प्रतिबिम्ब

रघुवीर सहाय  की गणना हिंदी साहित्य के उन कवियों में की जाती है, जिनकी भाषा और शिल्प में पत्रकारिता का प्रभाव होता था और उनकी रचनाओं में आम आदमी की व्यथा झलकती थी। रघुवीर सहाय एक प्रभावशाली कवि होने के साथ – साथ कथाकार, निबंध लेखक और आलोचक थे। वह प्रसिद्ध अनुवादक और पत्रकार भी

विवाह उत्सव में एक नहीं बार-बार इनकी पूजा करनी पड़ती है। कुलज की स्थापना कृषक-श्रमिक परिवारों में विभिन्न रूपों में होती है। कहीं पिंडियों के रूप में तो कहीं देहरी अथवा मढ़ी के रूप में तो कहीं दाड़ू की टहनी के रूप में इनकी उपस्थिति होती है। जिस दिन बारात चढ़ती है, उस दिन दूल्हे

‘तुम्हारे यूं चले जाने से’ तुम्हारे यूं ही चले जाने से न जाने कितनी बातें होंगी न जाने कितने सपने टूटे होंगे उन गरीब, असहाय लोगों के जिनके लिए तुम एक बैंक अधिकारी ही नहीं थे, बल्कि एक मसीहा थे। तुम्हारे यूं ही चले जाने से ये पत्ते-फूल फल व टहनियां भी उदासी लिए चुपचाप

किन्नौर में एक रोचक लोककथा है कि शोणितपुर (सराहन) के राजा बाणासुर ने मानसरोवर से सतलुज को सराहन तक अपना अनुगमन करने का आदेश दिया। सराहन पहुंचकर बाणासुर ने नदी को आगे का मार्ग स्वयं ढूंढ निकालने का आदेश दिया और स्वयं वहीं राज्य स्थापित किया… सतलुज घाटी का सांस्कृतिक जीवन वैदिक एवं पौराणिक परंपराओं

प्रकृति की गोद में बसा भूटान एक ऐसा देश है, जो खुशहाली पर जोर देता है। जहां पूरी दुनिया का जोर जीडीपी यानी ‘सकल घरेलू उत्पाद’ पर होता है, वहीं भूटान अपने नागरिकों का जीवन स्तर जीएनएच यानी ‘सकल राष्ट्रीय खुशी’ से नापता है। यह एक बड़ा फर्क है जो भूटान को पूरी दुनिया से

पंडित भीमसेन जोशी किराना घराने के महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय गायक थे। उन्होंने 19 साल की उम्र से गायन शुरू किया था और वह सात दशकों तक शास्त्रीय गायन करते रहे। देश-विदेश में लोकप्रिय हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान गायकों में उनकी गिनती होती थी। अपने एकल गायन से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में नए युग का सूत्रपात

आलम यह है कि ‘ढाई पकौडि़यां छाबडि़या, बणी रे डलहौजिया रे लालो।’ जिसकी पांच-सात रचनाएं कहीं प्रकाशित हुई हैं या हो जाती हैं, वही अपने को दूसरों से बेहतर और बड़ा मानने लग जाता है। चिंतन, अवलोकन, विश्लेषण और स्वस्थ आलोचना का मंच न मिलने के कारण लेखन में वो धार, पैनापन और नवीनता नहीं

सयौं धयाडे बड़े बांके धयाडे सयौं अनमोल धयाडे सहेलीयां रा मेला होर हर मन मस्त मौला चौहटे री रौनका किहां भूलडी सयौं रौनका सांझके सयौं चौहटे रे फेरे, सडका नापी नापी एगपा मारी मारी खसत्म नी हुदा था गला रा पिटारा भुतनाथा री गली रोज हुवाइ थी लगीरी दयाडी कपड़े री दुकाना सजीरी हुवाई थी

भारत की सभ्यता और संस्कृति सामंजस्य पर आधारित रही है। इस भावना के मूल में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सुरक्षित और सर्वमान्य होना चाहिए। जब दुनिया के विकसित देश जापान, रूस, चीन, फ्रांस आदि आर्थिक सामाजिक उन्नति के सोपान अपनी राष्ट्रभाषा के सहयोग से गढ़ सकते हैं, तब भारत भी अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी