क्यों आवश्यक है लोक साहित्य का लिविबद्ध होना

By: Feb 28th, 2021 12:06 am

अतिथि संपादक:  डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -21

विमर्श के बिंदु

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 21वीं किस्त…

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’, मो.-9418130860

लोकसाहित्य लिपिबद्ध हो या नहीं, यह विचारणीय है। फ्रेंक सिजविक का मानना है कि, ‘लोकसाहित्य का लिपिबद्ध होना ही उसकी मृत्यु है।’ निःसंदेह लोकसाहित्य की मौखिकता या वाचकता ही उसे व्यापकता, निरंतरता, एकरूपता प्रदान करती है। साथ ही उसकी संप्रेषणीयता या विस्तारण को भी बढ़ाती है। फ्रेंक सिजविक की मान्यता किस हद तक मान्य हो सकती है, यह तर्क का विषय है। कुछ हद तक सही भी है। इसलिए कि यदि किसी लोकगीत या लोककथा को लिपिबद्ध कर दिया जाए, या प्रकाशित-प्रसारित कर दिया जाए तो वह रचना वहीं ठहर जाती है। ऐसा बहुत सारे मानते हैं। परंतु सवाल है लोक पुस्तक कहां पढ़ता है? पुस्तक में दर्ज की पंक्तियों तक कितना सीमित रहता है? मेरे विचार और अनुभव के अनुसार-‘लोक इन प्रश्नों के प्रति कभी चिंतित नहीं होता, ऐसा भी नहीं है। उसे चिंता रहती है कि उसकी परंपरा को कहीं दूसरा न ग्रहण कर ले या उसकी परंपरा से बांधा ‘रिजक’ रोटी-रोज़ी कहीं छिन न जाए। एक उदाहरण दूंगा- फिर सोचिए ः वर्ष 1973 में मैंने ‘ढोलरू’ लोकगायन के संग्रह तथा पुस्तक प्रकाशन की सोची, इसलिए कि सटीक-सार्थक अध्ययन हेतु संदर्भ उपलब्ध हो जाएं। संयोगवश चैत्र मास आ गया- ढोलरू गायन का महीना। मैंने एक टेपरिकार्डर खरीदा और घर में रख लिया, इस मनसा से कि जब भी कोई ढोलरू गायक दंपति ढोलरू सुनाने आएगा तो मैं रिकार्ड कर लूंगा। एक दिन ऐसा घट गया। मैंने ढोलरू सुना जो स्वर-ताल में लगा। गायक वृद्धावस्था की ओर था, इसलिए आत्मविश्वास के साथ गा रहा था। मैं उठकर कमरे के भीतर गया और टेपरिकार्डर उठाकर बाहर लाया। वह गा रहा था पूरी मस्ती के साथ। मैंने ज्यों ही उसे (रिकार्डर) उसके सामने रखा, उसने गाना बंद करते दोनों हाथ जोड़ते कहा- ‘न बजिया! इस कम्मे मत करा।

असां गरीबां दिया रोटिया मत गुआ। (नहीं, ऐसा मत करें, हम गरीबों की रोटी मत छीनें)।’ मैंने रिकार्डर बंद कर पूछा- तुम ऐसा क्यों सोच रहे हो। तो उसने बताया- ‘आप हमारे गाने को बंद करके शहर ले जाओगे और इसकी टेप बनाकर जगह-जगह सुनाओगे। लोग खरीद कर अपने घर में खुद ही सुनने लगेंगे तो हमें कौन पूछेगा। कौन सुनेगा तब हमारे मुख से नए सम्वत का पहला नां।’ ऐसा कहता वह अपनी ढोलक और झोली उठाकर चलने लगा। मैंने कहा नसरां तो लेते जाओ। परंतु वह यह कहता गेट पार कर गया- ‘न बजिया, छडिया नसरां तुसां जो। अर्थात तुसां दी दान-दक्षिणा तुम्हें छोड़ी।’ अब यह संदर्भ उस मानसिकता को दर्शाता है जिसका जिकर शायद सिजविक ने किया है। परंतु लोक स्वभाव प्रतिक्रियावादी भी है। चुनौतियां स्वीकारना उसका स्वभाव है। वह तालाब का ठहरा पानी नहीं, बल्कि पहाड़ी दरिया है जो मार्ग के अनेक अवरोधों को चीरता उताल-तरंगों के साथ धरा प्रकृति अनुकूलता में स्वयं के प्रवाह को ढालता निरंतर बहता रहता है। मैंने कांगड़ा जनपद के लगभग तीन हजार से अधिक गीत संकलित किए थे 1971-1974 के मध्य, स्वयं और विद्यालयों के विद्यार्थियों के माध्यम से। कालांतर उन्हें कांगड़ा के लोकगीत भाग-1 (125 गीत हिंदी अनुवाद सहित) झूमे धरती गाए लोक (103 गीत), महके आंगन गाए लोक (114 गीत), ढोलरू (25 कथा गीत) अनुवाद सहित। ये पुस्तकें उस समय विद्यालयों के छात्रों, लाइबे्ररी में बांटी भी। परंतु मुझे नहीं लगा कोई गीत मर गया हो। बल्कि जिन्हें वे लोकगीत भूल भी गए थे, वे पुनः उनके होंठों पर उतरने लगे। लड़कियां भी उन्हें पढ़कर गाने-सुनाने लगीं। लोकसाहित्य सुन-सुना परंपरा में निरंतर रहता है। उसी परंपरा में उसका विस्तारण होता है।

लोकसाहित्य स्थितिजन्य तथा स्थिति-संयोजना में ही विकास, प्रसार, विस्तार पाता है। परंतु जरा सोचें कहां हैं आज वे स्थितियां जहां हम अपने परिवार के साथ, किसी पड़ोसी के साथ, अतिथि के साथ या किसी सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव में, किसी व्यक्ति या समूह को कुछ सुन सकें, कुछ सुना सकें। न उन्हें समय है, न हमें, न बच्चों को समय है, न हम सबको। आज की यह चुनौती ही हमें चेताती है कि लोकसाहित्य का संग्रह, संपादन, प्रकाशन समय रहते करें। अन्यथा आधुनिकता की दौड़ में समूह से एकल होता समाज व व्यक्ति अपनी धरोहर को बचा नहीं पाएगा। लोकसाहित्य उन लोगों का ही साहित्य नहीं जो नगरों से दूर, एक अलग-थलग जीवन जीता है, बल्कि यह उस व्यक्ति का भी साहित्य है जो नगर में रहता हुआ भी अपनी परंपरा में जीता है। अपनी परंपरा के मूल्यों को किसी भी कीमत पर बनाए रखने का प्रयास करता है। यह समय तथा स्थितियों में जन्मता है या सृजित होता है और इसी क्रम में मुख दर मुख अवसर विशेष पर पुनरावृत्ति पाता निरंतर बना रहता है। इसमें समय का इतिहास, विकास, हर प्रकार की घटना समाहित रहती है जो उसके मानस को आंदोलित करती है। अतः लोकसाहित्य समय का सत्य भी है। लोकसाहित्य संग्रहीत व प्रकाशित होने पर नहीं मरता। लोक कभी किसी पुस्तक या लिखित माध्यम का सहारा लेकर न तो गाता है, न ही कोई कथा, कहानी, गाथा सुनाता है, न किसी लोकनाटक के संवाद वाचन में किसी परॉम्पटर का सहारा लेता है। न ही स्क्रिप्ट को अपनाता है।

मैंने एक बार भगतिया पार्टी के कलाकारों को उन्हीं की भाषा शैली में एक-दो नकलें या स्वांग लिख कर दिए, सुनाए, रटाए भी, परंतु जब मंचन की बारी आई तो मेरे संवाद धरे-धराए रह गए। उन्हीं के समानांतर वे अपनी ओर से संवाद बोलते लीला करते रहे। लोगों को हंसाते रहे। पैसे (बेलें) बटोरते रहे। आनंद बांटते रहे। इसी संदर्भ के अंत में यह कहना चाहूंगा कि लोक में एक गीत, कथा या गाथा के कई पाठांतर भेद मिलते हैं। उदाहरण- लोकसाहित्य में रमैणी (रामकथा), पंडवीण या पंडवैणी (महाभारत के प्रसंग) या शिवैणी (शिवलीला)। इनके एक ही भाषा-बोली में एक से अधिक पाठांतर मिलते हैं। लोक उन पर कोई विवाद नहीं करता। बल्कि प्रेरित होकर कोई और नया रूप या पाठांतर सोचकर एक और गीत, गाथा, कथा सुना देता है। रमैण, पंडवैण रच देता है। मौखिकता या वाचकता ही लोकसाहित्य की विशेषता है। इसका सौंदर्य तथा श्रवणप्रियता का कारण है। वाचक परंपरा ही इसे जीवंत तथा दीर्घायु बनाती है। परंतु आज इन (मंचों) सबका अभाव होता जा रहा है। अतः जरूरी है हम अपने क्षेत्रीय लोकसाहित्य का संग्रह, संरक्षण समय रहते करें। मुझे स्मरण है मेरे गांव के आसपास अनेक ऐसे डल़ैह (लोक चिकित्सक) थे जो डाल़ी मंतर आदि के द्वारा लोकोपकारी कार्य निशुल्क किया करते थे। परंतु वे विधाएं उनके साथ ही चली गईं। न तो वे किसी को बताकर गए, न उनका कोई दस्तावेजीकरण हुआ। अंत में कहना चाहता हूं कि लोकसाहित्य लिपिबद्ध और लोकसंगीत प्रकाशित होने से मरता नहीं, बल्कि जीवंत होता है।


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