भक्ति ही परम शिखर

By: May 16th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

अध्यात्म में बीज का अर्थ है कामना, वृक्ष का अर्थ है प्रेम और फल-फूल का अर्थ है भक्ति। अब जब तक हम बीज के रूप में हैं तब तक हम कामना में रह रहे हैं और जब हम वृक्ष की भांति हो जाएंगे, तो हमारे जीवन में प्रेम का अवतरण हो जाएगा और फिर जब हम फूल और फल की भांति हो जाएंगे, तो हमारे जीवन में भक्ति अवतरति हो जाएगी। अतः भक्ति परम शिखर है या अंतिम बात है अर्थात हम शरीर भी हैं, मन भी हैं और शरीर के पार भी कुछ है जिसका हमें पता नहीं है। अब शरीर तो स्थूल है। इसका पता चल जाता है, इसके लिए किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है, शरीर वजन रखता है, इसलिए इस बात का बोध हो जाता है। अब मन की थोड़ी झलक हमें मिल जाती है, क्योंकि मन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के मध्य में है अर्थात यह शरीर से भी जुड़ा है और आत्मा से भी इसका संबंध है। अतः शरीर की ओर थोड़ी सी सूचनाएं मन को मिल जाती हैं क्योंकि एक धागा शरीर के तट से जुड़ा है, लेकिन आत्मा की हमें कोई खबर नहीं मिलती, आत्मा कोरे शब्द की भांति हमें प्रतीत होता है। आत्मा शब्द सुनने से हमारे भीतर घुंघरू नहीं बजते मानो हमें भाषा कोष का अर्थ तो पता है, लेकिन जीवन के कोष का कुछ अर्थ पता नहीं। अब शरीर के साथ जुड़ी है वासना, अतः शरीर के तल पर शरीर की मांग शरीर से मिलने की आकांक्षा है, जब दो शरीर मिलते हैं, तो जो रस पैदा होता है उस का नाम काम है जो क्षणभंगुर है, क्योंकि स्थूल शरीर एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकते, स्थूल शरीर की सीमा है और स्थूल शरीर नहीं रह जाएगा। उदाहरण के तौर पर बर्फ के टुकड़ों को अगर हम मिलाने की कोशिश करें तो मुश्किल होगी। लेकिन वही जब पिघल कर जल की अवस्था में हों तो ये आपस में मिल जाते हैं फिर कोई अड़चन नहीं होती। मानो शरीर बर्फ  की तरह जमा हुआ है ठोस। पिघल जाए तो मन बनता है, मन जल की तरह है। यद्यपि सीमा तो है परंतु तरल सीमा है, ठोस नहीं है, हम मन को कैसे भी ढाल लें ढल जाता है। अब मन के पार हमारा अस्तित्व है आत्मा का। आत्मा ऐसे है जैसे पानी भाप बन कर उड़ जाए। भाप तो पानी की बदली हुई शक्ल लेकिन भाप बनकर पानी की तरल सीमा नहीं रह जाती। इस अवस्था में कोई सीमा नहीं रह जाती मानो भाप का आकाश में फैलना हो जाता है। भाप अदृश्य हो जाती है यह थोड़ी दूर तक दिखाई देती है फिर खो जाती है। इसी प्रकार कहा जा सकता है कि आत्मा अदृश्य है और भाप जैसी है। अब जैसे ऊपर वर्णन किया गया है,शरीर मांगता है मन को, आत्मा मांगती है आत्मा को। मानो आत्मा की मांग है शाश्वत की, सनातन की तथा आत्मा और आत्मा के मिलने से जो रस पैदा होता है, इसका नाम भक्ति है। शरीर और आत्मा का मिलन होता है, स्थूल का स्थूल से, मन में सूक्ष्म का सूक्ष्म से और आत्मा में निराकार का निराकार से मिलने का शास्त्र है।


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