हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 40

By: Jan 20th, 2024 7:14 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-40

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
वन विभाग में नौकरी करते हुए स्वयं स्थानांतरित होकर अनेक स्थानों पर सेवा करता रहा। बीस वर्ष पश्चात वह युवती नैरेटर के सरकारी आवास पर आती है और उनके चरणों का स्पर्श करती है और कहती है, ‘मैं शालू, पापा जी।’ वह जिलाधीश बनकर उसके समक्ष उपस्थित होती है। नैरेटर को शालू के जिलाधीश बनने पर अभूतपूर्व संतोष, परमानंद और अलौकिक शांति मन में व्याप्त होती है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने वनों के विनाश में तस्करों के विध्वंसकारी इरादों को भी अनावृत्त किया है। ‘किस्सा प्रमोशन’ में सत्यव्रत के विभाग की कार्य पद्धति, उत्तरदायित्वहीनता, कत्र्तव्य विमुखता और राजनीतिक क्षेत्र में बाबुओं की पहुंच, ओच्छी मानसिकता का चित्रण है, जिसके कारण वह बिना पदोन्नति के सेवानिवृत्त हो जाता है। ‘वह एक शाम’ में अब्दुल और विनय की मैत्री, अब्दुल की पत्नी की सहनशीलता, सेवा, विनयशीलता को चित्रित किया है। अब्दुल मदिरा के दुव्र्यसन में पडक़र अपने जीवन को बर्बाद करता है और मृत्यु के कगार पर पहुंचता है। उसके मित्र विनय को जब ज्ञात होता है तो वह उसकी जिंदगी बदलने के लिए बीमारी की अवस्था में उसके पास आता है। शराब का आदी बनकर अब्दुल परिवार को दरिद्रता में परिवर्तित कर देता है। सभी मित्र साथ छोड़ जाते हैं, परंतु विनय वर्षों के अंतराल के अनंतर मित्र की बीमारी के संबंध में सुनकर उसके पास पहुंचता है। उसके दुव्र्यसन को छुड़वाने में सहायक होता है और निस्वार्थ भाव से उसकी मदद करता है। ‘चुनाव रम गम और हम’ शीर्षक कहानी में चुनाव के समय प्रत्याशियों की मतदाताओं को लुभाने के लिए भ्रष्ट तरीकों को अनावृत किया है।

मतदाता सूचियों की अनियमितताओं, किसी के स्थान पर दूसरे व्यक्ति द्वारा धोखे से मतदान करने की विकृतियों को प्रस्तुत कहानी सामने लाती है। शैलेंद्र और उसके मित्र जैसे अनेक मतदाता इस प्रकार की स्थितियों के कारण मताधिकारों से वंचित रह जाते हैं। ‘रिटायरमेंट’ कहानी में दो अधिकारियों की कार्य पद्धति, जीवन शैली और प्रकृति को कहानीकार ने निरूपित किया है। एक अधिकारी जो अपने सभी अधीनस्थ कर्मियों के प्रति संवेदनशीलता रखता है, उसकी सेवानिवृत्ति के अनंतर भी वे सदैव उसे स्मरण रखते हैं। दूसरा अधिकारी जिसकी प्रकृति अधीनस्थ कर्मियों को दमित करने, शोषित और प्रताडि़त करने की होती है, उसकी रिटायरमेंट के बाद की दुर्गति को भी यह कहानी रूपायित करती है। ‘बेनाम रिश्ते’ कहानी में देश विभाजन के समय की विषम, भयावह और दुखद स्थितियों का निरूपण करते हुए कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि देश की साझी संस्कृति में आस्था रखने वाले लोग कट्टर सांप्रदायिक परिवेश, नरसंहार के समय मौजूद थे जिनकी वजह से हरदीप और उसके परिवार जैसे लोगों को लाहौर की सीमा से निकलकर भारत की सरहदों पर सुरक्षित लौटाने में सहायक हुए थे। इस विस्थापन के कारण परिवार जिन परिस्थितियों से गुजरे, उनका यह कहानी संकेत करती है। हरदीप जैसे अनेक लोग थे जो परिवारों सहित भारत लौटे थे और उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं था कि कहां और क्या करेंगे। हरदीप पहाड़ी क्षेत्र में पहुंचता है, जहां काशीराम कडक़ सर्दी में उसे घर ले जाकर आश्रय देता है। हरदीप की दुखद गाथा सुनकर वह उसे न केवल आश्रय देता है, अपितु दुकान का कारोबार चलाने में उसका सहायक होता है।

कहानी में चौरासी के दंगों में हरदीप के बेटे के आतंकवादियों में सम्मिलित होने और दिग्भ्रमित स्थिति से उबरने की स्थितियों का निरूपण है। हरदीप और काशीराम का अनाम और संज्ञाहीन रिश्ता सुदृढ़ होता है। ‘वापसी’ कहानी में विनय और संगीता के दांपत्य संबंधों में आई कटुता के कारणों की तलाश करते हुए कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि भौतिक समृद्धि की अंधी दौड़ में व्यक्ति चाहता है कि वह अधिकाधिक समृद्ध होकर सुख-सुविधाओं को भोगे सके। यही कारण है कि विनय की पत्नी अपने भाइयों के बहकावे में आकर अपने अधिकारी पति को जो अपने कत्र्तव्य के लिए समर्पित है, उसे फैक्टरी लगाने के लिए कहती है। परंतु विनय अपने आदर्शों और देश सेवा के भाव को जीवन मूल्य मान कर कत्र्तव्य पथ पर अग्रसर होता है। इस कारण दोनों के संबंधों में कड़वाहट ही नहीं आती, अपितु विनय अंतत: दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्र में जाने का विकल्प देता है। ऐसे समय में संगीता की प्रेम भावना एकाकी जीवन को लेकर उमड़ती है और वह विनय को लौट आने के लिए कहती है। अंतत: उनका दांपत्य पुन: समरसता की स्थिति तक पहुंचता है। दीनदयाल वर्मा की प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में निजी अनुभवों की प्रामाणिक अभिव्यंजना है। उन्होंने निकट परिवेश के कथा सूत्रों को स्वाभाविक शैली में अभिव्यंजित किया है। कहानियां उद्देश्यपरक, प्रयोजन मूलक और प्रेरणादायी हैं और समकालीन जीवन के यथार्थ को निरूपित करती हैं।

उषा आनंद का ‘एक चट्टान अकेली सी’ (1999) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। इसमें पंद्रह कहानियां- नरगिस के फूल, अपनी जिंदगी, एक नई सुबह, एक चट्टान अकेली सी, अपनों से अपनों तक, जीवन-दीप, खामोश गवाही, नई दिशा, तीसरा रास्ता, सूरज की पहली किरण, धुंध छंट गई, मंजिल एक राहें अनेक, दर्द का अंकुर, रिश्ते अपने-अपने और फूल मुस्कुराते रहें संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियां प्रमुख रूप में नारी जीवन की विडंबनाओं पर केंद्रित हैं। इनमें स्त्री-पुरुष समानता का स्वर मुखर हुआ है। वस्तुत: इन कहानियों में नारी मुक्ति का स्वर प्रमुख रूप में उभरा है। पुरुष वर्चस्ववादी समाज में नारी उत्पीडऩ, नर-नारी संबंधों का यथार्थ, दांपत्य संबंधों की दरकन और टूटन की स्थितियों का निरूपण है। कहानियों का कथ्य घर परिवार में नारी नियति से संबद्ध अनेक प्रश्नों को उठाता है जिसमें पुरुष के विश्वासघात और उत्पीडऩ की शिकार नारी होती है। परंतु उनके नारी पात्र परिस्थितियों के समक्ष झुकते नहीं एवं स्वाभिमान को बनाए रखते हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की व्यथा कथा सामाजिक सरोकारों की व्यंजना करती है। ‘एक चट्टान अकेली सी’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने सुधा की एक सबल चरित्र के रूप में सृष्टि की है। सुधा का विशाल को वरण करने का निर्णय निजी होता है। माता-पिता भी इकलौती संतान के निर्णय से सहमत होते हैं। परंतु पति विश्वासघात कर विदेश चला जाता है और सुधा और उसकी नन्ही बेटी रिचा को अकेले छोड़ जाता है। सुधा जीवन के घात प्रतिघातों को सहन कर संघर्ष करती है और आईएएस अधिकारी बनती है और बेटी को भी पढ़ा लिखा कर उसका विवाह करती है। विवाह के अवसर पर वर्षों के अंतराल के बाद अचानक विशाल उस समय घर लौटता है, जब बेटी रिचा के विवाह का दिन होता है। बेटी के कन्यादान का प्रश्न उत्पन्न होता है, बुआ जब सपत्नीक कन्या दान के लिए कहती है तो बेटी रिचा कहती है कन्यादान और कोई नहीं करेगा, केवल मां करेगी।

विशाल के अपमानित चेहरे को देखने का अवसर विवाह उत्सव में किसी को नहीं होता। ‘अपनों से अपनों तक’ शीर्षक कहानी में दीपा पति और और अपने भाई दोनों के पिता की मृत्यु के बाद धन संपत्ति के लिए लोभी दृष्टिकोण को अनावृत किया है। पति कहता है कि मायके की संपत्ति में बेटी का भी अधिकार होता है, इसलिए किसी भी हालत में उसे संपत्ति में हिस्सा अवश्य लेना चाहिए। भाई अपनी बहन से कागजों पर हस्ताक्षर करवा कर सारी संपत्ति अपने नाम लिखवाना चाहता है। परंतु बेटी पिता की एक निशानी को लेकर घर लौटती है। ‘मंजिल एक राहें अनेक’ कहानी में घर में काम करने वाली स्त्री कमली के प्रति मालकिन के अमानवीय व्यवहार को रेखांकित किया है। कमली का पति रिक्शा चलाता हुआ दुर्घटनाग्रस्त होकर अपाहिज हो जाता है। पत्नी पर पति और बच्चों के पालन पोषण का दायित्व आ जाता है। कमली परिवार के पालन पोषण के लिए किसी के घर में काम करती है। उसका बच्चा मालकिन का फूलदान तोड़ देता है। मालकिन उसकी पगार में से तीस रुपए काटकर देती है और यह भी हिदायत देती है कि कल से बच्चे को साथ मत लाना। वह मालकिन की शोषण की शिकार नहीं होना चाहती, वह उसे साफ शब्दों में कहती है कि वह कल से नहीं आएगी। कमली के कदम फिर एक ऐसे घर की तलाश की ओर बढ़ते हैं जहां कुछ और न सही उसके मुन्ना के लिए थोड़ा प्यार तो हो। ‘दर्द का अंकुर’ कहानी में मिसेज प्रभाकर नारी कल्याण संस्था में काम करती है। कहानीकार ने इस कहानी में दहेज और दहेज की विभीषिका और नारी उत्पीडऩ विषयक अनेक प्रश्नों को उठाया है। ‘धुंध छंट गई’ शीर्षक कहानी में बेटी को अपनी मां के प्रति नफरत है कि मां ने शैशव काल में उसे निरीह छोडक़र आत्महत्या क्यों की। उस समय पिता ने दूसरा विवाह कर गृहस्थी बसा ली। बेटी का दादी ने पालन पोषण और विवाह किया। विवाह के पश्चात उसे पति के दुव्र्यसनी और दुराचारी होने का बोध होता है, साथ अपने ऊपर किए जाने वाले अत्याचारों से भी वह दुखी होती है। अंतत: वह आत्महत्या करने का निर्णय लेती है, परंतु अपने इस कदम के क्षण में अपनी तीन वर्ष की नन्हीं बेटी नेहा की चीख सुनकर वह आत्महत्या के निर्णय को परिवर्तित कर देती है। उस समय वह अपनी मां के संबंध में सोचती है। उसे यह बोध होता है कि मां की भी कुछ ऐसी ही दुखद मनोदशा रही होगी जिसकी वजह से वह आत्महत्या कर बैठी होगी। इस प्रकार वर्षों से मां के प्रति नफरत की भावना उसके ह्रदय में परिवर्तित हो जाती है और नफरत की धुंध छंट जाती है। ‘सूरज की पहली किरण’ में सोमा काकी है जिसका पति सेना में विवाह के दो वर्ष के बाद ही शहीद हो गया था और सूरज ही उसका अवलंबन था। उसकी परवरिश में वह जीवन लगा देती है। जब सूरज का विवाह होता है, उस समय जब वह सूरज और नवविवाहित बहू किरण की आरती उतारने विवाह उत्सव में उद्यत होती है तो गांव की औरतें विधवा को मांगलिक कार्य में निषेध मानती हैं। परंतु सूरज और किरण दोनों कहते हैं कि केवल मां ही आरती उतारेगी। प्रस्तुत कहानी में कहानीकार विधवा के संबंध में बनी समाज की इस तरह की निरर्थक धारणाओं का खंडन करती है।

विवेच्य अवधि में रोशन लाल संदेश का ‘घाटी की महक’, मदन गुप्ता स्पाटु का ‘नीड़ की ओर’, महेश चंद्र सक्सेना का ‘चमकते जुगनू’, लक्ष्मण का ‘यह कैसा अतीत’, अरुण भारती का ‘औरत तथा अन्य कहानियां’, सुदर्शन भाटिया के ‘खजूर पर अटका’, ‘विस्फोट’, ‘युगों युगों तक’ और ‘रिश्तों की कसक’ आदि कुछ उल्लेखनीय कहानी संग्रह प्रकाशित हैं जो हिमाचल की हिंदी कहानी को समृद्ध कर रहे हैं। कुछ अन्य कहानीकार हैं जिनकी कहानियां विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में कुछ ऐसे भी कहानीकार हैं जिनके स्वतंत्र रूप में कहानी संग्रह तो नहीं आए, परंतु वे निरंतर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानी सृजन के माध्यम से कहानी साहित्य को समृद्ध करते रहे हैं।                                                                                                       – (शेष भाग अगले अंक में)

दोहे

मर कर तू माटी हुआ, माटी पेड़ उभार।
पत्ता बकरी पेट में, बकरी चाकू धार।।
नागों की पूजा करे, काहे अपनी छोड़।
गरल धराए दांत में, अपना मूंड मरोड़।।
खाली बैठा क्या करे, अपनी खाल उतार।
छिपे भेड़ की खाल में, बघ्घे और सियार।।
राम वहां पहुंचे नहीं, मन में गहरी पीर।
बगुले सारे पहुंच गए, लगी अवध में भीर।।
अवध-गोधरा जो मरे, कौन मनावे सोग।
पीप बहे नासूर से, गहरा सत्ता रोग।।
खाने को रोटी नहीं, ना हाथों में काम।
कूकर भूखे न मरें, सबके दाता राम।।
भूखे पेट भजन करें, रोटी दीखे राम।
मंडी सस्ते राम बिकें, रोटी महंगे दाम।।
मन्दिर में अल्लाह बसें, मस्जिद बसते राम।
पण्डित-मुल्ला भिड़े हुए, नंगे लोग तमाम।।
रामा तेरे राज में, कैसी मची अंधेर।
अल्लाह तो बेघर फिरे, तू सोने के ढेर।।
बैठे-बैठे सोचते, रामा सरयू तीर।
न तुलसी न मारूत हैं, असुर भरे हैं भीर।।
हिरदय जो उतरी नहीं, राम नाम की पीर।
तरकश टूटे तीर लिए, तू काहे का मीर।।
जूठे बेर शबरी के, भरे प्रेम के रस।
राम-राम में रमे हुए, राम-राम के बस।।
कौए सारे जीम रहे, राम नाम का भोग।
अस्मत का तडक़ा लगे, धरम-शरम का चोग।।
रावण के दरबार में, पड़े अकेले राम।
देख अवध में कील दिए, कण-कण में जो राम।।
राम राज के तीन गुण, छल बल भ्रष्टाचार।
पांच किलो राशन मिले, जीवन चले उधार।।
जनता के दरबार में, रहे निगौड़े राम।
आम कहीं बिकते नहीं, गुठली मांगे दाम।।
धीरे-धीरे गल रही, तीन हाथ की देह।
राम नाम की चाटनी, काहे मले न गेह।।
तुझसे तो रंडी भली, बेचे केवल देह।
तूने राम बेच दिया, सत्ता सुख के नेह।।
सत्ता जब से हरम हुई, धरम हो गया खेल।
असुरों के बाजार में, रहे राम को पेल।।
-अजय पाराशर

जयंती विशेष : जयशंकर प्रसाद : छायावाद के प्रमुख स्तंभ

जयशंकर प्रसाद (जन्म : 30 जनवरी 1889, मृत्यु : 15 नवम्बर 1937) हिंदी नाट्य जगत और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम थे। जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे, उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कवि के पितामह शिव रत्न साहु वाराणसी के प्रतिष्ठित नागरिक थे। जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरंभ हुई। संस्कृत, हिंदी, फारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। इनमें रसमय सिद्ध प्रमुख थे। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के लिए दीनबंधु ब्रह्मचारी शिक्षक थे। कुछ समय के बाद स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में प्रसाद का नाम लिख दिया गया, पर यहां पर वह आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। प्रसाद एक अध्यवसायी व्यक्ति थे और नियमित रूप से अध्ययन करते थे।

प्रसाद की बारह वर्ष की अवस्था थी, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इसी के बाद परिवार में गृहक्लेश आरम्भ हुआ और पैतृक व्यवसाय को इतनी क्षति पहुंची कि जो परिवार वैभव में लोटता था, ऋण के भार से दब गया। पिता की मृत्यु के दो-तीन वर्षों के भीतर ही प्रसाद की माता का भी देहांत हो गया और सबसे दुर्भाग्य का दिन वह आया, जब उनके ज्येष्ठ भ्राता शम्भूरतन चल बसे तथा सत्रह वर्ष की अवस्था में ही प्रसाद को एक भारी उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ा। प्रसाद का अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता था। उन्होंने अपने जीवन में केवल तीन-चार बार यात्राएं की थी, जिनकी छाया उनकी कतिपय रचनाओं में प्राप्त हो जाती है। प्रसाद को काव्यसृष्टि की आरम्भिक प्रेरणा घर पर होने वाली समस्या पूर्तियों से प्राप्त हुई, जो विद्वानों की मंडली में उस समय प्रचलित थी। प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबंध, सभी में उनकी गति समान है। किंतु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुत: एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिए अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है। उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं।

अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए, न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आंतरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर देता है। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास- सभी क्षेत्रों में प्रसाद जी एक नवीन ‘स्कूल’ और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुए हैं। वह छायावाद के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिए जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं। कहा जाता है कि नौ वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कलाधर’ उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरु रसमयसिद्ध को दिखाया था। उनकी आरम्भिक रचनाएं यद्यपि ब्रजभाषा में मिलती हैं, पर क्रमश: वह खड़ी बोली को अपनाते गए और इस समय उनकी ब्रजभाषा की जो रचनाएं उपलब्ध हैं, उनका महत्त्व केवल ऐतिहासिक ही है। प्रसाद की ही प्रेरणा से 1909 ईस्वी में उनके भांजे अम्बिका प्रसाद गुप्त के सम्पादकत्व में ‘इन्दु’ नामक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। प्रसाद इसमें नियमित रूप से लिखते रहे और उनकी आरम्भिक रचनाएं इसी के अंकों में देखी जा सकती हैं। प्रसाद जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है : कामायनी। कामायनी महाकाव्य कवि प्रसाद की अक्षय कीर्ति का स्तम्भ है। आंसू : आंसू कवि के मर्मस्पर्शी वियोगपरक उदगारों का प्रस्तुतीकरण है। लहर : यह मुक्तक रचनाओं का संग्रह है। झरना : प्रसाद जी की छायावादी शैली में रचित कविताएं इसमें संग्रहीत हैं। चित्राधार : चित्राधार प्रसाद जी की ब्रज में रची गयी कविताओं का संग्रह है। गद्य रचनाएं : प्रसाद जी की प्रमुख गद्य रचनाएं निम्नलिखित हैं : नाटक : चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कन्दगुप्त, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूंट, विशाख, अजातशत्रु आदि। कहानी संग्रह : प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आंधी तथा इन्द्रजाल उनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास : तितली और कंकाल। निबंध : काव्य और कला। अन्य रचनाएं : अन्य कविताओं में विनय, प्रकृति, प्रेम तथा सामाजिक भावनाएं हैं। ‘कानन कुसुम’ में प्रसाद ने अनुभूति और अभिव्यक्ति की नई दिशाएं खोजने का प्रयत्न किया है। इसके अनंतर कथाकाव्यों का समय आया है। प्रेम पथिक का ब्रजभाषा स्वरूप सबसे पहले ‘इन्दू’ (1909 ईस्वी) में प्रकाशित हुआ था और बाद में कवि ने इसे खड़ीबोली में रूपांतरित किया।

प्रसाद जी की रचनाओं में जीवन का विशाल क्षेत्र समाहित हुआ है। प्रेम, सौंदर्य, देश-प्रेम, रहस्यानुभूति, दर्शन, प्रकृति चित्रण और धर्म आदि विविध विषयों को अभिनव और आकर्षक भंगिमा के साथ उन्होंने काव्यप्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। ये सभी विषय कवि की शैली और भाषा की असाधारणता के कारण अछूते रूप में सामने आए हैं। प्रसाद जी के काव्य साहित्य में प्राचीन भारतीय संस्कृति की गरिमा और भव्यता बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत हुई है। नाटकों के गीत तथा रचनाएं भारतीय जीवन मूल्यों को बड़ी शालीनता से उपस्थित करती हैं। प्रसाद जी ने राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान को अपने साहित्य में सर्वत्र स्थान दिया है। अनेक रचनाएं राष्ट्र प्रेम की उत्कृष्ट भावना जगाने वाली हैं। प्रसाद जी ने प्रकृति के विविध पक्षों को बड़ी सजीवता से चित्रित किया है। प्रकृति के सौम्य-सुंदर और विकृत-भयानक, दोनों स्वरूप उनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं।

पहाड़ी कविता : गरीब दी हालत

गरीब दी हालत माड़ी ए।
नीं निंदर पौंदी गाहढ़ी ए।।
भई मैले कुचैले कपड़े न,
कनैं राम लकीरां जकड़े न,
सैह् अमीर गलांदा फफड़े न,
तां तड़ तड़ बजदी ताड़ी ए।।
अमीरी-गरीबी के चीज न,
शोषण चक्कियां दे मरीज न।
कनै इक फल दे दो बीज न,
अरब-बंग जिह्यां खाड़ी ए।
घरे च जेकर खाणा मुक्कै,
थर-थर देई उधारां चुक्कै।
अप्पू निगलै अप्पू थुक्कै,
एह् हालत तिद्दी माड़ी ए।
दो डंग नैंई रोटी जुड़दी,
सस्सू ते नूंह् रैहंदी कुढ़दी।
छत्त उआने दी बी चुड़दी,
जे बरखा पौंदी भारी ए।।
सुण सत्त निआणे टपके नैं,
सैह पींदा भर भर भपके नैं।
जे सूटा लाया बडक़े नैं,
तां लड़-लड़ लड़ दी लाड़ी ए।।
इक फीस-कताबां मंग्गा दा,
इक पुडिय़ा बाझी लंग्घा दा।
इक खड़पा बणियै डंग्गा दा,
इक कलेया दी पटारी ए।।
इक भुक्खा-नंगा संग्गा दा,
इक अधिया राती खंग्घा दा।
इक पुत्तर पांडा गंगा दा,
झट खाली करै पटारी ए।।
– नवीन हलदूणवी


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