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नारदजी भगवान के मन के अवतार हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। भगवान जो भी लीला करना चाहते हैं, वीणापाणि नारदजी द्वारा वैसी ही चेष्टा होती है। नारदजी भगवान के विशेष कृपापात्र और लीलासहचर हैं। जब-जब भगवान का अवतार होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमि तैयार करते हैं, लीला के लिए

इसके बाद विश्वावसु ने उत्तानपाद राजा के यहां धु्रव नाम से जन्म धारण किया। अगले जन्म के सभी संस्कार जिसके साथ में आए हुए हैं, ऐसे धु्रव की माता के कटाक्ष में वचन का आश्रय ले बालकपन में ही वन में जाकर प्रभु की उत्तम प्रकार से भक्ति की तथा उसी जन्म में हरि के

भगवान शिव की पूजा हम लिंग के रूप में ही क्यों करते हैं, यहां तक कि मंदिरों में भी लिंग की ही पूजा होती है और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा होती है। ऐसा क्यों है कि शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में होती है।  क्या महत्त्व है इसका? दरअसल शिव लिंग को

निज्याप्सु जपेत्रित्यं शतकृत्वस्तदित्यृचम्। ध्यायेद् देवी सूर्यरूपां सर्वपापैः प्रमुच्यतये। 77। जल में निमग्न होकर एक शत गायत्री नित्य जप करके सब पापों से मुक्त होवें। जप करते समय सूर्य-रूपी गायत्री का ध्यान करते रहें… -गतांक से आगे… चतुर्विशति साहस्रमभयस्ता कृच्छसंज्ञिता। चतुष्पटिः सहस्राणि चांद्रायणसमानि तु। 76। चौबीस सहस्र जप करने से एक कृच्छ के समान और चौसठ

श्रीराम शर्मा प्रकाश की ओर चलने पर छाया पीछे-पीछे अनुगमन करती है। अंधकार की दिशा में बढ़ने पर छाया आगे आ जाती है। इसी प्रकार अर्थात दिव्यता की ओर श्रेष्ठता की ओर परमात्म पथ की ओर बढ़ने पर छाया अर्थात ऋद्धि-सिद्धियां साधक के पीछे-पीछे चलने लगती हैं… पात्रता के अभाव में सांसारिक जीवन में किसी

नौवां आध्यात्मिक रहस्य है प्राचीन विद्याएं। प्राचीन काल से ही भारत में ऐसी कई विद्याएं प्रचलन में रही जिन्हें आधुनिक युग में अंधविश्वास या काला जादू मानकर खारिज कर दिया गया… -गतांक से आगे… अब तक यह राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाए जाते रहे होंगे या बजाए जा

आश्चर्य की बात यह सामने आई है कि जड़-पदार्थों से बने ऐसे माध्यम जिनके साथ जीवित मनुष्यों का घनिष्ठ संबंध रहा हो, अपना प्रेत अस्तित्व बना लेते हैं और मूल पदार्थ के नष्ट हो जाने पर भी अपने अस्तित्व का वैसा ही परिचय देते रहते हैं, जैसा कि मरने के बाद मनुष्य अपना परिचय प्रेत

कर्म कांड वालों के गुरु तो उनको इस तरह उपदेश देते हैं कि पिता ने और गुरु ने जिस-जिस मार्ग को ग्रहण किया है पुत्र और शिष्य को भी नेत्र बंद कर उसी पर चलना चाहिए। हे नचिकेता! केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानने वाले स्वार्गादि लोकों की इच्छा नहीं करते। वे इसी लोक में

सद्गुरु  जग्गी वासुदेव एक इनसान के तौर पर अगर हम अपनी क्षमता का इस्तेमाल नहीं करते और एक कीड़े-मकोड़े की तरह रहने की कोशिश करते हैं, तो क्या यह हमारे जीवन के लिए एक डरावनी सच्चाई नहीं होगी। लोग अकसर आकर कहते हैं मैं यह करना चाहता हूं, लेकिन। ऐसी अनेक खूबसूरत चीजें थीं, जो