नेता, नीतियां और नीयत

By: Jan 10th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

सरकार ने लोकसभा में 8 लाख रुपए वार्षिक से कम आय वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण के प्रावधान का बिल पास करवा लिया है। लोकसभा में जिस तरह से 17 दलों ने इस बिल का समर्थन किया, उससे स्पष्ट है कि यह बिल राज्यसभा में भी पास हो जाएगा और फिर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून की शक्ल ले लेगा। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून पास किया था। क्या उससे देश में भुखमरी मिट गई…

भारत इस वक्त सब ओर से समस्याओं से घिरा हुआ है। देश कर्ज के भारी जाल में फंसा हुआ है, गरीबों की संख्या बढ़ती जा रही है और गरीब तथा अमीर के बीच की खाई भी बढ़ती जा रही है, युवा वर्ग बेरोजगारी की मार झेल रहा है, भ्रष्टाचार का कोई अंत नहीं, शिक्षा विकृत होती जा रही है, चिकित्सा सेवा बीमार है, इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए धन नहीं है, लाखों लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता, भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है और हम झूठ की दुनिया में जी रहे हैं। देश के सभी बड़े अर्थशास्त्री तो बार-बार चेतावनी दे ही रहे थे कि वर्तमान सरकारी आर्थिक नीति हमें दिवालिया बना रही है। हम कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं। अब हम प्रतिरक्षा के मद पर होने वाले खर्च से भी ज्यादा तो ब्याज ही दे रहे हैं। सन् 2016 में प्रतिरक्षा पर हमारा खर्च 8728 करोड़ रुपए था, जबकि हमने इसी वर्ष 8750 करोड़ रुपए का सूद अदा किया। अर्थशास्त्रियों को यह डर है कि जल्द ही हमारा कर्ज बढ़ कर कुल राष्ट्रीय आय के बराबर हो जाएगा। इस संकट की चेतावनी सिर्फ अर्थशास्त्री ही नहीं दे रहे, बल्कि सन् 2016 के बजट के बाद वित्त मंत्रालय ने जो ‘बजट पेपर’ संसद के सामने रखा, उसमें भी इस संभावित संकट की आशंका जताई गई थी।

विदेशी कर्ज की बात छोडि़ए, सन् 2016 में हमारी सरकार ने अपने देश में ही विभिन्न स्रोतों से 70,000 करोड़ रुपए का कर्ज  ले रखा था। सरकार की बाकी देनदारियों का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं कि वित्त मंत्री ने जब इस संकट से विश्व बैंक को अवगत कराया और उबारने के लिए फरियाद की, तो विश्व बैंक ने मदद देने में असमर्थता प्रकट की और विदेशी मुद्रा बाजार से कर्ज उगाहने का सुझाव दिया। स्पष्ट है कि हम कर्ज की अंधी सुरंग में फंस रहे हैं और हमारा हाल भी अर्जेंटीना और मैक्सिको जैसा होने वाला है। इसके बावजूद हम इस गुमान में जी रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है। सरकार की ओर से नए-नए आंकड़े फेंक कर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। समस्याओं का स्थायी हल ढूंढने के बजाय मतदाताओं को छोटे-छोटे लॉलीपॉप देकर ध्यान बंटाया जा रहा है। रोजगार सृजन का कोई उपाय नहीं हो रहा, सरकार के पास नौकरियां नहीं हैं, कुछ हजार नौकरियों के लिए लाखों युवा आवेदन कर देते हैं और चपरासी के पद के लिए ग्रेजुएट ही नहीं, इंजीनियर और अन्य उच्च शिक्षित युवा भी लालायित दिखते हैं। रोजगार को लेकर ऐसी मारामारी की स्थिति में भी सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है। यह खेद का विषय है कि एक तरफ बेरोजगारी बढ़ी है, तो दूसरी तरफ उपभोक्तावाद बढ़ा है। महंगाई बढ़ते जाने के कारण जीवन की स्थितियां कठिन होती जा रही हैं। हाल ही में वाशिंगटन पोस्ट ने खबर छापी कि रेलवे विभाग में 63,000 रिक्तियों के लिए दो करोड़ के लगभग युवाओं ने आवेदन किया। एक विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि अगले दो वर्षों में देश में 15 से 34 वर्ष की उम्र के युवाओं की संख्या 48 करोड़ तक जा पहुंचेगी। पिछली पीढि़यों के मुकाबले वर्तमान पीढ़ी ने स्कूल-कालेज में ज्यादा समय बिताया है, यह अधिक पढ़े-लिखे लोगों की पीढ़ी है, लेकिन इस वृहद शक्ति के उपयोग की कोई ठोस योजना कहीं नजर नहीं आती। सरकार ने लोकसभा में 8 लाख रुपए वार्षिक से कम आय वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण के प्रावधान का बिल पास करवा लिया है। आरक्षण के इस प्रावधान में सवर्ण हिंदुओं के अलावा मुस्लिम और ईसाई वर्ग के लोग भी शामिल हैं। लोकसभा में जिस तरह से 17 दलों ने इस बिल का समर्थन किया, उससे स्पष्ट है कि यह बिल राज्यसभा में भी पास हो जाएगा और फिर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून की शक्ल ले लेगा। हमें याद रखना चाहिए कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून पास किया था। क्या उससे देश में भुखमरी मिट गई? क्या किसानों की आत्महत्याएं बंद हो गईं? जब किसी ठोस योजना के बिना कानून बनाया जाता है, तो व्यावहारिक स्तर पर उसका पिट जाना खुद ही सुनिश्चित हो जाता है। यही हाल इस कानून का आशंकित है। क्या सरकार के पास इतनी नौकरियां हैं कि वह बेरोजगार युवाओं को रोज़गार प्रदान कर सके? मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर यह सवाल उठा रहा है कि अगर नौकरी ही नहीं है, तो आरक्षण से क्या होगा क्योंकि शून्य का 10 प्रतिशत भी शून्य ही होता है। एक और बड़ी विडंबना यह है कि आरक्षण ने समाज में वैमनस्य पैदा किया था, तो समाज में यह धारणा आम थी कि आरक्षण के प्रावधान के कारण अयोग्य लोगों को नौकरी मिल जाती है, जबकि सामान्य वर्ग के योग्य लोग योग्यता के बावजूद नौकरी से वंचित रह जाते हैं।

इस बिल के कानून बन जाने के बाद आरक्षण का प्रतिशत बढ़कर 59.5 हो जाएगा, यानी योग्य लोगों को नौकरी न मिल पाने की शिकायत कुछ और बढ़ जाएगी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता से बाहर होने के बाद नरेंद्र मोदी घबराए हुए हैं और 56 इंच की छाती सिकुड़ गई लगती है, वरना इससे पहले जब उनके ही प्रदेश के व्यापारी उनसे जीएसटी को लेकर गुहार लगा रहे थे तो मोदी, शाह और जेटली की तिकड़ी ज्ञान बांटने और सब को चोर बताने में व्यस्त थी। गुजरात विधानसभा चुनाव के समय जब मोदी और शाह के पसीने निकलने लगे, तो जीएसटी में फटाफट कई संशोधन किए गए।

गुजरात में भाजपा की सत्ता बहुत मुश्किल से बची, इसके बावजूद मोदी और शाह इस गुमान में थे कि आखिरकार जनता को मना लेना कोई बड़ी बात नहीं है और वे इस खामख्याली में रहे कि जनता के पास आखिर विकल्प ही क्या है। जब सारी तिकड़मों के बावजूद तीन राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी, तो अब सरकार समाज के अलग-अलग वर्गों को लुभाने के लिए ऐसे कदम उठा रही है, जो दिखने में लोकलुभावन हैं परंतु उनसे समस्या का समाधान नहीं होगा। सवाल यह है कि कर्ज के दुष्चक्र में फंसा हुआ यह देश कब तक ऐसे नेताओं को भुगतता रहेगा, जिनके पास कोई नीति तो है ही नहीं, पर उनकी नीयत भी ठीक नहीं नजर आती?

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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