चुनाव में कहीं गुम हैं मुद्दे

By: Mar 14th, 2019 12:08 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

आंकड़ों में देश की अर्थव्यवस्था के गीत गाए जा रहे हैं, लेकिन क्या बातों से वस्तुस्थिति छिप सकती है। अब आखिरी समय में मोदी सरकार ने इतने लालीपॉप बांटे हैं कि जनता के हर वर्ग को उसने छुआ है, लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि क्या किसी प्रधानमंत्री को सिर्फ चुनाव जीतने के लिए करदाताओं के पैसे का मजाक उड़ाने की इजाजत मिलनी चाहिए। तो लब्बोलुआब यह है कि मतदान के समय हमें यह देखना है कि हम जिसे वोट दे रहे हैं क्या वह इन मुद्दों की बात कर रहा है, क्या वह इन मुद्दों के प्रति गंभीर है? इसी में लोकतंत्र की भलाई है, हमारी भलाई है…

मीडिया में आज हर जगह मोदी छाए हुए हैं। विद्वजनों का मानना है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है, विपक्ष में एकता नहीं है, वोट बंटेंगे, जिसका भाजपा को सीधा लाभ होगा। यही नहीं, पुलवामा हमले के जवाब में भारतीय वायु सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा। टीवी चैनलों और समाचारपत्रों से राहुल गांधी ही नहीं, विपक्ष के सभी नेता गायब से हैं। अभी दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ब्लॉग में गांधी जी की प्रशंसा की है और कांग्रेस को कोसा है। ‘जब एक मुट्ठी नमक ने अंग्रेजी साम्राज्य को हिला दिया’ शीर्षक से लिखे गए इस ब्लॉग में मोदी कहते हैं कि बापू ने त्याग की भावना पर बल देते हुए यह सीख दी थी कि आवश्यकता से अधिक संपत्ति के पीछे भागना ठीक नहीं होता। अपने इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से मोदी ने कांग्रेस को आइना दिखाने की कोशिश की है। सवाल यह है कि जो आइना वे दूसरों को दिखा रहे हैं क्या वे कभी उसमें अपनी सूरत भी देखते हैं या नहीं? कुछ ही माह पूर्व राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भरपूर कोशिशों के बावजूद भाजपा को सत्ता से बाहर होना पड़ा था। तब ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री का जलवा खत्म होना शुरू हो गया है और उनके पास वोटर को दिखाने के लिए अब कोई नया सपना नहीं बचा। इस बीच अमित शाह और संघ परिवार ने कई प्रयोग किए, लेकिन जनता में उत्साह नहीं था। यहां तक कि राम मंदिर का मुद्दा भी मददगार नहीं हो पा रहा था।

विश्व हिंदू परिषद ने साधु-संतों को राम मंदिर के आंदोलन के लिए तैयार किया, परंतु जनता का सवाल यही था कि यह मुद्दा चुनाव के समय ही क्यों उठ रहा है? हालात इतने खराब थे कि संघ परिवार को वह दांव वापस लेना पड़ा। ऊपर से तुर्रा यह कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी कोई मदद नहीं मिल रही थी, बल्कि कठिनाइयां ही पैदा हो रही थीं। अमित शाह इससे इतना घबराए कि वह सर्वोच्च न्यायालय को घुड़कियां देने लग गए। मोदी-शाह जोड़ी की घबराहट नजर आने लगी थी। तभी अचानक पुलवामा में आतंकवादियों का हमला हुआ। इस हमले ने सारे देश को झकझोर कर रख दिया। पाकिस्तान पर हमले की मांग जोर पकड़ने लगी। एक सिर के बदले दस सिर वापस लाने का वादा याद दिलाया जाने लगा। सोशल मीडिया ही नहीं, मुख्य धारा के मीडिया में भी शोर बढ़ने लगा। तब विद्वजनों का मानना था कि चूंकि इतना शोर मचा दिया गया है कि दुश्मन देश ने जवाबी तैयारी कर ली होगी। अतः अब किसी जवाबी कार्रवाई की संभावना न के बराबर है, लेकिन मोदी के लिए यह एक मुफीद अवसर साबित हुआ। उन्होंने जोखिम उठाने की अपनी प्रवृत्ति का परिचय दिया और एक और सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में जवाब सामने आ गया। सर्जिकल स्ट्राइक पर देशी या विदेशी मीडिया में कुछ भी सवाल उठे, परंतु जनता खुश थी, तालियां बज रही थीं, मिठाइयां बंट रही थीं और मोदी एक बार फिर हीरो बन गए थे। ज्यादातर टेलीविजन एंकर तो मानो ऐसी ही किसी घटना के इंतजार में बैठे थे, जो सर्जिकल स्ट्राइक के बाद मोदी के चीयर लीडर बन गए। राष्ट्रवाद की लहर ऐसी चली कि बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्याएं, संवैधानिक संस्थाओं की अकाल मृत्यु तथा शेष संस्थाओं का भगवाकरण मुद्दे ही नहीं रहे। लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है? आइए, देखते हैं। हम एक पुरातन सभ्यता हैं जिस पर हमें गर्व है और हमारे देश में गणतंत्र है, जिसका मतलब है कि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी होगी और जनता की इच्छा से सरकार चलेगी। गणतंत्र का मतलब यह कतई नहीं है कि हम पांच साल में सिर्फ एक बार मतदान करेंगे और उसके बाद नीति-निर्माण में हमारी कोई भूमिका नहीं होगी। लोकतंत्र की मौलिक आवश्यकता है कि आर्थिक और सामाजिक असमानता दूर हो, हर नागरिक को भोजन, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य  सेवा और न्याय उपलब्ध हो। हमें सोचना है कि क्या हमारी वर्तमान व्यवस्था लोकतंत्र की इस बुनियादी आवश्यकता को पूरा कर पा रही है? क्या सभी नागरिकों को ससम्मान जीवन का अधिकार मिल चुका है? किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं। जिस आदमी को भोजन नसीब नहीं, जिसके सिर पर छप्पर नहीं, वह क्या आवाज उठाएगा, लोकतंत्र को वह क्या समझ पाएगा और उसकी भागीदारी क्या होगी?

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने देश के नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्या कर रहे हैं? यह समझना अप्रासंगिक नहीं है कि जनता को यह सूचना होनी चाहिए कि व्यवस्था कैसे चल रही है और उस सूचना के विश्वसनीय माध्यम होने चाहिएं। क्या हम अपने नागरिकों का उनके मौलिक अधिकार, यथा बराबरी का अधिकार, विचारों की स्वतंत्रता, व्यवसाय का अधिकार, धर्म का अधिकार, खान-पान का अधिकार आदि कितने व्यावहारिक हैं? आज हमारा गणतंत्र और हमारी सभ्यता दोनों खतरे में हैं। आपातकाल न होने के बावजूद डर की अव्यक्त भावना मौजूद है। कोई कुछ भी बोलने से डरता है। मीडिया पर सरकार का अपरोक्ष नियंत्रण है। मुद्दों पर बात नहीं होती। खुद मीडिया ही झूठी खबरें फैलाने का स्रोत बन गया है, नफरत फैलाने का स्रोत बन गया है। देश के नौ बड़े पूंजीपतियों ने हर चीज पर कब्जा कर लिया है। सरकार कहती थी कि वह नीरव मोदी को ढूंढ रही है, लेकिन एक अकेले रिपोर्टर ने नीरव मोदी को खोज निकाला। विजय माल्या के खिलाफ जारी लुक-आउट नोटिस सिर्फ तीन दिन के लिए इसलिए वापस लिया गया, ताकि वह देश से भाग सके।

हाल ही में अडानी को छह हवाई अड्डों के प्रबंधन का ठेका दिया गया है, जबकि यह खबर आ रही है कि संबंधित राज्य सरकारों तथा उड्डयन मंत्रालय ने आपत्ति जताई है कि ठेका देते समय नियमों की अवहेलना की गई है। आंकड़ों में देश की अर्थव्यवस्था के गीत गाए जा रहे हैं, लेकिन क्या बातों से वस्तुस्थिति छिप सकती है। अब आखिरी समय में मोदी सरकार ने इतने लालीपॉप बांटे हैं कि जनता के हर वर्ग को उसने छुआ है, लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि क्या किसी प्रधानमंत्री को सिर्फ चुनाव जीतने के लिए करदाताओं के पैसे का मजाक उड़ाने की इजाजत मिलनी चाहिए। तो लब्बोलुआब यह है कि मतदान के समय हमें यह देखना है कि हम जिसे वोट दे रहे हैं क्या वह इन मुद्दों की बात कर रहा है, क्या वह इन मुद्दों के प्रति गंभीर है? इसी में लोकतंत्र की भलाई है, हमारी भलाई है।

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


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