चुनावी रण में नेतृत्व की परीक्षा

By: May 6th, 2024 12:05 am

कहते है संस्कृति की सत्ता होती है और सत्ता की संस्कृति भी जग जाहिर है। सत्ता की संस्कृति आपको चाटुकारों से घिरा हुआ, अपनों को पुरस्कार, चेयरमैन अध्यक्ष पद से नवाजती है। लेकिन सत्ता की श्रेष्ठता इस बात में है कि वह पार्टी के सक्रिय सदस्यों कार्यकर्ताओं शुभचिंतकों को सत्ता शासन में भागीदार बनाती है और सरकार की नीतियों कार्यक्रमों को बनाने में सहयोग लेती है…

हिमाचल में आजकल जम कर चुनाव प्रचार हो रहा है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह सरकार और संगठन में सब कुछ ठीक है, का आभास देते नजर आ रहे है। यह लेख लिखे जाने के वक्त कांगड़ा और हमीरपुर लोकसभा सीट पर काफी माथापच्ची के बाद क्रमश: आनंद शर्मा और सतपाल रायजादा को लोकसभा का प्रत्याशी घोषित कर ही दिया है। खैर, यह लेट लतीफी का कांग्रेसी कल्चर है जो खबरों में बना रहता है। सरकार को बने 15 महीने हो गए है। जमीनी हालात यह है कि जनता यह सब सोचने को मजबूर है कि विधान सभा के लिए क्या उपचुनाव राजनीतिक सूझबूझ से टाले नहीं जा सकते थे। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को उपचुनाव के मुद्दे पर जनता को उत्तर देना होगा। सरकार का मुखिया होने के नाते सुखविंदर सिंह सुक्खू और उनकी टीम को अपने 15 महीने के शासन के रिकॉर्ड पर जनता के बीच उतरना होगा अपनी सरकार को बचाने व संभाले रखने के लिए यह उपचुनाव जीतना अत्यंत आवश्यक है। भाजपा के विषय में तो यह प्रसिद्ध है कि वह चुनावी मूड में रहने वाली पार्टी है और प्रधानमंत्री मोदी को हर समय चुनावों में सबसे ज्यादा व्यस्त रहने वाले प्रधानमंत्री का तमगा प्राप्त है। प्रधानमंत्री के तौर पर वह कैसे हैं यह लेख का मंतव्य नहीं। उस पर फिर कभी। मुख्यमंत्री सुक्खू के सामने सबसे बड़ी चुनौती और प्राथमिकता विधान सभा उपचुनावों की छहों सीटों पर विजयी हासिल करना होगा। लोकसभा के चुनावों में चारों सीटें जीता कर हाई कमान की झोली में डाल कर वह उनके विश्वास को पुख्ता कर सकेंगे।

उन के लिए यह एक अवसर आया है। इस जीत से वह हाई कमान के सामने और प्रदेश कांग्रेस संगठन में विरोधी होली लॉज कैंप के समक्ष नेतृत्व क्षमता साबित करेंगे। जनता का विश्वास और दिल जीतने में सफल हो सकते है। दूसरे, यह जीत इस बात की भी द्योतक होगी कि हाई कमान का सुक्खु को मुख्यमंत्री बनाना और प्रतिभा सिंह की सीएम पद की दावेदारी को नजर अंदाज करने का उनका निर्णय सही था। ऐसे वो कौन से कारण रहे जिनके चलते भली चंगी सरकार पर संकट के बादल मंडराए और उपचुनावों की नौबत झेलनी पड़ गई? याद करें तो एक राजनीतिक घटनाक्रम के चलते प्रदेश की एक मात्र राज्य सभा सीट के लिए चुनाव में भजपा के हाथों मानों छींका ही फूट पड़ा। अल्पमत की भाजपा बहुमत की कांग्रेस की जमीन तले कालीन खिसका कर राज्य सभा सीट का निवाला छीन ले गई। परिणाम यह रहा कि प्रख्यात वकील और कांग्रेस के प्रत्याशी मनु सिंघवी हार गए और कांग्रेस के पूर्व मंत्री रहे और भाजपा के प्रत्याशी हर्ष महाजन जीत गए। इस प्रकरण से सरकार विशेष कर मुख्यमंत्री के विरुद्ध सुलगते विरोध और आक्रोश से न केवल जनता अवाक रह गई, बल्कि सरकार सुक्खू और उनके चुनावी व संसदीय प्रबंधन को भी इस बात की भनक तक न लगी कि उनके छह विधायक और तीन निर्दलीय वोटिंग के अवसर पर अपनी ही पार्टी के विरुद्ध जाएंगे।

इस प्रकरण ने प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की कार्य शैली और सरकार चलाने की क्षमता पर सवाल खड़े कर दिए। प्रदेश की जनता यह भलीभांति जानती है कि सुक्खू को संगठन का आदमी कहा जाता है और संगठन के वह अच्छे जानकार है। जब तक वीरभद्र मुख्यमंत्री रहे उन्होंने उन्हें दो बार विधायक होने के बावजूद मंत्री या संसदीय सचिव या सरकार में किसी पद से नहीं नवाजा। 1983 में जब वीरभद्र मुख्यमंत्री बने, तब सुक्खू कालेज सी आर के चुनाव लड़ रहे थे। कालेज विश्वविद्यालय की राजनीति करते-करते विभिन्न पदों पर रहते हुए कांग्रेस के अध्यक्ष पद तक जा पहुंचे। पंडित सुखराम, विद्यास्टोक्स, आनंद शर्मा, कुलदीप राठौर और शिमला के पूर्व विधायक हरभजन सिंह भज्जी आदि से सुक्खू की करीबियां जग जाहिर थी। यही बात वीरभद्र को नागवार थीं। अंत समय तक इन दोनों में 36 का आंकड़ा रहा। कहते है संस्कृति की सत्ता होती है और सत्ता की संस्कृति भी जग जाहिर है। सत्ता की संस्कृति आपको चाटुकारों से घिरा हुआ, अपनों को पुरस्कार, चेयरमैन अध्यक्ष पद से नवाजती है। लेकिन सत्ता की श्रेष्ठता इस बात में है कि वह पार्टी के सक्रिय सदस्यों कार्यकर्ताओं शुभचिंतकों को सत्ता शासन में भागीदार बनाती है और सरकार की नीतियों कार्यक्रमों को बनाने में सहयोग लेती है। अब क्योंकि बारी सुक्खू की आई तो सत्ता का संतुलन बनाने की जगह उन्होंने उन लोगों को पद नवाजे, जो जनता का मत लेकर नहीं आए थे और वीरभद्र गुट की अघोषित अनदेखी कर दी। कांगड़ा, मंडी, बिलासपुर आदि महत्त्वपूर्ण जिलों को मंत्री परिषद में जगह नहीं मिली। प्रदेश के कई वर्ग, जातियां, समूह शासन की हिस्सेदारी से वंचित कर दिए गए। कांगड़ा से सुधीर शर्मा, हमीरपुर से राजेंद्र राणा इस बगावत के सरगना हुए और यह सब भाजपा के खुले समर्थन से हुआ।

जयराम ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री सुक्खू सरकार को ‘मित्रों की सरकार’ कह कर संबोधित करते है। यह दीगर है कि वह भी पदों की रेवडिय़ां बांटने में मशगूल रहे। उनका स्वयं का काल विसंगतियों और विरोधाभास का रहा। आजकल विपक्ष में उनकी सक्रियता को देख कर भाजपा के लोग भी यह स्वीकार करते है कि इतनी सक्रियता के साथ उन्होंने भाजपा की सरकर चलाई होती, तो 2022 में कांग्रेस सरकार न बनती। और अब बात करते हैं सुक्खू शासन के व्यवस्था परिवर्तन की बड़ी भूल की, वह है नौकरशाही पर ढीली पकड़। आपने निर्णय लिया कि सरकार बनते ही आप सरकारी बाबूओं को नहीं बदलेंगे। लेकिन वह समय चला गया जब नौकरशाह निर्भीक हो कर राय देते थे। आज समय है कमिटिड ब्य्रोके्रसी अर्थात समर्पित नौकरशाहों का। आलम यह है कि नौकरशाह भी अब तटस्थ न हो कर भाजपा-कांग्रेस के हो कर रह गए है। ऐसी प्रशासनिक संस्कृति तैयार हो रही है जो स्टील फ्रेम न हो कर रीढ़विहीन हो गई है। चुने हुए विधायकों को इस बात की शिकायत है कि हमारे कार्य नहीं होते, परंतु गैर प्रतिनिधियों, कबिनेट रैंक वाले नेताओं को मुख्यमंत्री और प्रशासन अधिमान देते हैं।

डा. देवेंद्र गुप्ता

स्वतंत्र लेखक


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