज ऐसा क्या हो गया है कि अमरीका के ही नहीं, बल्कि तमाम प्रमुख देशों की चाल में परिवर्तन आ रहा है। विषय को समझने के लिए मुक्त व्यापार के सिद्धांत को समझना होगा। मुक्त व्यापार का सिद्धांत कहता है कि जो देश जिस माल को सस्ता बनाता है, उसे उसी माल को बनाना चाहिए और दूसरे देशों से शेष माल का आयात करना चाहिए। जैसे मान लीजिए अमरीका में सेब का उत्पादन सस्ता होता है और भारत में चीनी का। ऐसे में अमरीका को सेब का उत्पादन करना चाहिए और चीनी का आयात करना चाहिए, जबकि भारत को चीनी का उत्पादन चाहिए और सेब का आयात करना चाहिए। ऐसा करने से अमरीकी सस्ते सेब और भारतीय सस्ती चीनी भारत और अमरीका दोनों के उपभोक्ताओं को मिल जाएगी। ऐसा मुक्त व्यापार दोनों देशों के लिए लाभप्रद है। अब इसमें थोड़ी अलग परिस्थिति पर विचार करें। मान लीजिए अमरीका कम्प्यूटर सस्ते बनाता है और भारत चीनी सस्ती उत्पादित करता है। मुक्त व्यापार के सिद्धांत के अनुसार भारत को अमरीका से कम्प्यूटर खरीदने चाहिए और चीनी का निर्यात करना चाहिए, लेकिन अमरीका विश्व में अकेला कम्प्यूटर का निर्माता है। जैसे आज अमरीका की माइक्रोसाफ्ट कंपनी विश्व में अकेली विंडोज साफ्टवेयर आपरेटिंग सिस्टम की निर्माता है। ऐसे में माइक्रोसाफ्ट के लिए विंडो साफ्टवेयर को मनचाहे ऊंचे दाम पर बेचना संभव होता है, चूंकि उसका बाजार पर एकाधिकार अथवा मोनोपोली है। इस परिस्थिति में मुक्त व्यापार का चरित्र बदल जाता है। अमरीका विंडोस साफ्टवेयर को पूरे विश्व को महंगा बेच सकता है और भारत से चीनी, बंगलादेश से चावल, वियतनाम से कॉफी आदि सस्ते माल का आयात कर सकता है। ऐसा मुक्त व्यापार अमरीका के लिए दोहरे लाभ का सौदा है। एक तरफ उसे विंडोज साफ्टवेयर के निर्यात से भारी आय होगी, तो दूसरी तरफ चीनी, चावल और कॉफी सस्ती उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसी परिस्थिति में विश्व व्यापार उन्हीं देशों के लिए लाभप्रद होता है, जिनके पास एकाधिकार वाले कुछ उत्पाद हैं, जिन्हें वे मनचाहे दाम पर निर्यात कर सकें। 1995 में जब डब्लूटीओ संधि बनाई गई उस समय अमरीका में तमाम एकाधिकार वाले उत्पादों का अविष्कार हो रहा था। विंडोज साफ्टवेयर उसी समय की देन है। इसके अलावा इंटरनेट के राउटर, बिजली से चलने वाली कारें तथा अन्य तमाम नए हाईटेक उत्पाद अमरीका में बन रहे थे। इनका अमरीका ऊंचे दाम पर निर्यात कर रहा था और विश्व से सस्ते माल आयात कर रहा था। अमरीका उस समय मुक्त व्यापार को बढ़ावा दे रहा था। उस समय हमारे नेता मुक्त व्यापार के इस पक्ष को भूल गए कि मुक्त व्यापार के अंतर्गत एकाधिकार वाले माल का आयात करके वे घाटा खाएंगे। अब अमरीका की परिस्थिति बदल गई है। वर्तमान में अमरीका में नए आविष्कार नहीं हो रहे हैं। इसलिए अमरीका और भारत की परिस्थिति सेब और चीनी जैसी बराबरी की हो गई है। साथ-साथ अमरीका में श्रमिकों के वेतन अधिक और भारत में श्रमिकों का वेतन कम है। भारत में बना माल अमरीका की तुलना में सस्ता पड़ता है।

इसलिए अमरीकी उद्योग भारत जैसे देशों के सामने खड़े नहीं हो पा रहे। यही कारण है कि अमरीका आज मुक्त विश्व व्यापार से पीछे हट रहा है। सारांश यह है कि मुक्त व्यापार का सिद्धांत तभी तक सफल होता है, जब हर माल के तमाम उत्पादक हों और इनकी प्रतिस्पर्धा से विश्व बाजार में सभी माल का दाम न्यून बना रहे जैसे सेब और चीनी के। वही मुक्त व्यापार उस परिस्थिति में सफल नहीं होता, जहां कुछ माल को विशेष देश मनचाहे दाम पर बेच सके। तब मुक्त व्यापार ऐसे देशों के लिए लाभप्रद होता है और जो देश सामान्य माल जैसे चीनी और कॉफी उत्पादन करते हैं, उनके लिए वह घाटे का सौदा हो जाता है। वर्तमान में अमरीका समेत संपूर्ण विश्व की परिस्थिति इसी प्रकार की हो गई है। विश्व के किसी भी देश के पास कोई विशेष तकनीकी आविष्कार नहीं हैं, जिनको वे ऊंचे दाम में बेच कर लगातार भारी मुनाफा कमा सकें, इसलिए विश्व के सभी प्रमुख देश मुक्त व्यापार से पीछे हट रहे हैं। इनमें उन देशों के लिए विशेष संकट है जिनके वर्तमान में वेतन अधिक हैं, जैसे अमरीका और जापान के। इन देशों के लिए अपने माल को विश्व बाजार में बेचना कठिन होता जा रहा है, क्योंकि वही माल भारत और वियतनाम सस्ता बनाकर विश्व बाजार में बेच रहे हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि मुक्त व्यापार का तार्किक परिणाम होता है कि विश्व के सभी देशों में श्रमिक के वेतन बराबरी पर आएंगे।

चूंकि अमरीका और जापान अपने श्रमिकों के वेतन विश्व के एक स्तर पर लाने को तैयार नहीं हैं। वे अपने श्रमिकों का वेतन ऊंचा बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए अमरीका और जापान जैसे विकसित देश विशेष रूप से मुक्त व्यापार से पीछे हटेंगे और आने वाले समय में हम मुक्त व्यापार का विघटन देखेंगे। भारत को भी समय रहते मुक्त व्यापार से पीछे हटने की तैयारी करनी चाहिए और अपने घरेलू उद्योगों को संरक्षण देकर अपनी जनता का हित हासिल करना चाहिए।


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