सच्चे दिल से प्रार्थना

By: Jul 20th, 2019 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

मैं कहता हूं आज रात को काली के मंदिर में जाकर मां को प्रणाम करके जो मांगोगे, मां तुझे वह सब देगी, यकीन हो या न हो। श्री रामकृष्ण की प्रस्तरमयी जगतमाता क्या चीज है, उसकी परीक्षा करके देखनी होगी, नरेंद्र ने सोचा। रात का एक पहर बीत चुका था। नरेंद्र काली माता के मंदिर की तरफ चल पड़े। आज श्री रामकृष्ण की कृपा से मेरे परिवार के दुखों का अंत होगा। यह सोचकर वह खुशी से झूम उठे। उन्होंने देखा, जगदंबा के भुवन मोहन रूप से ही काली का मंदिर अलौकिक है। सामने पत्थर की मूर्ति नहीं है वरन् मृणमय आधार में चिंमयी प्रतिमा वारामय हाथ फैलाकर असीम दया के साथ स्नेहपूर्ण स्मित कर रही है। इसके बाद उन्होंने क्या देखा, क्या समझा, ये तो वही जाने उनके अद्भुत गुरु श्री रामकृष्ण देव। नरेंद्र सब कुछ भूल गए। सच्चे दिल से प्रार्थना कर बोले, मां विवेक दो, वैराग्य दो, ज्ञान दो, शक्ति दो। माता तुम्हारी कृपा से सदा ही तुम्हें देख सकूं। नरेंद्र वापस लौट आए। श्री रामकृष्ण ने पूछा, क्या मांगा। तब कहीं नरेंद्र को अपने पहले संकल्प की याद आ गई। अरे, उन्होंने यह क्या किया?  श्री रामकृष्ण वो फिर मंदिर में गए, लेकिन दूसरी और तीसरी बार भी वो मुंह खोलकर मां के चरणों में सांसारिक सुख के लिए प्रार्थना न कर सके। जन्म से ही वैराग्य की तरफ झुककर उनका मन बीच-बीच में सांसारिक दुःखों कष्टों से विचलित होने पर भी, पार्थिव भोग सुख की कामना से क्षुब्ध नहीं हुआ था। वो कैसे रोटी और कपड़े के लिए प्रार्थना करते? ऐसा कौन मूर्ख है जो कल्पवृक्ष के नीचे जाकर अमृतफल को छोड़कर कपड़े के लिए प्रार्थना करे? आखिर में श्री रामकृष्ण ने नरेंद्र के आग्रह पर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा, तु अब मांग न सका तो तेरे भाग्य में सांसारिक सुख है ही नहीं। फिर भी तुम लोगों को सूखी रोटी और वस्त्र की कमी नहीं होगी। नरेंद्र को आश्वासन मिला। उन्हें तो स्वयं तो सांसारिक सुख की आवश्यकता थी ही नहीं। बस वही दिन था, जिस दिन से उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। यह बात बड़ी समस्यापूर्ण थी और किसी साधारण मनुष्य की बुद्धि से परे थी। अदृश्य रूप से कि कुशलता के साथ श्री रामकृष्ण स्वामी विवेकानंद को तैयार कर रहे थे। नरेंद्र के परिवार की समस्याएं श्री सद्गुरु की कृपा से दूर हो गई थी। नरेंद्र अटर्नी आफिस में काम करके और कुछ  पुस्तकों का अनुवाद करके जीविका चलाने लगे। फिर उन्होंने स्थायी रूप से विद्यासागर के स्कूल  में पढ़ाने की नौकरी कर ली। सन् 1885 के बीच में श्री रामकृष्ण के गले के रोग को जिस रोग से वह काफी दिन से परेशान थे, बढ़ते देखकर भक्त चिंतित होने लगे। उन्हें इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। शहर में रहने की काफी परेशानी थी, इसलिए भक्तों ने कलकत्ता के उत्तरी भाग में बसी उत्तरकाशी में एक बागीचे वाला मकान किराए पर ले लिया और श्री रामकृष्ण को वहां ले गए। उनकी दवा इलाज व सेवा में किसी प्रकार की कमी नहीं होने दी, लेकिन रोग की पीड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। कई लोग तो समझ चुके कि अब श्री रामकृष्ण का अंतिम समय निकट ही है। अब वह ज्यादा दिन हम लोगों के बीच नहीं रह सकते, अतः इस संसार को छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं।                                                    


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