आ, अब घर लौट चलें

By: Dec 26th, 2023 12:05 am

हमारी अगली विद्वान पीढ़ी को शहरों में अच्छी-अच्छी नौकरियां मिल रही हैं, लेकिन जहरीली हवा में सांस लेने से अच्छा है गांव से जुड़े रहें…

एक समय था जब कोई ग्रामीण गांव से शहर आता तो शहरी लोग हैरानी से नाक- भौंह सिकोडक़र उसे ऐसे देखते जैसे किसी दूसरे ग्रह से कोई एलियन आया हो। सर पर साफा या पगड़ी जिसमें से बालों में डाला सरसों का तेल कानों से टपक रहा होता था। बड़ी-बड़ी चमकदार मूंछें, हाथ में एक लंबा सा छाता, मानो तीसरी टांग साथ हो। बदन पर खुला सा कुर्ता, धोती या लूंगी, कंधे पर गमछा, काम के बोझ से निकली हड्डियां मानो खेतों में रखवाली के लिए खड़ा किया गया पुतला हो। सख्त चमड़े के जूते कदम आगे बढ़ाने पर चूं-चूं करके रो पड़ते। सर पर एक बड़ी सी गठरी जिसमें गुड़ या खेतों से निकली कोई ताजी फसल होती। मोहल्ले में पहुंचते ही दूर से ही जोर-जोर से आवाज लगाता, मोहनवा! अरे ओ मोहनवा! कहां है रे तू? देख तेरा बड़ा भाई आया है। सारे मोहल्ले के लोग बाहर झांकने लगते कि कौन आ गया जिसने इतना भूचाल मचाया हुआ है और जोर-जोर से चिल्ला रहा है। कुछ बच्चे डर कर भाग जाते, कुछ पीछे चल पड़ते जैसे कोई तमाशबीन आया हो। यह दृश्य आज से 40-50 वर्ष पहले का होता था जब कोई ग्रामीण अपने किसी रिश्तेदार से मिलने शहर जाता था। कुछ पुरानी फिल्मों में गोविंदा, अमिताभ बच्चन आदि अभिनेताओं ने ऐसे रोल बखूबी निभाए हैं। उस समय शहर और गांव के रहन-सहन, वेशभूषा आदि में जमीन-आसमान का अंतर था। ग्रामीणों को अनपढ़, गंवार या देहाती आदि संबोधन दिए जाते थे। ऐसे ही जब कोई शहरी गांव आता तो गांव के लोग भी उसे घूर-घूर कर देखते थे। उस समय के गांव शहरों से मिलों दूर होते थे। सडक़ों का अभाव था।

छोटे-छोटे कच्चे घर, पशु-गौशालाएं, गोबर, खेत-खलिहान, अधिकतर गांवों में बिजली नहीं होती थी। पानी दूर-दूर से कुआं या बावड़ी से सर पर लाया जाता था। घास-लकड़ी के ग_र, फसल आदि हर सामान सर पर ढोया जाता था। पाठशालाएं बहुत दूर होती थी। शिक्षा का अभाव था, पर गांव के भोले-भाले मेहनती लोग अपनी दुनिया में संतुष्ट थे। इन्हीं गांवों के खेतों में स्वास्थ्य अठखेलियां करता था, दूध की नदियां बहती थी। घी के नाले बहते थे। अटूट अन्न के भंडार भरे रहते थे। सत्य. संयम, सरलता, सहानुभूति और सुख-शांति थी। गांव समृद्ध थे तो देश भी समृद्ध था। राष्ट्र का अन्न, धन व जन गांव से ही प्राप्त होता था। गांव के जवान अच्छे सैनिक होते थे। लेकिन अंग्रेजों के समय जमींदारी प्रथा आरंभ होते ही गांव की दशा बद से बदत्तर होती चली गई। सूदखोरों ने भी ग्रामीणों का खून चूसना आरंभ कर दिया। इन दीमकों ने गांव की समृद्धि को खोखला कर दिया। किसान जमीदारों के हाथों की कठपुतली बन गए और सूदखोर अपने लाभ के लिए किसानों का शोषण करने लगे। कभी सूखा, कभी अतिवृष्टि से फसल को नुकसान होने से किसानों की कमर टूट गई। ऊपर से सहायता के स्थान पर अंग्रेजों द्वारा बलपूर्वक लगान वसूल किया जाने लगा। जमींदारों और सूदखोरों के अत्याचारों से ऋण का बोझ बढऩे से गांव में रोटी के भी लाले पडऩे लगे। इन सारी समस्याओं से परेशान होकर गांव के युवक रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगे। धीरे-धीरे छोटे नगर बड़े शहर बनने लगे और बड़े शहर महानगर बन गए। शहरों में विकास होने के कारण धड़ाधड़ उद्योग-धंधों, कल-कारखानों और बड़े-बड़े भवनों का निर्माण होने लगा जो आज भी जारी है।

यहां ग्रामीणों को कोई न कोई रोजगार मिलने लगा, इस प्रकार शहरों में भीड़ बढऩे लगी। जब शहरों में विकास हुआ तो गांव में भी विकास से परिवर्तन होने लगा । स्वतंत्रता के बाद जमींदारी प्रथा को बंद किया गया। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा ग्राम सुधार पर विशेष व्यय व बल दिया गया। गांव में सडक़ों का जाल बिछ गया। हवाई पट्टी, हवाई अड्डे, रेलवे लाइन आदि ने गांव से शहरों की दूरी इतनी कम कर दी कि आज गांव शहरों से हाथ मिलाने लगे हैं। इंटरनेट की दुनिया, सोशल मीडिया, वैश्वीकरण आदि से आज गांव और शहरों का अंतर बहुत कम रह गया है। अब गांव में हर सुविधा है। शिक्षा प्राप्त करके गांवों के बच्चे शहरों के बच्चों को पछाड़ रहे हैं, लेकिन जो भी युवक शहर जा रहा है वह अपना गांव छोडक़र वहीं का होकर रह गया है। शहरों की बढ़ती भीड़ और भूमि की कमी के कारण एक नया आविष्कार हुआ। बड़े-बड़े टावर भवन जिनमें अधिक से अधिक फ्लोर व फ्लैट बनने लगे। ये बहुमंजिला इमारतें दूर से देखने पर ऐसी लगती हैं जैसे कबूतर रखने को कबूतरखाने बनाए गए हों। इनमें रहने वालों को न तो मिट्टी के स्पर्श का ज्ञान न उसकी खुशबू का एहसास और न रात को आसमान में तारे देख पाते हैं। न प्रकृति का आनंद उठा पाते हैं।

फिर भी इन फ्लैटों को खरीदने की होड़ लगी है। धीरे-धीरे शहरों में प्राणियों की भीड़ के साथ अनगिनत गाडिय़ों, कल-कारखानों से प्रदूषण इतना बढ़ता गया कि साल 2022 में दुनिया में आठवां सबसे प्रदूषित देश भारत रहा। चिंता की बात यह है कि भारत के लोग विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 7 गुना जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं। रिपोर्ट में 2022 के प्रदूषण के आधार पर 131 देशों का आकलन किया गया जिसके अनुसार दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित 20 शहरों में 19 एशिया के हैं, इनमें 14 भारतीय शहर हैं। स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। दिल्ली में स्कूलों को बंद करना पड़ रहा है। वहां पर जहरीली हवा और स्मॉग के कारण सांस लेने में तकलीफ हो रही है। आंखों में जलन, फेफड़ों और दिल का आघात आदि कई भयंकर बीमारियां इस जहरीली हवा से पनप रही हैं। दिल्ली में एनसीआर प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है। नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम आदि में भी हालत बहुत खराब है। सर्दियों में पराली जलाने से यह समस्या और भी गंभीर होती जाती है। यहां तक कि समुद्र के किनारे के महानगर मुंबई आदि में भी यह प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। नि:संदेह हमारी अगली विद्वान पीढ़ी को कंपनियों में अच्छी-अच्छी नौकरियां मिल रही हैं और वे शहर की चकाचौंध छोडऩा नहीं चाहते, लेकिन इस जहरीली हवा में सांस लेने से तो अच्छा है कि वे अपने घर-गांव से जुड़े रहें और वहां आते रहें, जहां पर दूर तक फैला हुआ गगन और उसमें घटता-बढ़ता चंद्रमा, सप्तऋषि, ध्रुव तारे सहित न जाने कितनी आकाशगंगाएं आंख मिचौनी खेल रही हैं। वह घर का खुला आंगन और जिसके मध्य तुलसी तुम्हारे स्वागत में खड़ी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। हरे-भरे खेत जो कुछ सूखते जा रहे हैं, अपने भावी मालिक को याद कर रहे हैं। बैसाखी का मेला तुमने जिन कंधों पर चढक़र देखा था, वे कंधे आज तुम्हारे हाथों का सहारा ढूंढ रहे हैं।

कविता सिसोदिया

साहित्यकार


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