लोकतंत्र, चुनाव और आम आदमी

By: Jan 24th, 2019 12:08 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

मैंने और मेरी टीम ने फेसबुक को खंगाला और ऐसे 250 लोगों की सूची बनाई जो इन सवालों का जवाब दे सकने के काबिल नजर आते थे। हमने उन सब को फोन किया और अपना मकसद बताया। अढ़ाई सौ लोगों में से 102 लोगों ने सर्वेक्षण में शामिल होने की सहमति दी। हमें जो उत्तर मिले वे हमारी आशा से भी कहीं अधिक अच्छे थे। आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं। लोकतंत्र से उम्मीदों के जवाब में लगभग सभी लोगों ने कहा कि रोजगार मिलना चाहिए, चिकित्सा सुविधा होनी चाहिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर बढि़या होना चाहिए तथा शिक्षा सस्ती होनी चाहिए…

वर्तमान सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में है। इसी सप्ताह हम गणतंत्र दिवस मनाएंगे। चुनावों की सरगर्मियां भी शुरू हो चुकी हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष अपने-अपने ढंग से जनता को प्रभावित करने का प्रयत्न कर रहा है, ऐसे में मेरे एक मित्र ने मुझे एक छोटा-सा सर्वेक्षण करने का विचार दिया तो मेरे दिमाग में भी यह सवाल कुलबुलाया कि मुझे समझना चाहिए कि लोकतंत्र के बारे में जनता क्या सोचती है, जनता की इच्छाएं, आकांक्षाएं क्या हैं और मतदान के समय उन्हें क्या बातें प्रभावित करती हैं? हमने दो सर्वेक्षण किए। पहला सर्वेक्षण मेरे मित्र के इकलौते प्रश्न को लेकर था और दूसरा सर्वेक्षण अपनी समझ बढ़ाने के लिए था। दूसरे सर्वेक्षण के लिए मैंने पांच प्रश्न चुने। ये प्रश्न हैं -एक, लोकतंत्र से आपकी उम्मीदें क्या हैं? दो, लोकतंत्र की मजबूती के लिए और क्या किया जाना चाहिए?

तीन, लोकलुभावन कार्यक्रमों पर सरकार के खर्च की नीति क्या हो? चार, क्या आप सरकार की नीतियों से खुश हैं? पांच, क्या आप विपक्ष की भूमिका से खुश हैं? प्रश्न तय कर लेने के बाद सवाल आया कि सर्वेक्षण में कितने लोगों को शामिल किया जाए, किस तरह के लोगों को शामिल किया जाए, क्या वे सवाल का उत्तर जानते भी होंगे और क्या वे हर सवाल का जवाब सही-सही देना चाहेंगे और क्या वह सर्वेक्षण देश की जनता की राय का प्रतिनिधित्व कर सकेगा? थोड़ा-सा मंथन करने पर ही मुझे यह स्पष्ट हो गया कि मैं जो सर्वेक्षण करूंगा वह बहुत छोटे स्तर का होगा, इसलिए वह देश की जनता की राय का प्रतिनिधित्व तो नहीं कर सकेगा, पर शायद हमें कुछ इशारे दे जाए। इसलिए सारी सीमाओं के बावजूद मैंने सर्वेक्षण पूरा करने का मन बना लिया। मैंने और मेरी टीम ने फेसबुक को खंगाला और ऐसे 250 लोगों की सूची बनाई जो इन सवालों का जवाब दे सकने के काबिल नजर आते थे। हमने उन सब को फोन किया और अपना मकसद बताया। अढ़ाई सौ लोगों में से 102 लोगों ने सर्वेक्षण में शामिल होने की सहमति दी। हमें जो उत्तर मिले वे हमारी आशा से भी कहीं अधिक अच्छे थे।

आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं। लोकतंत्र से उम्मीदों के जवाब में लगभग सभी लोगों ने इसके जवाब में रोजगार मिलना चाहिए, चिकित्सा सुविधा होनी चाहिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर बढि़या होना चाहिए, शिक्षा सस्ती होनी चाहिए आदि आवश्यकताओं का जिक्र किया। इनमें से 28 लोगों ने कहा कि हमारा लोकतंत्र खोखला है। जनता की सुनवाई का कोई नियत प्रावधान नहीं है। देश में नौकरशाही का तंत्र पूरी तरह से हावी है और उस पर जनता का कोई अख्तियार नहीं है। अधिकारी लोग जनता से गुलामों का-सा व्यवहार करते हैं। नेताओं पर अंकुश का कोई साधन नहीं है। दस प्रतिशत लोगों ने कहा कि किसी भी पद पर बैठे किसी एक व्यक्ति को इतने अधिकार नहीं होने चाहिएं कि वह अकेला ही सारे निर्णय कर सके, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। लोकतंत्र की मजबूती के लिए 46 प्रतिशत लोगों का सुझाव था कि नौकरशाही की शक्तियां सीमित की जानी चाहिएं, उन्हें ज्यादा जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, 30 प्रतिशत लोगों का सुझाव था कि जनप्रतिनिधियों को ज्यादा शक्तियां मिलें पर उनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित हो, वे मनमानी न कर सकें। 29 प्रतिशत लोग मानते हैं कि चुनाव ही भ्रष्टाचार की जड़ है क्योंकि चुनाव पर होने वाला भारी-भरकम खर्च नैतिक साधनों से पूरा करना असंभव है।

इसके लिए चुनाव प्रणाली में सुधार होना चाहिए। 43 प्रतिशत लोग मानते हैं कि लोकतंत्र के बावजूद शासन-प्रशासन की निर्णय प्रक्रिया में जनता की भूमिका नदारद है, इसमें जनता की भागीदारी बढ़ाने की आवश्यकता है, और इसके तरीकों पर बहस शुरू होनी चाहिए। लोकलुभावन कार्यक्रमों पर सरकार के खर्च की नीति से असहमति के तीखे स्वर उभरे। 37 प्रतिशत लोग मानते हैं कि लोकलुभावन कार्यक्रम किसी भी राजनीतिक दल की सुविचारित नीति का हिस्सा नहीं हैं, ये वोट बैंक के हिसाब से बनते हैं और अकसर बदलते रहते हैं। इन कार्यक्रमों को चलाने में अकसर सरकार पर ऋण बढ़ता है और करदाताओं का पैसा खर्च होता है। ऋण की बात को हर सरकार छुपा लेती है और तालियां पिटवाती है। यह जनता के साथ धोखाधड़ी है। इन सब ने चिंता जताई कि इस साल के अंतरिम बजट में भी वोट बैंक की राजनीति चलेगी, अलग-अलग समुदायों को खुश करने के लिए करदाताओं के धन की बर्बादी होगी।

हमारा अगला सवाल था कि क्या आप सरकार की नीतियों से खुश हैं? इसके जवाब में 28 प्रतिशत लोगों का कहना था कि सरकारें, सभी सरकारें, नींद में चलती प्रतीत होती हैं। घोषणाएं करने से पहले होमवर्क नहीं होता और ज्यादातर योजनाओं को लेकर राजनीतिज्ञों और नौकरशाही का नजरिया एक-सा नहीं है, जिससे कार्यान्वयन नहीं हो पाता और घोषणाएं सिर्फ कागजों में सीमित रह जाती हैं। 41 प्रतिशत लोग मानते हैं कि नीतियां बनाते समय जनता की आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा जाता, कुछ लोगों की सोच देश पर थोप दी जाती है। 36 प्रतिशत लोगों का मत है कि सरकार विज्ञापनों पर बेहताशा पैसा खर्च करती है। नीतियां बनने से पहले तो उनका प्रचार चाहे हो, पर सरकार की प्रशंसा के विज्ञापन बंद होने चाहिएं। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को लेकर जबरदस्त नाराजगी दिखी। 71 प्रतिशत लोगों ने कहा कि विपक्ष की भूमिका बहुत खराब है। वह सरकारी नीतियों पर उथली राजनीति करती है। विपक्ष की तरफ से जनहित के कार्यक्रम नदारद हैं।

विपक्ष सिर्फ वायदे करता है और सपने दिखाता है। सदन में वाकआउट, शोर-शराबा और प्रदर्शन-धरने के अलावा विपक्ष के पास जनजागरण की नीतियों और कार्यक्रमों का अभाव है। 22 प्रतिशत लोगों का मानना है कि विपक्ष को ज्यादा जिम्मेदार होने की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि मतदाता चाहते हैं कि नौकरशाही के अधिकार कम किए जाएं, उनके मुकाबले में जनप्रतिनिधियों की शक्तियां बढ़ें और दोनों पर अंकुश के स्थायी प्रावधान हों। इसके अतिरिक्त सरकारी नीतियों के निर्माण में जनता की स्पष्ट भागीदारी हो, सरकारी खर्च पर नियंत्रण हो, लोक लुभावन नीतियों पर भी समग्रता में विचार हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि सारे अधिकार किसी एक व्यक्ति के हाथ में न हों। मैं उम्मीद ही कर सकता हूं कि आने वाले चुनावों में मतदाता राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के सामने अपने विचार रखेंगे ताकि वे जिसे चुने, वह उनकी आकांक्षाओं का सही प्रतिनिधित्व करते हों।

ई-मेलः  indiatotal.features@gmail


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