प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार

आखिर क्या कारण हैं कि एक ही पद तथा एक ही वेतनमान पर कार्यरत एक ईमानदार व एक भ्रष्ट कर्मी का जीवन स्तर न केवल अलग-अलग होता है, बल्कि एक कम वेतनमान वाले कर्मी का आलीशान बंगला व अन्य सुख-सुविधाएं दूसरे से कहीं अधिक होती हंै…

भारतीय प्रशासन में सच्चरित्रता तथा नैतिकता की स्थापना करना एक विषम समस्या है। ऐसा भ्रष्टाचार परम्परागत व विश्वव्यापी है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता तथा केवल कुछ सीमा तक इसे कम जरूर किया जा सकता है। कौटिल्य ने कहा है कि सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा सरकारी धन का दुरुपयोग न करना उसी तरह से संभव है जिस तरह जीभ पर रखे शहद को न चखना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर है जिसकी लोक कथाओं के किस्से ऐतिहासिक दस्तावेजों तक चर्चित रहे हैं। वास्तव में राजनीति व राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार के जन्मदाता हैं तथा उनके ही संरक्षण में पल कर प्रशासनिक अधिकारी अनैतिकता का काम करते हंै। वास्तव में भ्रष्टाचार का जन्म सत्ता के ऊंचे शिखरों से आरम्भ होता है जो धीरे-धीरे पूरे तन्त्र में रिस जाता है तथा इस अमररूपी बेल को राजनीतिज्ञों व उच्च प्रशासनिक अधिकरियों द्वारा पाला व पोसा जाता है। आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुख सुविधाएं स्वयं व परिवार के लिए जुटाना चाहता है। ऊंचा ठाठ-बाठ बनाए रखना वस्तुत: प्रतिष्ठा का परिचायक बन चुका है।

वेतनभोगियों की आय तो सीमित होती है, मगर वे भ्रष्ट साधनों से अतिरिक्त आय जुटाने में लगे रहते हैं। यद्यपि सरकार ने वेतनभोगियों के भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाने के लिए कई नियम व कानून बना रखे हैं, मगर इन सबके बावजूद ऐसे भ्रष्ट लोग कानूनों से बचने में सफल हो जाते हैं। कितनी विडंबना है कि राजनीतिज्ञों ने विभिन्न कार्पोरेट के लोगों से अपनी पार्टियों को चलाने के लिए इलैक्ट्रोल बॉन्ड की खरीदो-फरोख्त करने की न केवल इजाजत दे रखी थी, बल्कि इस धन को आयकर से भी बाहर कर रखा था तथा इसी तरह कोई भी व्यक्ति इस सम्बन्ध में सूचना भी प्राप्त नहीं कर सकता था। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस मक्कडज़ाल को तोड़ा है तथा भ्रष्टाचार के इस अवैध मार्ग को परास्त किया है। वास्तव में राजनीतिज्ञ प्रशासन को अपने हाथ में लेकर अपनी स्वार्थपूर्ण नीतियों व नियमों को बनाते रहते हंै। उस समय में आरबीआई के गवर्नर रहे अर्जित पटेल ने चुनाव आयोग को आगाह किया था कि यह स्कीम मनी लॉन्डरिंग को बढ़ावा देगी जोकि देश के हित में नहीं होगा। मगर पिंजरे का तोता चुनाव आयोग इस सम्बन्ध में कुछ न कर सका तथा चुप्पी साधे बैठे रहा। भ्रष्टाचार को तो मानो सामाजिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है। पैसा व प्रतिष्ठा तो अब एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। पांच-चार हजार की रिश्वत तो चाय पानी के रूप में ही मानी जाती है। प्रशासन में छोटी छोटी अनियमितताएं अब स्वाभाविक प्रक्रियाएं मान ली जाती हैं। जो व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी करता है उसे असामाजिक व्यक्ति माना जाता है। प्रशासनिक कार्यों में नैतिकता समाहित करने के लिए कई सस्थाएं बनाई गई हैं, मगर वे भी आम तौर पर निष्क्रिय ही पाई जाती हैं। सतर्कता विभाग, भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाएं, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो, पुलिस का गुप्तचर विभाग, लेखा परीक्षण तथा लोकायुक्त सहित सभी विभाग पूर्णत: क्रियाशील व प्रभावी नहीं हो पा रहे हंै।

उधर हमारी न्यायिक व्यवस्था भी इतनी जटिल है कि अपराधी किसी न किसी बहाने छूटने में सफल हो जाते हैं। अधिकतर देखा गया है कि बड़े अधिकारियों को पकडऩा मुश्किल होता है तथा छोटे मोटे कर्मियों जैसे कि पटवारी, कानूनगो, वन रक्षक या फिर क्लर्क इत्यादि लोगों को पकडक़र ये सारे विभाग अपना टारगेट पूरा करते रहते हंै। वास्तव में प्रशासनिक वेतनभोगियों को बचाने के लिए हमारे कानून ने एक बहुत बड़ा बचाव व संरक्षण का तरीका समाहित कर रखा है। भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 197 के अन्तर्गत किसी भी न्यायाधीश या लोकसेवक द्वारा यदि कोई भ्रष्ट आचरण किया जाता है तथा अमुक व्यक्ति पुलिस द्वारा पकड़ भी लिया जाता है, तब भी पुलिस को ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध चालान को न्यायालय में भेजने से पहले उस व्यक्ति के नियुक्त अधिकारी से अभियोजन की स्वीकृति लेना आवश्यक है। आम तौर पाया गया है कि भ्रष्ट उच्चाधिकारियों की स्वीकृति को टाले रखा जाता है तथा कई वर्षों तक यह खेल चलता रहता है। तदोपरान्त एक समय के बाद उस चालान की न्यायालय में भेजने की समय सीमा समाप्त हो जाती है, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में कई बार निर्णय दे रखे हंै कि भ्रष्टाचार करना किसी कर्मचारी का आधिकारिक कार्य का हिस्सा नहीं है तथा कि ऐसे मामलों में चालान को बिना स्वीकृति के ही न्यायालय में भेजा जा सकता है, मगर फिर भी देखा गया है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी इस कानूनी धारा का लाभ उठा कर सजा से बचते रहते हैं। विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण को रोकने की जिम्मेदारी तो उनके अपने विभाग की ही होनी चाहिए, मगर चोर चोर मौसेरे भाई की उक्ति की पालना करते हुए आम तौर पर अधिकारी चुप्पी साधे रखते हैं तथा यह सारा कार्य पुलिस को ही करना पड़ता है।

जब सारा तन्त्र ही भ्रष्ट हो, तब पुलिसमैन भी कोई ऐसा फरिश्ता या अली बाबा नहीं हो सकता जो ऐसे भ्रष्ट कर्मचारियों को पकडऩे में सक्षम हो पाए। यह भी देखा गया है कि भ्रष्ट कर्मियों द्वारा अज्ञात स्त्रोतों से बनाई गई सम्पत्ति की जांच नहीं की जाती तथा वे देखने में ईमानदार ही लगते हैं, जबकि उन्होंने न जाने कितने करोड़ों की सम्पत्ति कई स्थानों पर अपने रिश्तेदारों या फिर चहेतों के नाम पर बना रखी होती है। इसी तरह ऐसे भ्रष्ट अधिकारी लाखों करोड़ों रुपए अपने बच्चों की पढ़ाई या उनके विवाह पर खर्च करते पाए जाते हैं तथा अपनी दो नम्बर की कमाई का किसी भी पुलिस तन्त्र को पता ही नहीं लगने देते। आखिर क्या कारण हैं कि एक ही पद तथा एक ही वेतनमान पर कार्यरत एक ईमानदार व एक भ्रष्ट कर्मी का जीवन स्तर न केवल अलग-अलग होता है बल्कि एक कम वेतनमान वाले कर्मी का आलीशान बंगला व उसकी अन्य सुख सुविधाएं दूसरे से कहीं अधिक होती हंै। वास्तव में अधिकांश व्यक्ति नौकरशाही की कार्यप्रणाली, कठोर नियमों तथा जटिल प्रक्रियाओं से घिरी होने के कारण अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक सम्पादित करवाने हेतु घूस देना पसन्द करते हैं तथा कर्मचारियों की यह प्रवृत्ति बन गई है कि बिना घूस के कार्यों को आम तौर पर नहीं किया जाता।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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