इंतजार, अभी और इंतजार…

By: Mar 7th, 2024 12:05 am

चुनाव करीब हैं और नेता जी अपने शासनकाल की सफलता का लेखा-जोखा करने चले हैं। पिछली बार जब चुनाव जीते थे, उन्होंने वायदों के लाल गालीचे बिछा दिए थे। कहा था, वायदे का पक्का हूं, अपने शासनकाल में एक भी आदमी भूख से मरने नहीं दूंगा। एक भी बेकार को नौकरी के लिए छटपटाने नहीं दूंगा। लोगों के दफ्तरी काम चौबीस घंटे में करवा देने का वायदा तो पुरानी बात है, अब नई बात यह कि सरकारी कारिंदा आपके घर से आपके काम की गुजारिश नहीं, आप से काम का हुक्म लेकर जाएगा, और काम पूरा करने की सूचना सरकारी हस्ताक्षर सहित आपके घर पहुंचा कर दम लेगा। यह वायदा केवल एक सूबे से नहीं मिला था, जहां-जहां जिस सूबे में नए चुनाव की दुदुंभि बजी, वहां-वहां बेचारे लोगों (जो अब चुनाव के करीब जनता जनार्दन कहलाए जा रहे थे) ने पाया कि लगभग हर चुनाव में उतरे सूबे के गद्दीधारकों ने कम-ज्यादा ऐसे ही वचन देकर पिछली चुनावी महाभारत जीती थी। अब फिर जीतना चाहते थे। ऐसा होता है, सदा ही ऐसे होता है। वायदों की अधूरी इमारत को अधर में लटका नई इमारत की नींव रख दी जाती है। वोट पड़ गए तो अधूरी इमारतें अपनी कहानी सुनाने के लिए श्रोता भी तलाश नहीं कर पाती। आधी छोड़ पूरी की ओर भागे, दुविधा में दोनों गए, न माया मिली न राम। नहीं, यहां यह बात फिट नहीं बैठेगी। यहां तो अधूरी इमारतों, अधूरे वचनों की बारात सजी है। मतदाता को दूल्हा बनने का अवसर मिलता है, सिर्फ मतदान दिवस पर। उसके बाद तो वह पांच बरस अपनी खो गई बारात, या शुरू हो गई बैंड, बाजा और बारात ही तलाशता रहता है।

लेकिन जिन्होंने वायदा किया था, उन्होंने पूरी वायदाखिलाफी की हो, ऐसा अंधेर भी नहीं है। जगह-जगह आपको खुदी हुई सडक़ें, अधूरे बने पुल आज भी अपनी अपूर्णता का रोना रोते नजर आते हैं। जैसे कहते हों, देखो वचन देने वालों की नीयत में खोट नहीं था। अब बीच में सौदा पटाने वाला दलाल या ठेकेदार ही छूमंतर हो गया। उसे घर से मना कर लाने से तो रहे। क्या करें, कभी मालिक की नीयत में खोट हो गया, कभी कामगार ने मुंह फेर लिया। पास करने वाले अफसर की नाक के नीचे हमारी पेश की गई डाली नहीं आई, तब काम तो रुकना ही रुकना था। फिर अभी अगले चुनाव भी तो कोसों दूर थे, बस नेताओं को इस परिवार पोषण का मर्ज और जनता के प्रति स्मृति भ्रम का रोग हो गया। जनता गुम हो गई इसी भूलभलैया में। सदियों के रोग हैं, दशकों में थोड़ा निबट जाते। यहां बालाई आमदनी की गौरवशाली परम्परा है, हर बरस उसकी श्रीवृद्धि हो रही है। फिर इस बीच अधूरे पुल कैसे पूरे हो जाते, खुदी हुई सडक़ें कैसे भर जातीं? इस देश के लोगों में भी असीम धीरज है भय्या।

बस इन्हीं खुदी हुई सडक़ों और अधूरे पुलों से ही काम चला लेते हैं। शुक्र करो कम से कम यहां इनके निशां तो नजर आ जाते हैं, जो बता देते हैं कि वायदा करने वालों की नीयत इनती बुरी न थी। वरना यहां तो चलन रहा है कि कागजों में ही उनके निशान गुम हो जाते हैं। अब लेना-देना, जमा खाता सब चुकता हो गया। गरीब देश और भी गरीब हो गया, इसकी क्या हैरानी? हां कुछ नेता किस्म के लोग अवश्य फटीचर साइकिल से उडऩ खटोला हो गए। अब अट्टालिकाओं के परिसर में गाडिय़ां खड़ी करने नहीं, हैलीकाप्टर खड़े करने का ठेका दिया जा रहा है। जनता असीम धीरज के साथ पुराने वायदों की अपूर्णता को भूल नए वायदों का लाल गालीचा बिछाने का इंतजार करती हैं। उनके जीर्णोद्धार आज के नेपथ्य में वही जाना-पहचाना संगीत बजता रहता है, ‘इंतजार, और अभी और अभी।’

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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