प्राकृतिक खेती को पुनर्जीवित करने की जरूरत

By: Apr 2nd, 2024 12:05 am

प्राकृतिक खेती को मिशन बनाकर किसानों की बिगड़ती आर्थिकी को संबल प्रदान करना होगा, अन्यथा किसान कर्ज का भुगतान नहीं कर पाएंगे व आत्महत्याएं करेंगे…

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है। कई किसान पृष्ठभूमि से जुड़ी विभूतियां देश के शीर्ष राजनीतिक पद तक पहुंचीं, मगर उस समय देश की आर्थिकी बहुत कमजोर थी। कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ज्यादा उत्पादन संभव नहीं था। आज हमारा देश चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर है। विश्व भर के हर कार्य क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाएं अपनी चमक बिखेर रही हैं। आज देश के 58 फीसदी लोग कृषि पर निर्भर हैं। 10.07 करोड़ परिवार यानी देश के 48 फीसदी परिवार कृषि करते हैं। विश्व के 70 प्रतिशत लोग गैर कृषि व्यवसाय से जुड़े हैं। कम समय में ज्यादा पैसा कमाना भी सामाजिक परिवेश व सामाजिक मनोदशा के परिवर्तन का एक कारक है। कृषि के क्षेत्र में ज्यादा पैदावार की चाह हर किसान रखता है, जिसके कुछ कारण भी हैं। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न तरह की रासायनिक खादें, कीटनाशक दवाइयां व कृषि यंत्र महंगे होते जा रहे हैं। आज कृषि क्षेत्र में खुद कार्य करने वाले किसान नाममात्र के ही रह गए हैं, बाकी सब कृषि यंत्रों, खेतों में कार्य करने वाले श्रमिकों व कृषि में प्रयुक्त होने वाले रसायनों पर निर्भर हैं। सब कुछ दिन प्रतिदिन महंगा होता जा रहा है और अनाज के दाम जस के तस बने हुए हैं। वर्ष भर मेहनत करने वाले किसान फसल बेचकर कई बार उत्पादन खर्च भी पूरा नहीं कर पाते और आमदनी बढ़ाने के लिए वे फसल के ज्यादा उत्पादन की चाह में प्राकृतिक खेती से दूर होते जा रहे हैं। कुछ प्रभाव दीर्घकालिक होते हैं। पहले मनुष्य की औसत आयु 80-90 वर्ष होती थी, मगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 60 से 70 वर्ष भी बमुश्किल है।

वजह थी प्राकृतिक खेती और रसायनमुक्त अनाज। आज के रसायनयुक्त अनाजों से बहुत सी जटिल बीमारियों ने इनसान को जकड़ रखा है। कहते हैं कि पृथ्वी गोल है और इनसान तेजी से ज्यादा धन कमाने की चाह में आगे से आगे बढ़ता जा रहा है। किसान बेचारा कहीं पीछे भी रह जाता होगा, क्योंकि बिचौलिए कमाने की चाह में हमेशा आगे निकल जाते हैं। आखिर में इनसान वहीं पहुंच जाएगा जहां से यात्रा शुरू की थी, यानी अब इनसान को प्राकृतिक खेती के महत्त्व का एहसास होने लगा है। हिमाचल प्रदेश सरकार की ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल योजना’ एक अच्छी शुरुआत है जिसके तहत प्रदेश की 3226 पंचायतों में से 2934 पंचायतों के 72193 परिवारों को प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इस योजना हेतु 25 लाख रुपए के बजट का प्रावधान है जो कि नाकाफी है। पशुपालन हेतु भी किसानों को शुरुआती दौर में आर्थिक प्रोत्साहन की आवश्यकता है, अन्यथा कुछ मजबूरीवस व कुछ स्वार्थ के चलते पशुधन से दूर होते जा रहे हैं और बेचारे पशु इनसान के इस अमानवीय स्वभाव के चलते आवारा बनने को विवश हैं। पशुओं के आवारापन की दिशा में भी कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। गोबर जैसे प्राकृतिक जैविक पदार्थों की बहुमूल्यता को बनाए रखकर भी लोग पशुओं से जुड़े रहेंगे। गांव में प्राकृतिक खेती में काम आने वाले अदानों की आपूर्ति हेतु संसाधन भंडार के लिए 10000 रुपए की सहायता शीघ्रता से किसान समूह बनाकर उपलब्ध करवाई जाए। गौशाला के फर्श पक्का कर गौमूत्र इक_ा करने के लिए गड्ढा बनाने हेतु भी सरकार ने बजट का प्रावधान किया है, वह भी शीघ्रता से किसानों को मिले व भारतीय नस्ल की गाय की खरीद पर 50 फीसदी और अधिकतम 25000 रुपए के उपदान को जरूरतमंदों तक पहुंचाया जाए।

इसके अतिरिक्त परिवहन हेतु 5000 रुपए की राशि का भी विशेष प्रावधान है। छोटे किसानों के लिए यह योजना कारगर साबित होगी, यानी सही ढंग से विभाग द्वारा इसे अमलीजामा पहनाए जाने की जरूरत है। अभी तक आंकड़ों के अनुसार 165221 किसान या बागवान परिवारों ने इस खेती को आंशिक या पूर्ण रूप से अपना लिया है। वह भी एक दौर था कि चाहे घड़ी इक्का-दुक्का इनसान के पास ही होती थी, समय सभी के पास होता था। मगर आज घड़ी सभी के पास होती है और समय किसी के पास नहीं है। उस दौर में बैलों से हल जोतना व फसलों की बुआई होती थी। गोबर की जैविक खाद खेतों में इस्तेमाल होती थी। गांवों के सभी लोग मिलजुल कर कार्य करते हुए, कितने अच्छे लगते थे। आज हर इनसान क्यों एकाकी जीवन की ओर अग्रसर हो रहा है। ओढऩे के वस्त्र धोने के लिए गौमूत्र का इस्तेमाल किया जाता था। वर्तमान के इस महंगाई के दौर में अधिकतर किसान उत्पादन का खर्च भी पूरा नहीं कर पाते, परिवार का पोषण तो दूर की बात रही। अधिकतर छोटे किसानों ने खेती करना भी छोड़ दिया है। आज अधिकतर जमीनें, जिसमें सब्जियां उगाई जाती हैं, अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से दूषित हो चुकी हैं। मित्र मृदा परजीवी जमीन में नहीं रहे। वहीं दूसरी तरफ कुछ मेहनतकश किसान प्राकृतिक खेती को अभी भी अपनाए हुए है। प्राकृतिक खेती स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ-साथ, कम उत्पादन खर्च में किसानों को अच्छा मुनाफा देती है। खेतों को मिलने वाली गोबर की जैविक खाद के परिणाम बेशक देरी से आएंगे, लेकिन साथ में स्वास्थ्य व खुशहाली भी लाएंगे। सरकारें भी धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती के प्रति कदम उठाती दिख रही हैं, मगर किसानों को इस दिशा में स्वयं पहल करनी होगी, क्योंकि सरकारें भी रासायनिक उत्पाद वाली फैक्टरियां बंद नहीं कर पाएंगी, क्योंकि वह भी सरकार की आमदनी का जरिया बन चुका है।

यह तो वही बात है कि सरकार शराब व सिगरेट से समाज को होने वाले नुकसान की चेतावनी तो देती है, मगर साथ में फैक्टरी खोलने की इजाजत भी देती है। अब अपनी दशा व दिशा का निर्धारण इनसान को स्वयं ही करना होगा। बीच में बिचौलियों की भरमार तो दीमक की तरह रहेगी ही। किसान हित में कोई कारगर नीति बनानी होगी, जैसे 70 के दशक में हरित क्रांति, तत्पश्चात श्वेत क्रांति, किसानों को अच्छी नस्ल के दुधारू पशु उपलब्ध करवाना और भारतीय सहकारिता आंदोलन की नींव पड़ी, ठीक इसी तरह प्राकृतिक खेती को भी राष्ट्रव्यापी मिशन बनाकर किसानों की बिगड़ती आर्थिकी को संबल प्रदान करना होगा, अन्यथा किसान फसलों के लिए बैंकों से लिए गए कर्ज का भुगतान भी नहीं कर पाएंगे और आत्महत्या जैसे कृत्य करने को विवश हो जाएंगे, जो निश्चित रूप से देश के लिए बड़े संकट के समान होगा।

हंसराज ठाकुर

स्वतंत्र लेखक


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