भारत की नई शिक्षा नीति: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

By: Aug 1st, 2020 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

इतिहास इस बात का गवाह है कि जब किसी देश में विदेशियों का कब्जा हो जाता है तो देश के कुछ मौका शिनाख्त शासकों के साथ जुड़ जाते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी भाषा, पोशाक, सभी कुछ विदेशी शासकों की अपना लेते हैं। अंग्रेजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनकी भाषा को खड़ाऊं की तरह इस्तेमाल कर, इस देश का कामकाज भारतीय चलाने लगे। तब आम जन को भी लगने लगा था कि अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजी इस देश में से जाने वाली नहीं है। इसलिए सबका रुझान अंग्रेजी की ओर हुआ। मामला यहां तक पहुंचा कि गांव-गांव में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले प्राथमिक स्कूल खुल गए। लोकतंत्र होने के कारण, लोकलाज के कारण ही शुरू-शुरू में सरकारें अपने स्कूलों में मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था करती रही, लेकिन धीरे-धीरे लोकलाज भी गई और सरकारी प्राथमिक स्कूलों में भी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी बनने लगी…

लगभग चार दशक बाद सरकार ने भारत की नई शिक्षा नीति को स्वीकार किया है। शिक्षा नीति के इस दस्तावेज पर पिछले एक साल से भी ज्यादा अरसे से देश भर में बहस हो रही थी। इस बहस और विचार-विमर्श में अध्यापकों और विद्यार्थियों ने तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया ही था, उनके अतिरिक्त भारत के भविष्य में रुचि रखने वाले अन्य वर्गों ने भी हिस्सा लिया । कहना चाहिए कि नई शिक्षा नीति लंबे मंथन के बाद ही स्वीकार की गई है। शायद इस लंबे विचार-विमर्श के बाद ही निर्णय लिया गया होगा कि सबसे पहले तो सरकार के उस मंत्रालय का, जिसके जिम्मे इस शिक्षा नीति को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी है, नाम ठीक किया जाए। फिलहाल इस मंत्रालय का नाम मानव संसाधन मंत्रालय है। ऐसा नहीं कि शुरू से ही इस मंत्रालय को मानव संसाधन मंत्रालय कहा जाता हो। पूर्व में इसे शिक्षा मंत्रालय ही कहा जाता था। लेकिन फिर शायद केंद्र में नीतियों का निर्धारण करने वालों ने सोचा कि आदमी कि कीमत केवल संसाधन के तौर पर है। उदाहरण के लिए यदि कोई पूछे कि हिमाचल के संसाधन क्या-क्या हैं, तो उत्तर होगा पानी है, खनिज पदार्थ हैं, मेडिसिनल जड़ी-बूटियां हैं, सीमेंट बनाने के काम आने वाला पत्थर है। शायद ही कोई कहे कि हिमाचल के हिमाचली भी इसके संसाधनों में ही आते हैं। मनुष्य एक जीवंत, चिंतनशील प्राणी है । वह प्राकृतिक संसाधनों की तरह जड़ वस्तु नहीं है। लेकिन दिल्ली में बैठे नीति-निर्धारकों ने सोचा होगा कि सभी हिमाचली, पंजाबी, बंगाली, असमिया इत्यादि भी संसाधन ही होते हैं। जिस प्रकार किसी देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या शोषण करना होता है, उसी प्रकार मानव को संसाधन मान कर उसका दोहन करना होगा।

प्राकृतिक संसाधन जब कच्चे रूप में होते हैं तो उनकी कीमत भी कम होती है और उनका पूरा उपयोग भी नहीं हो सकता। इसलिए कच्चे संसाधनों को फिनिश्ड प्रोडक्ट में बदलना होता है। इसलिए प्राकृतिक संसाधन विकास मंत्रालय भी हो सकते हैं। विभिन्न नामों से होते भी हैं। लेकिन एक दिन भारत सरकार ने शिक्षा मंत्रालय को समाप्त कर उसके स्थान पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय स्थापित कर  दिया। इसका जबरदस्त विरोध हुआ था, लेकिन दिल्ली में बैठे लोगों की पूरी दृष्टि ही भौतिकवादी हो गई थी। इसलिए उसने मानवों को भी फिनिश्ड गुड्ज में बदलने का निर्णय कर लिया था। यह दृष्टि अभारतीय तो थी ही, अपनी मूल प्रकृति में अमानवीय भी थी। भारत सरकार को इस बात की बधाई देनी होगी कि उसने अंततःभारतीयों को जड़ संसाधन मात्र न मान कर उन्हें चेतन स्वीकार किया है और उनके माथे पर पूर्ववर्ती सरकार ने संसाधन का जो अपमानजनक स्टिकर लगा दिया था, उसे हटा दिया है।

अब शिक्षा के विकास के लिए मंत्रालय जाना जाएगा। शिक्षा मंत्रालय की पुनः प्रतिष्ठा इस नई शिक्षा नीति का सिंह द्वार कहा जा सकता है। डा. रमेश पोखरियाल जी को इस बात की तो निश्चित ही प्रसन्नता हुई होगी कि यह मौलिक कार्य उनके कार्यकाल में हुआ है। नई शिक्षा नीति की आधारशिला प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में दिए जाने का महत्त्वपूर्ण निर्णय है। अंग्रेजी भाषा का आगमन इस देश में अंग्रेजों के साथ ही हुआ था । लेकिन ध्यान रखना चाहिए अंग्रेज इस देश में साधारण पर्यटकों की तरह नहीं आए थे। वे इस देश के शासक बन कर आए थे। इसलिए यहां अंग्रेजी भी किसी अन्य भाषा की तरह नहीं आई थी। वह शासक की भाषा की हैसियत से पहुंची थी। ग़ुलाम देश में शासक की भाषा का रुतबा निराला ही होता है। वही रुतबा अंग्रेजी का इस देश में बना। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब किसी देश में विदेशियों का कब्जा हो जाता है तो देश के कुछ मौका शिनाख्त शासकों के साथ जुड़ जाते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी भाषा, पोशाक, सभी कुछ विदेशी शासकों की अपना लेते हैं। अंग्रेजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनकी भाषा को खड़ाऊं की तरह इस्तेमाल कर, इस देश का कामकाज भारतीय चलाने लगे। तब आम जन को भी लगने लगा था कि अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजी इस देश में से जाने वाली नहीं है। इसलिए सबका रुझान अंग्रेजी की ओर हुआ। मामला यहां तक पहुंचा कि गांव-गांव में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले प्राथमिक स्कूल खुल गए। लोकतंत्र होने के कारण, लोकलाज के कारण ही शुरू-शुरू में सरकारें अपने स्कूलों में मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था करती रही, लेकिन धीरे-धीरे लोकलाज भी गई और सरकारी प्राथमिक स्कूलों में भी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी बनने लगी।

उससे पूरा राष्ट्र ही गूंगा बनने लगा। प्रतिभा की भ्रूण हत्या होने लगी। स्कूलों में ड्रॉपआउट की संख्या बढ़ने लगी। भारतीय शिक्षा व्यवस्था अधरंग का शिकार होने लगी थी। भारतीय जनता पार्टी शुरू से ही इस मत की थी कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जा सकती है। अनजान भाषा बच्चों की प्रतिभा को सोख लेती है। भाजपा ने अपने इस संकल्प को नई शिक्षा नीति में पूरा कर दिया है। इस नीति के अनुसार प्राइमरी तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी। यह क्रांतिकारी परिवर्तन है। यह पिछले सात दशकों से अंधकार में भटक रही नीति को प्रकाश में ले आने की पहल है। आशा करनी चाहिए कि इससे भारत में बचपन एक बार फिर बोलने लगेगा, चहकने लगेगा। नई शिक्षा नीति में शिक्षा को व्यावहारिक बनाया गया है। अब बाल्यकाल में ही बच्चे कुछ कामकाज सीख पाएंगे। वे प्रोफेशनल स्टडी कर पाएंगे। कला के विद्यार्थी अब विज्ञान भी पढ़ पाएंगे। नई शिक्षा नीति युवाओं के कौशल में निखार लाएगी। शिक्षा को रोजगारपरक बनाया गया है। आशा की जानी चाहिए कि शिक्षा के कारपोरेटीकरण के लग रहे आरोप मिथ्या साबित होंगे और नई शिक्षा नीति व्यापक सामाजिक बदलाव लाएगी।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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