गहरी चिंता में डूबना

By: Jan 13th, 2024 12:20 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

वह स्वामी विवेकानंद से कहे बिना ही तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। उस समय स्वामी किसी कारणवश कलकत्ता से बाहर गए हुए थे। वहां से आने पर उन्हें शिष्यों के बारे में पता चला कि वह सब मठ छोडक़र गए हुए हैं। स्वामी जी यह सुनकर गहरी चिंता में डूब गए कि कहीं वह लोग किसी विपत्ति में न पड़ जाएं। उन्होंने तुरंत ब्रह्मानंद को बुलाकर पूछा, तुमने उन सबको जाने ही क्यों दिया। अब देखो उन लोगों की वजह से मैं कितना परेशान हूं। उन्होंने बेचैनी व्यक्त करते हुए कहा। थोड़ा समय भी न बीतने पाया था कि तभी एक आदमी ने उनके हाथ में एक पत्र लाकर दिया। उन्होंने देखा त्रिगुणातीतानंद जाते वक्त वह पत्र लिखकर रख गए थे। उसमें लिखा था स्वामी जी, हम पैदल वृंदावन की ओर जा रहे हंै। यहां रहना अब हमारे लिए कठिन हो गया है। कौन जाने कब मन बदल जाए, मैं बीच-बीच में घर परिवार आदि के सपने देखता हूं। मैंने बहुत कुछ सहा है यहां तक कि मुझे दो बार घर वालों से मिलना भी पड़ा है। इसलिए यहां रहना मेरे लिए ठीक नहीं है। मोह माया से छुटकारा पाने के लिए मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। पत्र को पढ़ते ही स्वामी जी गंभीर हो गए। ब्रह्मानंद ने कहा, अब बात समझ में आई कि वो मठ छोडक़र क्यों चला गया। तेजी से हालात बदलते रहे। अखंडानंद हिमालय को पार करके तिब्बत की यात्रा को चले गए। प्रेमानंद जगन्नाथपुरी, सारदानंद अभेदानंद के दर्शनों को तैयार हो गए। ब्रह्मानंद का मठ में दिल न लगा, वो भी इसलिए नर्मदा नदी के किनारे एकांत में निवास करने लगे। सिर्फ रामकृष्ण नंद जी ऐसे थे जो एक दिन के लिए भी मठ को छोडक़र नहीं गए थे।

सन् 1888 में तीर्थ यात्रा की इच्छा के लिए स्वामी जी वराहनगर मठ से बाहर निकले। सर्वप्रथम उन्होंने काशी विश्वनाथ के दर्शनों की सोची। वहां उन्होंने बेशुमार मंदिरों, पवित्र गंगा, यात्रियों, भगवान बुद्ध आदि शंकाराचार्य के प्रचार स्थलों का भ्रमण किया, इससे उनका मन बड़ा आनंदित हुआ था। रास्ते में कुछ बंदर स्वामी जी के पीछे पड़ गए, उनके डर से स्वामी जी दौडऩे लगे। तभी एक संन्यासी ने चिल्लाकर बताया, अरे साधु महाराज इनसे डरो नहीं। सामने डटकर खड़े रहो, वरना और परेशान करेंगे। इतना सुनते ही स्वामी जी खड़े हो गए और निर्भय होकर बंदरों की ओर देखने लगे। इतना करते ही एक-एक करके सारे बंदर भाग गए। सन् 1888 अगस्त के महीने में हाथ में कमंडल लिए ये संन्यासी उत्तरी भारत के कई स्थानों का भ्रमण करते हुए सरयू नदी के किनारे अयोध्या पहुंच गए। अयोध्या संन्यासियों के साथ एक-दो दिन बिताकर स्वामी जी लखनऊ व आगरा होते हुए पैदल ही वृंदावन की ओर चल पड़े।

जब स्वामी जी वृंदावन पहुंचे, तब उनकी नजर मार्ग में बैठे एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो सडक़ के किनारे बैठा तंबाकू पी रहा था। स्वामी जी ने पास जाकर उस आदमी से चिलम मांगी, इस पर वो आदमी डरते हुए बोला, महाराज मैं तो जात का जमादार हूं। इतना सुनते ही स्वामी जी ने अपना हाथ पीछे हटा लिया और आगे की ओर चल दिए। आगे जाकर कुछ दम में दम आया तो मुंह से निकल पड़ा हाय रे मैंने तो अपना सब कुछ त्याग दिया और ये संन्यास ले लिया। फिर उस आदमी के मुंह से जमादार सुनकर मैंने अपना हाथ पीछे क्यों हटाया? उसके हाथ से चिलम मैं क्यों नहीं ले सका। स्वामी जी दोबारा उस आदमी की ओर लौट पड़े। फिर बड़े प्रेम से उससे चिलम भरवाकर धुम्रपान किया। इस बात को वह जीवन में कभी नहीं भुला पाए। बाद में कभी-कभी अपने शिष्यों को समझाने के लिए इस घटना का वर्णन उनके सामने कर दिया करते थे। -क्रमश:


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