हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 33

By: Dec 2nd, 2023 7:21 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-33

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘रोग का निदान’ और ‘पराया दुख अपना दुख’ कहानियों में सरकारी अस्पतालों में व्याप्त अनुशासनहीनता और उत्तरदायित्वहीनता को रेखांकित किया है। इस प्रकार की स्थितियां रोग ग्रस्त लोगों को निजी अस्पतालों में जाने के लिए विवश करती हैं। सरकारी अस्पतालों की दयनीय दशा को प्रस्तुत कहानियां व्यंजित करती हैं। ‘यथार्थ पांव’ कहानी वैवाहिक संबंधों को लेकर विन्यस्त कहानी है। ‘साक्षात्कार’ में कहानीकार ने यह व्यंजित किया है कि राकेश जैसे बेरोजगार युवक किस प्रकार रोजगार के लिए भटकते हैं। नौकरी के लिए रिश्वत के जाल को भी यह कहानी रेखांकित करती है। ‘लम्हों का दर्द’ कहानी संग्रह की शीर्ष कहानी है। पत्रात्मक शैली में रचित इस कहानी में एक स्त्री की उच्छृंखलता और अहंकार को राकेश की पत्नी के संदर्भ में निरूपित किया है। उसका अहंकार विवाह के पहले दिन से ही प्रस्फुटित होता है। उसकी इन प्रवृत्तियों के कारण पारिवारिक तनाव बढ़ जाता है। बूढी मां और और पति के प्रति उसकी क्रूरता को रेखांकित किया है। राकेश अपने मित्र के साथ अतीत के दिनों को स्मरण कर अपने भाग्य को कोसता है। ‘रिश्ते’ अनाम और संज्ञाहीन रिश्तों पर केंद्रित कहानी है। किस प्रकार सानिध्य के कारण स्नेह के सूत्र बन जाते हैं और वे रिश्ते अनाम ही बने रहते हैं। कहानीकार ने रतन और अस्पताल में उसकी सेवा करने वाली नर्स के संदर्भ में इसे निरूपित किया है। ‘रिश्ते कागज के’ में कहानीकार ने वृद्ध माता-पिता के प्रति संतति की संवेदनशून्यता और उत्तरदायित्वहीनता को मुंशी ताऊ रामदित्ता जैसे वृद्ध व्यक्ति के संदर्भ में निरूपित किया है। सेवानिवृत्ति के अनंतर जो उनके हाथ में पैसा होता है, वह बच्चे ले लेते हैं और बाद में पुत्र और पुत्रवधू उन्हें सहन करना, उनका पालन पोषण करना छोड़ देते हैं। कहानीकार ने गिरगिट की भांति परिवर्तित होते रिश्तों की वस्तुस्थिति को सामने लाया है। समाज के यह सभी रिश्ते घोर स्वार्थों के कारण संवेदनात्मक लगाव के अभाव में कागज के रिश्ते हो गए हैं। ‘श्रद्धा’ अंधविश्वास को उजागर करती चमत्कारी सिद्धियों से संबद्ध कहानी है। ‘एक और मीरा’ शीर्षक कहानी नारी उत्पीडऩ की कहानी है जिसमें मीरा अपने पति के कैरियर को बनाने में अथक योगदान देती है, परंतु बाद में पति वकालत करना शुरू करते हैं तो पत्नी पर अनेक तरह से उत्पीडऩ करते हैं। यहां तक कि पत्नी को परिवार के सदस्य पागल तक घोषित करने का षड्यंत्र रचते हैं।

रजनीकांत की ये कहानियां अनुभूत निकट परिवेश का साक्षात्कार कराती हुई वर्तमान जीवन के यथार्थ को अभिव्यंजित करती हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि में रचित ये कहानियां ग्रामीण जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं का यथार्थ निरूपित करती हैं। रजनीकांत की कहानियां संवेदना की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण हैं। उनकी कहानियों में भाषा का सहज, स्वाभाविक प्रवाह आकर्षित करता है। राजीव सिंह का पहला कहानी संग्रह ‘उनके आईने’ शीर्षक से सन् 1995 में प्रकाशित हुआ है। संदर्भित संग्रह में उनकी सात कहानियां- उनके आईने, उस रात के बाद, दूसरी औरत, छोटा सा सवाल, दोष मुक्त, खरीदे हुए शहर और उसकी कहानी संगृहीत हैं। राजीव सिंह ने ‘शहरों के पड़ाव’ शीर्षक भूमिका के अंतर्गत अपने सृजन अनुभवों के संबंध में लिखा है, ‘इन कहानियों को लिखने का अंतराल मेरे लिए एक भटकाव था। ये कहानियां महज मेरे भोगे हुए अनुभव नहीं हैं, अपितु दूसरों के भी हैं, जिनके साथ कभी कहीं जिया हूं, या उनके साथ वक्त-बेवक्त जीने का साहस कर बैठा था। लिखना मेरे लिए सिर्फ सुख नहीं रहा है, अपितु अफसोस भरा सुख रहा है। कहानी के अंतिम वाक्य लिखते हुए एक पीड़ा से गुजरता रहा हूं, क्योंकि यह बिंदु कहानी की मृत्यु का नहीं होता। कथा की समाप्ति ही इसलिए होती है कि कुछ अर्थ है जिनके लिए वह जीवित रहती है, और उन अर्थों के लिए शब्दों की सत्ता या वाक्य की संरचना बेमायने सी हो जाती है। कहानियां भटकाओं के वह खूंटे हैं जिनसे हम बंधे हैं।’ ‘उनके आईने’ विवेच्य संग्रह की शीर्ष कहानी है। इसमें कहानीकार ने डेजी की चरित्र सृष्टि के माध्यम से बाल्यकाल से किशोर वय की अवस्था तक पहुंचने के भावात्मक और जैविकीय परिवर्तनों को चित्रित किया है। पहली अवस्था में वह अपनी देह में आए परिवर्तनों को दर्पण में देखकर स्वयं अभिभूत होती है। धीरे-धीरे भावात्मक, जैविकीय और बौद्धिक विकास स्व से पर की ओर हो जाता है। कहानी में डेजी के सम वय के पड़ोस के किशोर के प्रति आकर्षण फिर देह स्पर्श की अनुभूति, सामाजिक वर्जनाओं की समझ और मां की डांट का चित्रण है। मां उसे एक ही भेंट के पश्चात रोक देती है, फिर वह पुन: मिलने की चेष्टा नहीं करती। यह अपराध बोध उसे मां के आंचल में ले जाता है। डेजी अपने अकेलेपन में अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करती हुई पिता के दूसरी स्त्री से दैहिक संबंध से विचलित होती है। ‘उस रात के बाद’ लंबी कहानी है जिसमें मध्यवर्गीय पिता, मां और बेटा राहुल और बेटी गीता है। पिता जो सदैव शराब में धुत होकर घर लौटता है और पत्नी पर अत्याचार करता है, वही अपने बेटे और बेटी की प्रत्येक गतिविधि को लेकर मां को जिम्मेवार ठहराता है। पिता के आचरण और व्यवहार से तंग आकर स्वयं बेटा भी शराब पीने लगता है और बेटी प्रेम में लीन।

पति के नृशंस व्यवहार से तंग आकर पत्नी कुछ दिन के लिए घर से निकल जाती है, कुछ समय के अनंतर लौटती, घर की दुर्दशा देखती है। कहानी में पुरुष वर्चस्वी पिता अपने आप को घर का मालिक समझता है, पर एक पिता के उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करता। परिवार दिशाहीन हो जाता है। बेटा घर से निकल कर कुख्यात तस्कर बन जाता है। अंत में पिता की गोली का शिकार इसलिए होता है कि वह किसी दूसरे की गोली का शिकार होकर लावारिस घोषित न हो। पिता कहता है तुम्हारी मृत्यु का अधिकार मैं ले रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि किसी भी दिन तुम कहीं पर एक छोटी सी मौत किसी नीच आदमी के भी हाथों में मर जाओ, मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी लाश लावारिस घोषित हो। पिता अपने बेटे की हत्या करने के साथ-साथ उस घर में भी आग लगा देता है जिसमें उसके तस्कर साथी होते हैं। आग की लपटों में तस्कर साथी भी समा जाते हैं। ‘दूसरी औरत’ में गोद लिए बेटे और अपने बेटे के प्रति एक मां के पक्षपातपूर्ण व्यवहार को रूपायित किया है। ‘खरीदे हुए शहर’ शीर्षक कहानी में एक स्त्री के देह व्यापार करने के लिए अभिशप्त जिंदगी का मार्मिक चित्रण है। वह स्त्री अपने जीवन को नरक और मौत का जीवन समझती है। ‘दोष मुक्त’ में जीवन और मृत्यु संबंधी सवालों को फैंटेसी शैली में उठाया है। ‘छोटा-सा सवाल’ और ‘उसकी कहानी’ अन्य उल्लेखनीय कहानियां हैं। कहानीकार राजीव सिंह की कहानियों की संवेदना भूमि विविध मुखी, सूक्ष्म तंतुओं से निर्मित है, भाषा की काव्यात्मकता मोहक, सूक्ष्म भावों, स्थितियों के अभिप्रायों और दृश्यों को मूर्तिमान करने में सक्षम है। कहानियों का शिल्प परिपक्व एवं अपने आप में विशिष्ट है।

सुरेश कुमार ‘प्रेम’ का ‘बड़े लोग’ शीर्षक से सन 1995 में प्रकाशित प्रथम कहानी संग्रह है। इसमें उनकी सत्रह कहानियां- जीवन का उद्देश्य, बदलते चेहरे, टूटे दर्पण के सामने, बड़े लोग, मिलन, पहली कमाई, कालिख, हिस्सेदार, मातृ विहीन, पवित्र-अपवित्र, सयाणी अम्मा, अंधा युग, बूचडख़ाना, पिंजरा खोलो, आंख मिचौली, छोटू की चाल और सच्चा मित्र संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियां कहानीकार के निकट परिवेश से संबद्ध हैं। कहानियों में प्रमुख रूप में ग्रामीण जीवन की दुश्वारियों, संघर्ष, अंधविश्वासों और सामाजिक रूढिय़ों में पिसते जन की पीड़ा मुखरित हुई है। लघु कलेवर की इन कहानियों में दैनंदिनी जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को कथा सूत्रों में विन्यस्त कर सामाजिक विसंगतियों में परिवर्तन की प्रेरणा दी गई है। ‘जीवन का उद्देश्य’ आदर्शवादी कहानी है जिसमें पुत्र उच्च शिक्षा अर्जित कर इंजीनियर बनकर शहर में नौकरी करता है। पुत्र अपने माता-पिता की आकांक्षा के विपरीत अपनी पसंद की युवती से विवाह कर तीन वर्ष के अनंतर लौटता है। माता-पिता का बेटे के प्रति आक्रोश होता है। समय की गति के साथ पुत्र और बहू के दायित्वोध और बहू जो स्वयं डॉक्टर होती है, वह बीमारी और वृद्धावस्था में उनकी सेवा सुश्रुषा जिस तन्मयता से करती है, उससे उनका आक्रोश धीरे-धीरे खत्म हो जाता है और परिवार में सुखमय वातावरण हो जाता है। ‘मिलन’ में डॉ. रमेश और निशा के अंतर्जातीय विवाह को लेकर ग्रामीण समाज का उनके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण होता है। ग्रामीण लोग उनकी निंदा करते हैं और उन्हें अंतर्जातीय विवाह के कारण अस्पृश्य तक समझने लगते हैं। डॉक्टर रमेश और विजातीय पत्नी गांव में आंत्रशोथ की महामारी में मृत्यु से साक्षात्कार करते ग्रामीण रोगियों का व्यापक स्तर पर बिना किसी भेदभाव के उपचार करके उनकी जान बचाते हैं। महामारी से पीडि़त जन की सेवा और मानवीय व्यवहार से ग्रामीण लोगों की जाति विषयक जड़ मान्यताएं खंडित हो जाती हैं और उस दंपति के प्रति जड़ धारणाओं के कारण अस्पृश्य समझ रहे थे, उनके प्रति स्नेह और सम्मान की भावना जागृत होती है।

बदलती जाति विषयक मान्यताओं के फलस्वरूप डॉ. रमेश के भाई मदन के साथ विजातीय निशा की छोटी बहन परिणय सूत्र में बंधती हैं। ‘पहली कमाई’ में माता-पिता के दुर्घटनाग्रस्त होने तथा स्वयं अपाहिज होने की स्थिति में विवश होकर भिखारी बनकर जीवन यापन करने वाले युवक की दशा का चित्रण है। कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने वाला युवक उसकी दुखद गाथा सुन कर अपने साथ घर ले जाता है और उसकी पढ़ाई में रुचि को देखते हुए कॉलेज में अपने साथ स्नातक की शिक्षा ग्रहण करने में सहायक होता है। बैंक में उप प्रबंधक बनकर वह अपनी पहली कमाई नवीन के पिता को सौंपता है। पिता का भिखारी के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तित होता है और कहता है, ‘प्रदीप बेटा! तुमने तो हमारे हृदय पर विजय प्राप्त कर ली। वास्तव में मानसिक रूप से विकलांग तो हम लोग हैं, तुम जैसे होनहार बेटों पर इतने घटिया विचार रखते हैं। आज मुझे तुम पर गर्व हो रहा है।’ उस अपाहिज युवक को नवीन की मां और पिता का प्यार मिलता है और उसकी बहन श्वेता राखी बांधकर उसे भाई स्वीकार करती है। ‘कालिख’ में कहानीकार ने यह चित्रित किया है कि अयोग्य विद्यार्थी किस प्रकार रिश्वत और भ्रष्टाचार में संलिप्त अध्यापकों की मिलीभगत से उत्तीर्ण होते हैं और इसका विरोध करने वाले अध्यापक अपमानित होते हैं। वर्मा और ईश्वर दास जैसे लोग हैं जो षड्यंत्र कर अपने बच्चों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में पहुंचाते जाते हैं।    -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : मां बोली में अनूठी पुस्तक है ‘कहलूरी कलमवीर’

कल्याण कला मंच बिलासपुर के बैनर तले लिखित और 26 अक्तूबर को जिला मुख्यालय बिलासपुर में प्रदेश के जाने-माने विद्वानों पंडित जय कुमार और रूप शर्मा द्वारा लोकार्पित पुस्तक ‘कहलूरी कलमवीर’ ने चंद दिनों में ही प्रदेश में पहाड़ी साहित्य सृजन की दुनिया में धाक जमा दी है। मंच के अध्यक्ष और इस पुस्तक के सम्पादक सुरेन्द्र मिन्हास द्वारा सम्पादित ‘कहलूरी कलमवीर’ पुस्तक के 216 पृष्ठों में जिला के 28 कहलूरी कवियों के जीवन परिचय के साथ प्रत्येक की पांच-पांच कहलूरी रचनाओं को स्थान दिया गया है। इसमें जहां प्रदेश स्तर के बड़े हस्ताक्षरों की कविताएं शोभा बढ़ा रही हैं, वहीं मंच के नवोदित कहलूरी लेखकों की रचनाएं शामिल करके उन्हें भी प्रोत्साहित किया गया है। जीवन के हर रंग को छूती कविताओं से सुसज्जित इस पुस्तक की कीमत मात्र 351 रुपए निर्धारित की गई है तथा पुस्तक में मंच के क्रियाकलापों का भी सचित्र वर्णन किया गया है। पुस्तक का लोकार्पण जिला भाषा अधिकारी रेवती सैनी के सानिध्य में प्रदेश के जाने-माने पहाड़ी लेखक रूप शर्मा ने किया, जबकि प्रदेश पत्रकार महासंघ के अध्यक्ष और साहित्यकार पंडित जय कुमार ने प्रस्तावना लिखने के साथ-साथ कार्यक्रम की अध्यक्षता भी की। सम्पादक सुरेन्द्र मिन्हास के साथ इस पुस्तक को सजाने-संवारने में पहाड़ी कवियों अमरनाथ धीमान, बीना वर्धन, तृप्ता कौर मुसाफिर और प्रो. जय महलवाल ने उप संपादकों की भूमिका अदा की है। बहुत ही कम समय में यह पुस्तक प्रदेश के कोने-कोने में पहुंच चुकी है और प्रदेश के दर्जनों लोकप्रिय पहाड़ी लेखकों की राय में भविष्य में यह पुस्तक कहलूरी महाकाव्य ग्रंथ साबित होगी।                                                                                                                   -फीचर डेस्क

जयंती विशेष : बालकृष्ण शर्मा नवीन : एक प्रगतिशील लेखक

सन 1930 ईस्वी तक वह यद्यपि कवि रूप में यशस्वी हो चुके थे, परंतु पहला कविता संग्रह ‘कुमकुम’ 1936 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है। स्वतंत्रता संग्राम का सबसे कठिन एवं व्यस्त समय आ जाने के कारण ‘नवीन’ बराबर उसी में उलझे रहे। कविताएं उन्होंने बराबर लिखीं, परंतु उनको संकलित कर प्रकाशित कराने की ओर ध्यान नहीं रहा…

बालकृष्ण शर्मा नवीन हिंदी जगत के कवि, गद्यकार और अद्वितीय वक्ता थे। हिंदी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के अग्रणी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म 8 दिसंबर 1897 ईस्वी को ग्वालियर राज्य के भयाना नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री जमनालाल शर्मा वैष्णव धर्म के प्रसिद्ध तीर्थ श्रीनाथ द्वारा में रहते थे। वहां शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनकी मां उन्हें ग्वालियर राज्य के शाजापुर स्थान में ले आईं। यहां से प्रारंभिक शिक्षा लेने के उपरांत उन्होंने उज्जैन से दसवीं और कानपुर से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके उपरांत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, श्रीमती एनी बेसेंट एवं श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने पढऩा छोड़ दिया।

शाजापुर से अंग्रेजी मिडल पास करके वह उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रविष्ट हुए। उनको राजनीतिक वातावरण ने शीघ्र ही आकृष्ट किया और इसी से वह सन 1916 ईस्वी के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन को देखने के लिए चले आए। इसी अधिवेशन में संयोगवश उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से हुई। सन 1917 ईस्वी में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करके बालकृष्ण शर्मा गणेशशंकर विद्यार्थी के आश्रम में कानपुर आकर क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढऩे लगे। सन 1920 ईस्वी में बालकृष्ण शर्मा जब बीए फाइनल में पढ़ रहे थे, गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन के आह्वान पर वह कॉलेज छोडक़र व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में आ गए। 29 अप्रैल 1960 ईस्वी को अपने मृत्युपर्यन्त वह देश की व्यावहारिक राजनीति से बराबर सक्रिय रूप से संबद्ध रहे। ‘नवीन’ जी स्वभाव से अत्यंत उदार, फक्कड़, आवेशी किन्तु मस्त तबियत के आदमी थे। अभिमान और छल से बहुत दूर थे।

बचपन के वैष्णव संस्कार उनमें यावज्जीवन बने रहे। गणेशशंकर विद्यार्थी से सम्पर्क का सहज परिणाम था कि वह उस समय के महत्त्वपूर्ण पत्र ‘प्रताप’ से संबद्ध हो गए थे। 1931 ईस्वी में गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के पश्चात कई वर्षों तक वह ‘प्रताप’ के प्रधान संपादक के रूप में भी कार्य करते रहे। हिंदी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ का संपादन भी उन्होंने 1921-1923 ईस्वी में किया था। जहां तक कृतियों का संबंध है, महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा ने ही कवियों की चिर-उपेक्षिता ‘उर्मिला’ का लेखन उनसे 1921 ईस्वी में प्रारंभ कराया जो पूरा सन 1934 में हुआ एवं प्रकाशित सन 1957 ईस्वी में हुआ। सन 1930 ईस्वी तक वह यद्यपि कवि रूप में यशस्वी हो चुके थे, परंतु पहला कविता संग्रह ‘कुमकुम’ 1936 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है। स्वतंत्रता संग्राम का सबसे कठिन एवं व्यस्त समय आ जाने के कारण ‘नवीन’ बराबर उसी में उलझे रहे। कविताएं उन्होंने बराबर लिखीं, परंतु उनको संकलित कर प्रकाशित कराने की ओर ध्यान नहीं रहा।

रश्मिरेखा भी उनका एक प्रसिद्ध काव्य संग्रह है। इसके अलावा भी उनकी कई रचनाएं हैं। ब्रजभाषा ‘नवीन’ की मातृभाषा थी। उनके प्रत्येक ग्रंथ में ब्रजभाषा के भी कतिपय गीत या छंद मिलते हैं। हिंदी काव्य धारा की द्विवेदी युग के पश्चात जो परिणति छायावाद से हुई है, ‘नवीन’ उसके अंतर्गत नहीं आते। राजनीति के कठोर यथार्थ में उनके लिए शायद यह संभव नहीं था कि वैसी भावुकता, तरलता, अतीन्द्रियता एवं कल्पना के पंख वह बांधते, परंतु इस बात को याद रखना होगा कि उनका काव्य भी स्वच्छंदतावादी (मनोरंजक) आंदोलन का ही प्रकाश है। ‘नवीन’ व मैथिलीशरण गुप्त आदि का काव्य छायावाद के समानांतर संचरण करता हुआ आगे चलकर बच्चन, अंचल, नरेंद्र शर्मा, दिनकर आदि के काव्य में परिणत होता है। काव्यधारा के इस प्रवाह की ओर हिंदी आलोचकों ने अभी तक उपेक्षा का ही भाव रखा है। अस्तु, उनके काव्य में एक ओर राष्ट्रीय संग्राम की कठोर जीवनाभूतियां एवं जागरण के स्वर व्यंजित हुए हैं और दूसरे, सहज मानवीय स्तर (योद्धा से अलग) पर प्रेम-विरह की राग-संवेदनाएं प्रकाश पा सकी हैं। बालकृष्ण शर्मा नवीन को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1960 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनका निधन 29 अप्रैल 1960 ईस्वी में हो गया। आज वह हमारे बीच अपने साहित्य के रूप में जीवित हैं।


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