घटती सजा दर और कानून व्यवस्था

यदि कानून व्यवस्था की स्थिति को दुरुस्त रखना है तो दोषसिद्धि की दर बढ़ानी होगी…

अपराध एक सामाजिक बुराई है तथा अतीत से ही समाज इससे ग्रसित रहा है। ज्यों-ज्यों मनुष्य स्वार्थ और भौतिकवाद की ओर प्रवृत्त हुआ, त्यों-त्यों हर प्रकार के अपराधों में वृद्धि होती चली गई। मानव मूल्यों में गिरावट आने से अनैतिक अपराधों में और भी बढ़ौतरी होती जा रही है। हालांकि अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न प्रकार के विधि-विधानों को बनाया गया है, मगर फिर भी समाज में हर प्रकार के अपराधों में वृद्धि होती जा रही है। यह ठीक है कि कानून व्यवस्था की शिथिलता के कारण अपराधों में वृद्धि होती है, मगर निर्भया जैसे बलात्कार व हत्याकांड के बाद सख्त कानून बनाने के बावजूद महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। अपराधियों की मनोवृत्ति में इतनी दरिंदगी भरी होती है कि वो फांसी जैसी होने वाली सजा से भी डरते नहीं हंै। समाज में अपराधों को कम करने के लिए जहां एक तरफ कानूनी प्रक्रिया में सुधार लाने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से अपराध की जड़ों में जाकर इसका समाधान करने की आवश्यकता है।

संस्कारों के अभाव के कारण भारत की नई पीढ़ी में देश की पुरातन संस्कृति एवं सभ्यता के प्रति जागरूकता में भारी कमी आई है। संस्कारों के अभाव के कारण अक्सर युवावस्था में लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं जिसके कारण जाने-अनजाने में या जानबूझकर वे कई प्रकार के जघन्य अपराध कर बैठते हैं। अपराध नियंत्रण सरकार द्वारा किया जाने वाला प्रयास होता है तथा आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने वाले हर व्यक्ति के लिए उचित दंड की व्यवस्था भी की गई है। अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलुओं के अवलोकन के बाद पाया गया है कि अपराधियों को न केवल कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए, बल्कि एक निश्चित समय में पीडि़त लोगों को भी न्याय मिलना अति आवश्यक है, क्योंकि देरी से मिला न्याय तो अन्याय के बराबर ही होता है। देरी से मिले न्याय में कोई सार्थकता नहीं होती। आज अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 4.3 करोड़ मुकदमें लम्बित हंै तथा जिनमें से 169000 मुकदमें पिछले कई वर्षों से लम्बित हंै। इस सम्बन्ध में नीति आयोग ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि वर्तमान की निष्पादन दर के आधार में इन सभी लम्बित मुकदमों के निवारण के लिए 324 वर्ष लगेंगे। इसी तरह न जाने कितने ऐसे निर्दोष लोग जेलों में बंद हंै जो अपने न्याय का इंतजार करते-करते बूढ़े भी हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर अप्रैल 2022 में बिहार के एक कोर्ट द्वारा एक व्यक्ति को 28 वर्ष कारावास के बाद उसे तथ्यों के अभाव के कारण रिहा किया गया। इसी तरह न जाने ऐसे और कितने लोग हैं जो बिना कसूर के ही जेलों में सड़ रहे हैं। सरकार ने सुशासन के लिए कई कदम उठाए हैं तथा बिना वजह की देरी से की गई कार्यवाही के लिए कर्मचारियों को सजा का प्रावधान भी किया है, मगर न्यायालयों को इसके प्रति उत्तरदायी नहीं ठहराया गया है तथा जिसके परिणामस्वरूप न्यायालय अपनी मर्जी से बिना किसी समय सीमा को ध्यान में रखते हुए मुकदमों का निपटारा करते रहते हैं।

यह ठीक है कि भारत में प्रति मिलियन आबादी पर केवल 20 न्यायाधीश हैं तथा इसी तरह न्यायाधीशों की रिक्तियों को समय पर भी नहीं भरा जाता तथा सरकार व उच्चतम न्यायालय अपने-अपने अधिकारों के बीच ही उलझे रहते हैं। अभी हाल ही में सरकार ने पांच न्यायाधीशों की नियुक्ति करने में न जाने कितना समय लगा दिया, जबकि कालेजियम ने काफी समय पहले ही अपनी सिफारिशें सरकार को भेज रखी थी। देरी से मिले न्याय में अपराधियों के छूट जाने की उम्मीदें बढ़ जाती हैं क्योंकि लम्बे समय के बाद गवाहों को तथ्यों का ज्ञान कम हो जाता है या फिर वकील लोग उन्हें सवालों में उलझा कर तथा संशय का लाभ उठाकर अपराधियों को सजामुक्त करवा लेते हैं। ऐसे अपराधियों की दोबारा अपराध करने की प्रवृत्ति बढऩे लगती है तथा कानून-व्यवस्था लचर होती चली जाती है। दूसरी तरफ पीडि़त वर्ग भय से ग्रस्त होता चला जाता है तथा अपराधियों के आगे घुटने टेकने के लिए मजबूर हो जाता है। यदि कानून व्यवस्था की स्थिति को दुरुस्त रखना है तो दोषसिद्धि की दर को बढ़ाना होगा अन्यथा अपराधी बेखौफ होकर बर्बरता व उद्दंडता का इजहार करते रहेंगे। इस सम्बन्ध में विभिन्न अपराधों में सजा की दर की एक झलक इस प्रकार से है। मनी लांडरिंग मुकदमों में सजा की दर केवल 0.5 प्रतिशत, जबकि भ्रष्टाचार के मुकदमों में 1 प्रतिशत तथा अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार के मामलों में यह दर लगभग 7 प्रतिशत है। यदि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत सजा की दर को देखें तो यह दर बढ़ कर लगभग 57 प्रतिशत हो गई है तथा मादक पदार्थों की रोकथाम सम्बन्धी मामलों में यह दर केवल 27 प्रतिशत है। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों में सजा की दर भी केवल 27 प्रतिशत पाई गई है जोकि औसत से काफी कम है। न्याय की देवी को इस ओर अपनी आंखों से पट्टी उतार कर देखना होगा कि न्याय का तराजु कहीं असमतल तो नहीं होता जा रहा है। न्याय वितरण में शीघ्रता लाने व सजा की दर को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हंै।

1. जजों की संख्या बढ़ानी चाहिए तथा फास्ट ट्रैक कोर्टों की संख्या में भी बढ़ोतरी करनी चाहिए।

2. सभी जजों को एक निश्चित समय अवधि में फैसले सुनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को उचित कदम उठाने चाहिए।

3. बचाव पक्ष के वकील आम तौर पर ट्रायल को आगे से आगे खिसकाने में लगे रहते हैं। इस सम्बन्ध में एक ऐसा कानून बनाना चाहिए कि किसी भी तारीख को एक से ज्यादा बार स्थगित करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।

4. बचाव पक्ष के वकील विभिन्न मुकदमों, विशेषत: सिविल केसों में मनमानी फीस लेते रहते हैं तथा इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय को एक निश्चित सीमा तय करनी चाहिए।

5. न्यायाधीशों को अधिक देरी तक कोर्ट में बैठकर निर्णय देने के लिए उन्हें अतिरिक्त मानदेय देना चाहिए।

6. उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय को छोटी-मोटी पिटिशंस व शिकायतों को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

7. कर्मचारियों की शिकायतें सुनने के लिए विशेष ट्रिब्यूनल स्थापित करने चाहिए।

8. अधिक से अधिक लोक अदालतों का गठन करना चाहिए तथा पंचायतों को ट्रायल के लिए भेजे जाने वाले मुकदमें इनके विचाराधीन लाने चाहिए।

9. घरेलू हिंसा जैसे मुकदमों को निपटाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों को 60 दिन की समय अवधि निश्चित की गई है, मगर पीडि़त महिलाएं लम्बे समय तक कोर्ट-कचहरियों में चक्कर लगाने के लिए मजबूर होती रहती हैं। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय को उचित निर्देश देने चाहिए।

10. आम जनता में कानून के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक प्रयास करने चाहिए। इसी तरह स्कूलों व महाविद्यालयों में कानून से संबंधित एक निश्चित पाठ्यक्रम होना चाहिए।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App