समीक्षा के मुहाने पर संविधान

By: Jan 17th, 2019 12:08 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

संसदीय प्रणाली के कारण हमारे संविधान के बहुत से प्रावधान लोकतंत्र की मर्यादाओं के विरुद्ध जाकर लोकतंत्र के मजाक का कारण बने हैं और निहित स्वार्थों के कारण कोई सरकार इसे सुधारने का प्रयत्न नहीं करती। यही कारण है कि अब संविधान की समग्र समीक्षा की मांग उठने लगी है…

हमारे देश में दो मुखिया हैं और दोनों ही अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। देश के मुखिया और हमारी तीनों सेनाओं के कमांडर इन चीफ हमारे राष्ट्रपति हैं। देश के राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों के सदस्य और सभी प्रदेशों की विधानसभाओं के सदस्य चुनते हैं। हमारे संविधान की धारा 53 कहती है कि राष्ट्रपति स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन व्यवहार में उनकी सभी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री एवं उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्य ही करते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं, इसीलिए कहा जाता है कि वे देश के मुखिया हैं, सरकार के नहीं। राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर तकनीकी विस्तार में न भी जाएं, तो भी यह जानना प्रासंगिक है कि लोकसभा और राज्यसभा द्वारा पास किया गया कोई भी बिल तब तक कानून नहीं बनता, जब तक कि उस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर न हो जाएं। यदि राष्ट्रपति को लगे कि संसद द्वारा पास किया गया कोई बिल जनहित के अनुरूप नहीं है, संविधान की किसी धारा के विपरीत है अथवा वह उसकी किसी धारा से सहमत नहीं हैं, तो वह उस विधेयक को अपनी टिप्पणी के साथ वापस भेज सकते हैं। संसद के दोनों सदन यदि उस बिल को दोबारा पास कर दें, चाहे वह बिल अपने मूल रूप में पास हो या कुछ संशोधनों के साथ, तो राष्ट्रपति को उस पर हस्ताक्षर करने ही पड़ते हैं। राष्ट्रपति के पास एक तीसरा विकल्प यह भी है कि किसी विधेयक से असहमत होने पर वह न तो उस पर हस्ताक्षर करें और न ही उसे वापस लौटाएं।

ऐसे में वह विधेयक स्वतः ही अप्रासंगिक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि चूंकि वित्त विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही पेश किए जाते हैं, इसलिए सदन द्वारा कोई वित्त विधेयक पास हो जाने के बाद राष्ट्रपति को उस पर अपनी सहमति देनी ही पड़ती है। वह उसमें किसी संशोधन का सुझाव नहीं दे सकते और न ही उसे वापस लौटा सकते हैं। यदि लोकसभा या राज्यसभा में से किसी एक अथवा दोनों का सत्र न चल रहा हो और किसी समस्या के समाधान के लिए कोई फौरी आवश्यकता हो, तो राष्ट्रपति अध्यादेश भी जारी कर सकते हैं जिसे सदन द्वारा पारित कानून जैसी ही मान्यता प्राप्त है। अंतर सिर्फ यही है कि यह एक तय समय सीमा के बाद समाप्त हो जाता है। हमारी सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री हैं। संसद में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य जिसे अपना नेता चुनते हैं, राष्ट्रपति उसे प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाते हैं और वह व्यक्ति वस्तुतः सारी कार्यकारी शक्तियों का उपभोग करता है। अभी तक डा. मनमोहन सिंह ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं, जो राज्यसभा के सदस्य थे अन्यथा शेष सभी प्रधानमंत्री किसी एक संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतकर लोकसभा के सदस्य बनते रहे हैं। व्यवहार में यह माना जाता है कि प्रधानमंत्री जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए सारी कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में निहित हैं। हमारा संविधान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की शक्तियों का कोई स्पष्ट विभाजन नहीं करता, यही कारण है कि हमारे प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बार-बार इस पर स्पष्टीकरण चाहा, अंततः बिहार जमींदारी बिल को लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा। इसके बाद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में पत्रों का ऐसा आदान-प्रदान शुरू हुआ कि इसने एक संवैधानिक संकट का-सा रूप ले लिया, परंतु आखिरकार देशहित में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने चुप्पी अख्तियार कर ली। इंदिरा गांधी ने जब अपनी गद्दी बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोप दिया और उसके बाद 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से राष्ट्रपति की शक्तियां समाप्त कर दीं। इस संशोधन में यह प्रावधान था कि राष्ट्रपति संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री की ‘सलाह’ मानने और संसद द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर सहमति देने के लिए ‘बाध्य’ हैं। सन् 1977 में इंदिरा-कांग्रेस की हार के बाद जनता पार्टी सत्ता में आई और उसने 42वें संविधान संशोधन की कई धाराओं को पलट दिया, लेकिन राष्ट्रपति की शक्तियों के मामले में इस सरकार ने भी सिर्फ इतनी सी रियायत दी कि यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक अथवा उसकी कुछ धाराओं से असहमत हों, तो वह उसे अपनी टिप्पणियों के साथ संसद को लौटा सकते हैं, परंतु यदि संसद उसे दोबारा पास कर दे तो उन्हें उस पर सहमति देनी ही होगी। राष्ट्रपति की शक्तियों के क्षरण का परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए योग्यता कोई आधार नहीं रही, बल्कि प्रधानमंत्री के पिट्ठुओं को राष्ट्रपति पद के लिए नामांकित किया जाने लगा। चूंकि प्रधानमंत्री का दल बहुमत में होता है, इसलिए प्रधानमंत्री का प्रत्याशी ही जीत जाता है। ‘जनता के राष्ट्रपति’ के रूप में प्रसिद्ध एपीजे अब्दुल कलाम ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो विशुद्ध गैर-राजनीतिक थे। राष्ट्रपति की तरह राज्य के राज्यपाल की स्थिति भी अजीब है।

राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर होती है और प्रधानमंत्री यदि किसी राज्यपाल से नाखुश हों,  तो राज्यपाल की विदाई निश्चित है। राज्यपाल के पास यूं तो कोई कार्यकारी शक्तियां नहीं होतीं, लेकिन यदि प्रधानमंत्री किसी राज्य सरकार को हटाना चाहें, तो वह राज्यपाल के माध्यम से प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की घोषणा करवा सकते हैं। बहुत से राज्यपालों ने मुख्यमंत्री की अवहेलना करते हुए स्वयं कई कार्यक्रम चलाए हैं और जनता से सीधे मेलजोल किया है। पुडुचेरी की उपराज्यपाल डा. किरन बेदी के बारे में वहां के मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी तो कई बार कह चुके हैं कि डा. बेदी विरोधी दल के नेता की तरह व्यवहार कर रही हैं। दिल्ली की कहानी भी कोई अलग नहीं है। सत्तर में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी दिल्ली के उपराज्यपालों से बेहद नाराज रहते हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री की शह पर एक संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए दिल्ली के उपराज्यपाल, जनता द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर अंकुश लगाए हुए हैं।

दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल अनिल बैजल के पूर्ववर्ती नजीब जंग से तो केजरीवाल की जंग लगातार सुर्खियों में रही है। लब्बोलुआब यह कि संसदीय प्रणाली के कारण हमारे संविधान के बहुत से प्रावधान लोकतंत्र की मर्यादाओं के विरुद्ध जाकर लोकतंत्र के मजाक का कारण बने हैं और निहित स्वार्थों के कारण कोई सरकार इसे सुधारने का प्रयत्न नहीं करती। यही कारण है कि अब संविधान की समग्र समीक्षा की मांग उठने लगी है। देखना यह है कि हमारे देश के मतदाता संविधान समीक्षा के पक्ष में कब एकजुट होते हैं।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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