नागरिकता के सवाल पर देश की संवेदना

By: Jan 1st, 2020 12:05 am

धर्म के नजरिए से पूर्वोत्तर

सुभाष रानाडे

स्वतंत्र लेखक

सभी सामाजिक सवालों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखने की आदत पड़ जाने से जो कुछ हो सकता है, वह सब फिलहाल पूर्वोत्तर भारत में हो रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक का मुद्दा जब से सामने आया है, तब से ही पूर्वांचल की ‘सप्तभगिन’ के नाम से पहचाने जाने वाले सातों राज्यों में असंतोष की सुगबुगाहट थी। ये सात राज्य हैंः असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा। ये सभी राज्य नए नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बेचैन थे और अब यह बेचैनी हिंसा के रास्ते सड़कों पर दिखाई दे रही है और इसके शीघ्र काबू में आने के संकेत भी नहीं हैं। वहां जो कुछ चल रहा है, सरकार उसका ठीकरा अन्य किसी के भी माथे फोड़ नहीं सकती क्योंकि यह संकट पूरी तरह अपने हाथ से पैदा किया गया है। इस संकट से निपटने का रास्ता क्या है, इसकी चर्चा करने से पहले इस संकट का स्वरूप समझना जरूरी है। कई लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब पूर्वोत्तर के इन राज्यों को नए नागरिकता कानून से (इनर लाइन परमिट के आधार पर) अलग रखा गया है, तो वहां इतना गुस्सा क्यों? इसलिए इस मुद्दे पर समग्र चर्चा जरूरी है। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण है ‘स्थानीय’ और ‘भारतीय’ (इंडिजिनस एंड इंडियंस) के बीच का फर्क। इस प्रदेश में महत्त्वपूर्ण है, स्थानीय होना। वहां के नागरिकों की नजर में प्रत्येक स्थानीय भारतीय हो या न हो, लेकिन प्रत्येक भारतीय स्थानीय हो, यह जरूरी नहीं है। यह मुद्दा उस प्रदेश की हकीकत समझने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसकी वजह है इस पूरे अंचल में ज्ञात 238 जमातें हैं और कट्टरता के मामले में ये सभी एक जैसी हैं। वे सभी अपनी वांशिकता को लेकर जबरदस्त संवेदनशील हैं और उनके लिए वांशिकता महत्त्वपूर्ण है, हिंदू या मुसलमान होना नहीं। पूर्वोत्तर राज्यों के बहुसंख्यक तिब्बती-बर्मी, खासी-जयंतिया या मोन-खेमार वंशी हैं जिनमें से कई जातियां- उपजातियां उपजी हैं। हालांकि उनके एक-दूसरे से संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं, लेकिन वे अपने प्रदेश में अन्य किसी वंश के लोगों को आने देने के लिए उत्सुक नहीं होते। इसीलिए अरुणाचलियों को बौद्ध चकमा जाति की प्रबलता अच्छी नहीं लगती। मिजो भी अन्य किसी जाति को अपने यहां आने नहीं देते। मेघालय की राजधानी शिलांग में बड़े पैमाने पर स्थलांतरितों की बस्ती है। वहां स्थानीय और स्थलांतरितों के संबंध अत्यंत तनावपूर्ण हैं। दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि ये सभी मुसलमान नहीं हैं। इनमें से बहुसंख्यक हिंदू हैं। इनमें बांग्लादेश के स्थलांतरित और बिहार आदि राज्यों से गए मेहनतकश शामिल हैं। बाहर से आए इन तमाम हिंदुओं और स्थानीय हिंदुओं के संबंध बिलकुल भी अच्छे नहीं हैं। इन सभी प्रदेशों और उनके म्यांमार, बांग्लादेश आदि के साथ भौगोलिक सौहार्द के मद्देनजर इनमें से कई प्रदेशों में ‘इनर परमिट’ प्रणाली लागू की गई है। अपने नाम के मुताबिक यह कोई प्रशासकीय व्यवस्था प्रतीत होती है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। इस परमिट का मतलब है, उस परिसर में जाने का परमिट जो 24 घंटे का भी हो सकता है। परिसर के तनाव पर इसी परमिट पद्धति को गृहमंत्री अमित शाह समाधान बता रहे थे, लेकिन इस परमिट पद्धति से भी वहां का क्षोभ शांत होता दिखाई नहीं दे रहा। हाल के संशोधित नागरिकता कानून का सीधा संबंध इसी मुद्दे से है। पहले बांग्लादेश युद्ध और बाद में 1985 में हुए ‘असम करार’ के कारण इस परिसर में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी बसे हैं और ये सभी हिंदू हैं। असम में यह मुद्दा सर्वाधिक गंभीर है। ये लोग, जिन्हें घुसपैठिया कहा जाता है, सबसे पहले असम में घर बनाते हैं। इसलिए असमी नागरिकों का विरोध सभी घुसपैठियों के प्रति है, फिर चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। घुसपैठियों के विरुद्ध इस संघर्ष का स्वरूप असमी विरुद्ध बंगाली, असमी विरुद्ध बिहारी आदि कई स्तरों पर है। यह संघर्ष अस्सी के दशक में भड़का था और उस समय हुई हिंसा में मरने वाले ज्यादातर हिंदू थे, इस सच्चाई को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। असम की हिंसा के पीछे यही क्षोभ है। इस वजह से विगत साढ़े तीन दशकों से शांत रहा असम फिर भड़क उठा है। यह गुस्सा दमन के बगैर शांत करने की इच्छा हो तो यह स्वीकार करना होगा कि भाषा और वांशिकता के मुद्दे धर्म से भी बड़े हैं।

तानाशाही और मोदीवाद

राज शेखर भट्ट

स्वतंत्र लेखक

प्रधानमंत्री मोदी जी ने संसदीय दल की बैठक राज्यसभा में नागरिकता संशोधन बिल को पास करवाने के लिए बहुमत का आंकड़ा दिखाया और 125 को मैजिक आंकड़ा बताकर बिल पास करा लिया। नागरिकता संशोधन बिल 2019 में केंद्र सरकार के प्रस्तावित संशोधन से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं के साथ ही सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए अवैध दस्तावेजों के बाद भी भारतीय नागरिकता हासिल करने का रास्ता साफ  हो जाएगा। लेकिन नागरिकता संशोधन बिल का पूर्वोत्तर के राज्य के लोग विरोध कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के लोग इस बिल को राज्यों की सांस्कृतिक, भाषाई और पारंपरिक विरासत से खिलवाड़ बता रहे हैं। हालांकि, अगर पूरा भारत सड़कों पर उतर आया तो न पुलिस कुछ कर पाएगी, न फौज कुछ कर पाएगी और न ही राजनीतिज्ञ। यह तो नीरो की कहानी को दोबारा दोहराने जैसा लग रहा है। जो कि मोदी जी के कारनामों में सब कुछ साफ.-साफ दिख रहा है। पुराने समय की बात है कि रोम नगर में अत्यंत रहस्यमय ढंग से आग की लपटें भड़क उठीं थीं, जिससे आधे से अधिक नगर जलकर खाक हो गया। जब आग की लपटें तेज होती जा रहीं थीं, नीरो एक स्थान पर खड़े होकर उसकी विनाश लीला देख रहा था और सारंगी बजा रहा था। यहां कुछ लोगों को ख्याल इस बात का भी था कि रोम में आग लगाने वाला भी नीरो ही था। वर्तमान समय में नीरो भारत में पैदा हो चुका है, जिनके हाथ में आज भारत की सत्ता है। कभी आधार कार्ड तो कभी जीएसटी, कभी आधार से पैन लिंक तो कभी आधार से मोबाइल नंबर लिंक, कभी धारा 370 तो कभी धारा 377 कभी डिजिटल मीडिया तो मैं भी चौकीदार हूं, कभी राम मंदिर और बाबरी मस्जिद। मोदी साहब ने तो हर मुद्दे में राजनीतिक रोटियां सेंकी और इतनी सेंकी कि रोटियां जलकर काली हो गईं और अब नारे लग रहे हैं ‘चौकीदार चोर है’। खैर, कहीं अब ऐसा न हो कि इस नीरो का अंत भी उस नीरो की भांति ही होने की संभावनाएं बनने लगें।

बहरहाल, मोदी सरकार कहती है कि साल 1947 में भारत-पाक का बंटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था। इसके बाद भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में कई धर्म के लोग रह रहे हैं। पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताडि़त किए जाते हैं। अगर वे भारत में शरण लेना चाहते हैं तो हमें उनकी मदद करने की जरूरत है। जनवरी 2019 में बिल पुराने फॉर्म में पास किया गया था। सीएबी वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का चुनावी वादा है। गृह मंत्रालय ने वर्ष 2018 में अधिसूचित किया था कि सात राज्यों के कुछ जिलों के अधिकारी भारत में रहने वाले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से सताए गए अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने के लिए ऑनलाइन आवेदन स्वीकार कर सकते हैं। वास्तविक तथ्य है कि किसी भी जाति-धर्म से हों, लेकिन हिंदोस्तान में रहने वाले नागरिक को हिंदोस्तान ही तो कहा जाएगा। साफ  है कि उनका आधार कार्ड, पहचान पत्र, पैन कार्ड इत्यादि भी बने ही होंगे, तो वो हिंदोस्तान होने का सुबूत क्यों दें। यदि हिंदोस्तानियों से उनकी नागरिकता पर बात उठाई जाती है तो पूरे भारतवर्ष की सभी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार भी असंवैधानिक हैं। क्योंकि जिनकी नागरिकता पर सवाल उठ रहे हैं, उनके वोटों को मान्य कैसे माना जाए। यदि कोई बाहर से हिंदोस्तान आता है, भले ही वह नौकरी के लिए आए, पर्यटन के लिए आए या किसी अन्य कारण से, तो साफ  है कि उसकी समय सीमा निर्धारित होती है और उससे ज्यादा वह हिंदोस्तान में नहीं रह सकता। इसके बाद भी यदि कोई चोर-लुटेरा, आतंकवादी भारत में घुस रहा है तो यह सरकार की कमी है। यदि कोई आतंकी भारत में छिपा बैठा है, तो उसको पकड़ें और उसे बाहर करें, न कि भारतीय लोगों पर नागरिकता का पेंच कसकर उन्हें परेशान करें। अंत में यह कहना गलत नहीं होगा कि हिटलर ने नाजीवाद से तानाशाही की और मुसोलिनी ने फासीवाद से। क्या नरेन्द्र मोदी जी आरएसएस के पेड़ की छांव तले बैठकर अपने नौ रत्नों में बुद्धिमान बीरबल ‘अमित शाह’ की राय लेकर ‘मोदीवाद’ तैयार करके तानाशाही करने की सोच रहे हैं। यदि ऐसा है तो गलत है, क्योंकि जिस दिन पूरा भारत सड़कों पर उतर आएगा तो उस दिन भागने के लिए स्थान भी नहीं बचेगा। इस गलती को यदि तुरंत सुधार लिया जाए तो इतना जरूर कहा जाएगा कि ‘जान बची तो लाखों पाए, लौट के बुद्धु घर को आए, लेकिन हालात जरूर सुधर जाएंगे।


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