भारतीय अवसरवादी पार्टी…

By: Mar 29th, 2024 12:05 am

देश के वर्तमान हालात को देखकर ‘भारतीय अवसरवादी पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल बनाए जाने की आवश्यकता है। वैसे तो हमारे यहां सभी दल अवसरवादी हैं, परंतु अब जो दल बने, वह खुले रूप से ही अवसरवाद का नारा देकर सत्तारूढ़ हो तो भारतीय जनता को किसी प्रकार का मुगालता भी नहीं रहेगा तथा अफसोस भी नहीं होगा। अवसरवाद का भारतीय राजनीति में सदैव ही बड़ा बोलबाला रहा है, इसलिए सामयिक आवश्यकता के रूप में अवसरवाद को राजनेताओं को खुले रूप में अपना लेना चाहिए। अब कथनी-करनी के फर्क का भी महत्त्व नहीं रहा है। ‘कहो कुछ-करो कुछ’ पर अब कोई पाबंदी नहीं है, और न ही कोई दबाव है। असंतोष तो जनता को केवल इतना-सा होता है कि उसके साथ धोखा क्यों किया। धोखा खाने को जनता तैयार है, परंतु कहकर धोखा खाना अब वह पसंद करने लगी है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति इस समय ‘भारतीय अवसरवादी पार्टी’ का गठन कर ले तो उसका सितारा चमक उठे तथा वही देश का कर्णधार भी बने, क्योंकि सत्य बोलने वाले पर हमारे देश की जनता फिदा है। अखिल भारतीय अवसरवादी पार्टी का औपचारिक संविधान बनाने की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि अवसरवाद में किसी प्रकार के नियम-अधिनियम के निर्माण की जरूरत है ही नहीं।

संविधान तो जो देश का है, वह उसी का पालन कर ले, यही बड़ी बात है। अवसरवाद हमारी नियति है और हमें अवसरवाद से मुंह नहीं मोडऩा चाहिए। अवसरवाद समय की मांग है और मांग पूरी हो गई तो देश का कल्याण फिर संदिग्ध नहीं है। अब तक हो तो यह रहा है कि लोग बातें बड़ी-बड़ी करते रहे, परंतु करने के नाम पर हरिनाम और दगाबाजी। अवसरवादी पार्टी को दगाबाजी विरासत में मिलेगी तथा उसके मूलभूत सिद्धांतों में होगी तो किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। अवसरवाद हमारी रगों में खून बनकर बह रहा है। उसे अब भीतर नहीं रखना, अपितु बाहर लाना है। अवसरवाद की फसल लहलहाए, इससे बड़ी और फख्र की बात हमारे लिए क्या हो सकती है? अवसरवाद की जय-जयकार आजादी के बाद खूब हुई है। भारतीय अवसरवाद की मिसाल विश्व के दूसरे राष्ट्रों में भी देखने को नहीं मिलेगी। हमारी टक्कर का अवसरवाद अन्यत्र दुर्लभ है। भारतीय राजनीति में जो उलटफेर हुआ है तथा नई पार्टी सत्ता में आई तो जन विश्वास आश्वस्त हुआ था कि अब ‘मोनोपोली’ खत्म होगी तथा वास्तविक जनतंत्र बहाल होगा, परंतु हुआ वही ढाक के तीन पात।

जिस दल को हटाकर नए दल को वोट देने की बात का बवेला मचा, वह बात मूल रूप में बेमानी सिद्ध हो गई। नए सत्तारूढ़ लोग भी वही करने लगे जो पहले वाले करते थे। पहले वालों पर आरोप थे, वही इन पर भी लगाए जा रहे हैं। वोट बटोरने तथा आरक्षित करने के वही घटिया पैंतरे, चाहे धार्मिक, जात-पांत अथवा बोली भाषा से मिले, वही अपनाए जाने लगे। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके सरकार ने अपने पक्ष में प्रबल जनसमर्थन का एक दिवास्वप्न देखा। अब चाहे देश सुलग उठा है, परंतु नियामकों को इससे क्या, उन्होंने तो वोट सिक्योर करने के लिए पासा मारा था, जो चित्त हो गया है।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक


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