प्रतिबिम्ब

बाबू गुलाबराय भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार, निबंधकार और व्यंग्यकार थे। वह हमेशा सरल साहित्य को प्रमुखता देते थे, जिससे हिंदी भाषा जन-जन तक पहुंच सके। उनकी दार्शनिक रचनाएं उनके गंभीर अध्ययन और चिंतन का परिणाम हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में शुद्ध भाषा तथा परिष्कृत खड़ी बोली का प्रयोग अधिकता से किया है। उन्होंने आलोचना और

हजारों दीप मैंने बुझते जलाए हैं, गिला किसका। मैंने वंदे तो क्या पत्थर हंसाए हैं ,गिला किसका। गगन जब था मुसीबत में तो टूटा इस तरह सारा, मैंने सूरज सितारे चांद बचाए हैं ,गिला किसका। मेरे आंसू ने कीमत इस तरह अदा की है, जरूरत पड़ने पर पर्वत उठाए हैं, गिला किसका। नदी के छलकते

हिमाचल की स्थापना 1948 में हुई। देश की आजादी की घोषणा के आठ महीनों बाद इस कार्य में तत्कालीन केंद्रीय नेताओं, प्रशासकों और स्थानीय नेताओं के योगदान को भुला नहीं सकते। उन्होंने पर्वतीय लोगों की अक्षुण्ण स्वायत्तता को तरजीह दी और इसे भारतीय परिसंघ का एक विशिष्ट पहाड़ी प्रांत बना दिया। एक पृथक आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई

इसी प्रकार यदि कोई आप पर झूठा आरोप लगाता है, जिससे मन को कष्ट तो होता ही है, साथ में बदनामी भी होती है…तब भी इसी प्रकार लोक देवता ख्वाजा पीर के आगे फरियाद करने से आपको कुछ समय के बाद न्याय अवश्य मिलेगा। उपरोक्त दोनों स्थितियों में सच्चे मन से तथा सच्चे रूप में

मां! सुन लो करुण पुकार मेरी क्यों नहीं चुभती पीड़ा मेरी? नन्हीं परियों की कथा सुना दो मां! मेरा बचपन मुझे लौटा दो।। मां! दूध मिले, न आंचल तेरा अंधकार छाया, मुझमें घनेरा। माता कुमाता, कभी भी न होती होते उसके संतान, कभी न रोती।। कोमल तन-मन मैया मेरे दिन भर दर्शन न होते तोरे।

आहुति अंतर्मन की तुम तह खोलो, बिन सोचे बिन समझे बोलो। सोच समझ है होती छोटी, केंद्र-बिंदु तुम जरा टटोलो।। शांत-चित्त होकर हे मानव!, देखो अंदर कितने दानव। करते क्रीड़ा देते पीड़ा, काटे कैसे कामी कीड़ा। कर्णप्रिय गुंजार बहुत हैं, आकर्षण शृंगार बहुत हैं। तुझे लुभाएंगे सब मिलकर, बड़ा सताएंगे सब मिलकर। इनसे नेह लगाना

कालेज पूरा हो गया था। राखी की शादी कुछ दिनों बाद थी। सभी दोस्तों को निमंत्रण पत्र मिल गए, सभी जाने की तैयारी के लिए खरीददारी करने लगे, लेकिन उसकी सहेली गुडि़या थोड़ी चुप सी थी। साथ तो होती पर, सबमें अकेली। घूमकर शाम को घर पहुंची। ‘आ गई तुम, गुडि़या’ मां ने पूछा, लेकिन

यही तो इन लोक-देवताओं की वास्तविकता का प्रमाण है। फिर इनसे क्षमा-याचना करके और दूध, दही, रोट, चूरमां, खीर तथा बलेई आदि देवता से संबंधित पकवान भेंट किया जाता है। तब दूध में खून आना अपने आप ही बंद हो जाता है। यदि इन लोक देवताओं में ऐसी-एसी करामातें न हों तो इन्हें मानें कौन?

हिमाचल में सृजन की उर्वरा जमीन पर उम्मीदों की नई कोंपलें फूटंेगी ऐसी संभावना है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ-साथ अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेज भी होता है। जो अपने समय, समाज, संस्कृति और इतिहास को भी रेखांकित करता है। हिमाचली रचनाकारों में भी आज अपने समय की विदू्रपताओं और विषमताओं को लेकर