संपादकीय

अंतत: हिमाचल का विधानसभा सदन खामोशी से सुन रहा बेरोजारों की वकालत। सरहद पर खड़ा बेरोजगार और विपक्ष की वकालत का सहारा, उसे हमेशा की तरह फिर किंकर्तव्यविमूढ़ बन रहा। मंगलवार की बहस में नौकरी का सरकारी रुतबा आसमान पर सितारे गिनता रहा। कहीं आउटसोर्स चीख रहा, कहीं साल में एक लाख नौकरी का टोटका बोलता रहा। इस दौरान बच्चों ने रोजगार कार्यालय का चेहरा देखना छोड़ दिया, लेकिन पंजीकृत 742845 बेरोजगारों के लिए सरकार ही ख्वाजा पीर की अरदास है या किसी मंदिर की पूजा में की गई मन्नत। कितने दोराहे-कितने चौराहे हैं पढ़े लिखे बेरोजगारों के लिए, लेकिन नौकरी का शब्द सरकारी शब्दकोष की तरह अपने अर्थ में मुगालते भर रहा है। अब गि

देश में सर्वोच्च अदालत और उसके जरिए न्यायपालिका जब तक जिंदा हैं, तब तक इंसाफ जरूर मिलेगा। चंडीगढ़ नगर निगम के मेयर चुनाव पर सर्वोच्च न्यायिक पीठ ने जो न्याय किया है, वह ऐतिहासिक और क्रांतिकारी है। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च अदालत ने, चुनाव जैसे मुद्दे पर, जिस विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया है, वह अभूतपूर्व है। यह ऐसा फैसला है, जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। न्यायपालिका ने लोकतंत्र और उसमें निहित जन-शक्ति को बचाकर मिसाल कायम की है। वोट की लूट नहीं मचाई जा सकती और न ही चुनाव प्रक्रिया में धांधलियां कामयाब हो सकती हैं। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले के जरिए यह संदेश पूरे देश को दिया है। मेयर चुनाव के पीठा

बजट के मजमून अब विपक्ष की कचहरी में गूंजने लगे, तो प्रदेश की चिंताएं समझी जानी चाहिएं। हालांकि बजट ने जनप्रतिनिधियों की खुशामद में वार्ड पंच से जिला परिषद तक सदस्यों के मानदेय को बढ़ा दिया या विधायक प्राथमिकता निधि को सींच दिया, लेकिन विपक्ष के पास पूछने और आप

किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसमें दलहन, कपास, मक्की, उड़द और अरहर की फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का आश्वासन दिया गया था। फसलों की मात्रा की भी कोई सीमा तय नहीं की गई थी। कृषि मंत्री समेत तीन केंद्रीय मंत्रियों ने 100 फीसदी एमएसपी पर सरकारी खरीद का प्रस्ताव दिया था। किसानों की अस्वीकृति निराशाजनक और नकारात्मक है। चूंकि पंजाब के ज्यादातर किसान

पश्चिम बंगाल के संदेशखाली इलाके के हालात को देख-सुन कर ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें पहले ही देखा, भोगा और अनुभव किया है। संदेशखाली पर जितनी रपटें और विश्लेषण सामने आए हैं, उनके मद्देनजर आश्चर्य होता है कि 2011 से वहां ‘दरिंदों’ के अत्याचार, यौन उत्पीडऩ और भूमि पर जबरन कब्जों के सिलसिले जारी रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री उन्हें झूठ करार दे रही हैं। उन्होंने विधानसभा में कहा है कि संदेशखाली में आरएसएस का अड्डा है और वही औरतों को उकसा और बरगला रहा है। यदि संघ किन्हीं आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त है,

हिमाचल के बजटीय घाटे की दुकानदारी चला रहे सार्वजनिक उपक्रमों ने पुन: लुटिया इस कद्र डुबोई है कि इनके दोष कान खड़े कर रहे हैं। यह सिर्फ घाटा नहीं, बल्कि प्रदेश की आर्थिक क्षमता का ऐसा अवांछित रिसाव है, जिसे तुरंत रोकना होगा। कुल 23 सार्वजनिक उपक्रमों में से तेरह ने 5143 करोड़ का घाटा परोस कर कई ऐसे प्रश्र उठाए हैं जो पूछ रहे हैं, क्या इसी धरातल पर आत्मनिर्भर हिमाचल की कसम उठाई जाती है। आश्चर्य यह कि जहां संभावना है, वहीं घाटे को सिर पर चढ़ाया जा रहा है। घाटे के शिखर पर परिवहन निगम के 1966 करोड़, राज्य बिजली बोर्ड के 1824 करोड़, पाव

यह लोकसभा चुनाव का मौसम है, लिहाजा प्रत्येक राजनीतिक घटनाक्रम महत्वपूर्ण है। एक तरफ विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं, दूसरी तरफ भाजपा का कुनबा विस्तृत होता जा रहा है। उसकी चुनावी चुनौती भी ‘अपराजेय’ लगती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी बिखर रही है, जिसके नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा या अन्य दलों में शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस का राजनीतिक और वैचारिक घर टूट रहा है, यह अत्यंत

सुक्खू सरकार का बजट खुद से बात, खुद से मुलाकात और खुद से प्रण लेता हुआ सुर्खियां बटोर गया, भले ही हिमाचल के प्रश्र और प्रश्रों के आधार पर आर्थिक दिक्कतें परीक्षा ले रही हैं। प्रदेश जिसके कंधों पर 87 हजार करोड़ का ऋण हो तथा इसी साल राजकोषीय घाटा दस हजार करोड़ के पार हो, उसके बजट के सुखद पहलू लिखने कोई आसान नहीं। ऐसे में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू बजटीय प्रमाणिकता के साथ वादों और इरादों की झड़ी लगा रहे हैं, तो इसका व्यावहारिक पक्ष भी समझना होगा, फिर भी इसके गणित के बाहर ऐसा बहुत कुछ है, जिससे प्रदेश अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों, विकास के दायित्व, किसानों-बागबानों के प्रति समर्पण, कर्मचारियों की अपेक्षाओं तथा जनप्रतिनिधियों

सर्वोच्च अदालत ने चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक और मनमाना करार दिया है। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना है। ये बॉन्ड चुनावी पारदर्शिता और मतदाता के अधिकार के भी खिलाफ हैं। मतदाता को राजनीतिक, चुनावी चंदे को जानने का अधिकार है। इनसे यह पता नहीं चलता कि चुनावी बॉन्ड क्यों खरीदे गए? एक निश्चित राजनीतिक दल को ही चंदा क्यों दिया गया? इनसे स्वतंत्र चुनावों की निष्पक्षता भी खतरे में पड़ जाती है। नतीजतन पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने चुनावी बॉन्ड पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाने का फैस