पहाड़ों का हमदर्द बनना होगा

भावी पीढिय़ों के सुखमय जीवन व पर्वतों के बेहतर मुस्तकबिल के लिए पहाड़ों का हमदर्द बनना होगा, ताकि देवभूमि की फिजाओं में अमन की शमां जलती रहे। प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के विकल्प तलाशने होंगे…

धरती के सीने पर कुदरत की भव्य संरचना पहाड़ मजबूती व निर्भीकता का प्रतीक होते हैं। ‘हुस्न पहाड़ों का’ भारत की मारूफ गुलुकारा लता मंगेशकर द्वारा गाया यह मशहूर नगमा पहाड़ों की शबाहत को जाहिर करता है, मगर आलम यह है कि पर्यटन, आस्था व सुकून का केन्द्र रहे पहाड़ संकट के बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। गहरे जख्म देने वाली कुछ अफसोसनाक तारीखें एक मुद्दत गुजर जाने के बाद भी नहीं मिटती। आसमान से आफत बनकर बरसी बरसात व दरकते पहाड़ों ने हिमाचल की भोली-भाली विरासत के लोगों को कभी न भूलने वाले गहरे घाव दिए हैं। मगर गुजरी हुई शब का मातम मनाने से कुछ हासिल नहीं होता। कामयाबी का मुनासिब मुकाम हासिल करने के लिए नई सहर के उगते हुए आफताब से निगाहें मिलाकर चलना पड़ता है। मुश्किल वक्त की चुनौतियों को हौसले की बुनियाद पर ही फतह किया जा सकता है। विडंबना है कि पर्यटन क्षेत्र से लेकर देश की उन्नति से जुड़े मुद्दों पर मुल्क के हुक्मरानों की निगाहों का मरकज हमेशा पहाड़ ही बने हैं। पहाड़ों के पानी ने देश की तकदीर व तस्वीर बदल कर विकास के बेमिसाल मजमून लिखकर आलमी सतह पर देश का मान बढ़ाया है, तो पहाड़ की जवानी देशरक्षा के महाज पर राष्ट्र के लिए ही समर्पित रही है।

1960 का दशक, जब देश की करोड़ों आबादी पेयजल के संकट से जूझ रही थी, लोग बिजली से महरूम थे, 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में देश की मईशत चरमरा चुकी थी, मुल्क खाद्यान्न की भारी किल्लत से जूझ रहा है, उस वक्त मुल्क के हुक्मरानों ने उन चुनौतियों से निपटने के लिए भाखड़ा बांध व पौंग डैम की संगे बुनियाद हिमाचल की सरजमीं पर रखी थी। बांधों के पानी से उत्पन्न बिजली से पड़ोसी सूबे अफरोज हुए। पड़ोसी राज्यों की मरूस्थलीय भूमि शादाब हुई। हरित क्रांति का आगाज हुआ, मगर उस कुर्बानी का नजराना हिमाचल के हजारों परिवारों को विस्थापन के रूप में मिला। बिलासपुर, ऊना व कांगड़ा के सैकड़ों गांवों की इन जलाशयों में जल समाधि दे दी गई। बिलासपुर में चंदेल राजवंश की कहलूर रियासत की राजधानी गोविंद सागर झील की आगोश में समा गई। प्रदेश में कीरतपुर-मनाली जैसे फोरलेन राष्ट्रीय राजमार्गों व कई पुलों तथा सुंरगों का निर्माण हो रहा है। रेलवे लाइन की बिसात बिछ रही है। इन विकास कार्यों का सीधा संबंध देश के रक्षा क्षेत्र की मजबूती के लिए है ताकि लेह, लद्दाख व सियाचिन जैसे दुर्गम क्षेत्रों में भारतीय सेना की पहुंच आसान हो सके। परंतु इन विकास कार्यों के चलते राज्य के सैकड़ों परिवार विस्थापित हो चुके हैं।

बेशक विकास व उन्नति वक्त का तकाजा है। बढ़ती आबादी व सडक़ों पर वाहनों की तादाद में इजाफा तथा देश की सरहदों के उस पार भारत को दहलाने का मंसूबा तैयार करने वाले चीन व पाकिस्तान जैसे मुल्कों से निपटने के पेशेनजर सडक़ निर्माण कार्य सरकारों की प्राथमिकता में होने चाहिए। लेकिन ऐसा विकास जो लोगों के आशियाने छीनकर मौत के साए में जीने को मजबूर कर दे, पहाड़ों को खोखला करके तबाही का खौफनाक मंजर पेश करे, प्राकृतिक संसाधनों का वजूद मिटाकर लोगों को पेयजल के लिए फरियादी बना दे, लोग शरणार्थी बनकर हाथों में ज्ञापन लेकर शासन-प्रशासन के पास अपने हकूक की गुहार लगाने को मजबूर हो जाएं, ऐसे निर्माण कार्यों का मॉडल हरगिज बर्दाश्त नहीं होना चाहिए। जबरन विकास की जद्दोजहद से दरकते पहाड़ अब मुआवजे का मुतालबा कर रहे हैं। पहाड़ों का दरकना कोई इत्तेफाक नहीं है। मशीनीकरण द्वारा प्रकृति से हो रहा खिलवाड़ तथा बेलगाम रफ्तार से हो रहे निर्माण कार्य भी आपदाओं के लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं। पहाड़ों की संवेदनशीलता के मद्देनजर पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण कार्यों की शैली पहाड़ों की भौगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। मगर पहाड़ों में भी मैदानी इलाकों की तर्ज पर बेलगाम निर्माण गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। आपदाएं कुदरत का कहर बनकर आएं या मानव दखल से घटित हों, परिणाम विनाशजनक होता है। पहाड़ों के बिखरते वजूद के साथ लोगों के टूटते ख्वाब व सुलगती तन्हाइयां आपदाओं की शदीद गर्दिश को बयान कर रही हैं। अत: मरकजी हुकूमत के वजीरों को मुश्किल दौर से गुजर रहे हिमाचल के जमीनी हालात से मुखातिब होकर राज्य की मदद के लिए आगे आना होगा। यह सियासी मुद्दा नहीं है, बल्कि देश के स्वाभिमान के लिए कुर्बानियों का इतिहास लिखने वाले राज्य पर आई खौफनाक त्रासदी की दास्तान है।

विकास कार्यों में मशगूल व्यवस्थाओं तथा आधुनिकता की चकाचौंध में भौतिकतावाद की बढ़ रही ललक में मशरूफ लोगों को समझना होगा कि कुदरत का भी अपना एक निजाम है। कुछ कायदे कानून हैं। पहाड़ों की भी एक सलाहियत है। कुदरत के असूलों को ताक पर रखकर निर्माण कार्यों में आजमाईश किए जा रहे तौर तरीके भविष्य में खतरनाक साबित हो सकते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण को लेकर अदालतों के फरमान, एनजीटी की हिदायतें, पर्यावरणविदों की नसीहत व भूगर्भ शास्त्रियों की राय तथा अन्य विशेषज्ञों की चेतावनियों को संजीदगी से लेना चाहिए। आपदाओं की मार झेल रहे हिमाचल को हिम्मत व जज्बे के साथ उठना होगा। संघर्ष रणभूमि में हो या मनभूमि में, जीने की तलब व उम्मीदों को जिंदा रखने तथा कामयाबी का अध्याय लिखने के लिए हर मैदान में धैर्य व जज्बे की जरूरत होती है। चंूकि आंधियों का सफर ज्यादा लंबा नहीं चलता। दौर हमेशा हवाओं का ही कायम रहता है। हिमाचल प्रदेश देवभूमि के साथ वीरभूमि के नाम से विख्यात है। चुनौतियों से निपटने में पहाड़ के मेहनतकश लोगों का व्यापक इतिहास रहा है। बहरहाल अपने दीदार मात्र से अशांत मन को आध्यात्मिक सुकून का एहसास कराने वाले पहाड़ आखिर सुकून-ए-हयात छीनने पर आमादा क्यों हैं, यह वैज्ञानिक मंथन का विषय है। भावी पीढिय़ों के सुखमय जीवन व पर्वतों के बेहतर मुस्तकबिल के लिए पहाड़ों का हमदर्द बनना होगा, ताकि देवभूमि की फिजाओं में अमन की शमां जलती रहे। दरकते पहाड़ों का समाधान व प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के विकल्प तलाशने होंगे। आक्रोश का इजहार कर रही प्रकृति के साथ अदब से पेश आना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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