सत्ता की चादर तले पलता भ्रष्टाचार

By: Jan 6th, 2017 12:02 am

( डा. लाखा राम लेखक, चंडीगढ़ में लेखा परीक्षक के पद पर सेवारत हैं )

समाज द्वारा मान्य एवं स्थापित मूल्यों का उल्लंघन करके, किया गया आचरण ही भ्रष्टाचार कहलाता है। जब कोई व्यक्ति अपनी वैध आय के अतिरिक्त अनैतिक तरीकों से धनोपार्जन करता है, तब निश्चित रूप से वह भ्रष्टाचार के वर्तमान व्यापक संजाल का एक भाग बन जाता है। आज इसी अनैतिक प्रवृत्ति ने भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा ली हैं और किसी भी स्तर पर समाज का कोई वर्ग इससे अछूता नहीं बचा है। देश में भ्रष्टाचार के अनेक रूप देखने को मिलते हैं, जैसे रिश्वत, भाई-भतीजावाद, दुर्विनियोग, संरक्षण और पक्षपात आदि। भ्रष्टाचार में व्यक्ति स्वार्थवश व्यक्तिगत लाभ के लिए अधिकारों का दुरुपयोग करके सामाजिक नियमों का सोच-समझकर उल्लंघन करता है। भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग बड़े अर्थों में हुआ है पुलिस एवं सरकारी अधिकारियों द्वारा रिश्वत लेना, यौन भ्रष्टाचार, व्यापारियों द्वारा कम तोलना, मिलावट करना, स्मगलिंग, काला बाजारी, न्यायाधीशों द्वारा पैसा लेकर अपराधियों को मुक्त कर देना, चुनाव में जीतने के लिए गड़बडि़यां करना, चंदे की रकम में गोलमाल करना आदि सभी भ्रष्टाचार के अंतर्गत आते हैं और वर्तमान समय में काले धन का मुद्दा भी भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप में सामने आया है। भ्रष्टाचार, घोटाले आदि जीवन का अनिवार्य अविभाज्य अंग बन गए हैं। इस देश की सांसों की नली में भ्रष्टाचार और कदाचार का दर्द सदैव से है और दुर्भाग्य यह है कि यह कभी मुद्दा नहीं बन सका, ऐसा मुद्दा जो सरकार से उसकी संजीवनी छीन ले, ऐसा मुद्दा जिससे राजनीतिक आकाश में हल्का ही सही उजाला फैला सके। धूप और अंधेरों की सुनसान पगडंडी पर सिर्फ राजनीतिक नारे हैं, जहां बदलाव की प्रतीक्षा अब भी पात में खड़ी नजर आती है। साध्य और साधना की गांधी की सामाजिक बहस पुराने किसी वाचनालय में धूल खा रही है। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की गिनती आज भले ही महा घोटाले के तौर पर हो रही हो, लेकिन इससे पहले भी देश में कई बड़े घोटाले हो चुके हैं। उन पर खूब हो हल्ला हुआ। बड़ी एजेंसियों से जांच कराई गई, लेकिन ज्यादातर मामलों में नतीजा या सिफर ही रहा। जहां तक सजा की बात है तो बड़ी मछलियां अकसर इन मामलों में आजादी से ही घूमती रहीं। पकड़े गए तो छोटे आदे। दुर्भाग्य है कि ये जितने भी घोटाले भारत में हुए, इन सबके मूल में राजनेता ही रहे जिनका कुछ नहीं बिगड़ा। बिहार के 950 करोड़ के चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव को बिहार के मुख्यमंत्री का पद गंवाना पड़ा था। आज की तिथि में भ्रष्टाचार से संबंधित अधिकांश मामलों में वह बरी हो चुके हैं। आय से अधिक संपत्ति के मामले में कब, कोई बरी हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य नहीं होता। भारत जैसे दुनिया के विशालतम लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक, कार्यकारी एवं न्यायिक सत्ता कुर्सी पर बैठे लोगों को प्रचुर शक्तियां प्रदान करती है। भ्रष्टाचार का जन्म कहीं न कहीं सत्ता लोलुप्ता का ही परिणाम होता है। सत्ता की भूख जब-जब हदें पार करती है, वह अकूत ताकत, बेशुमार संपत्ति तथा वह सब कुछ जिसे हमारी परंपरा त्याज्य समझती थी, को समेट लेना चाहती है। ब्रिटिश काल में लॉर्ड एक्टन ने टिप्पणी की थी, ‘सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूरी तरह से भ्रष्ट कर देती है।’ भारत में भ्रष्टाचार का प्रसार सरकारी महकमे में निर्वाचित राजनीतिज्ञों से लेकर उच्च नौकरशाही और निम्न नौकरशाही के विभिन्न स्तरों पर लंबवत रूप में अर्थात ऊपर से नीचे तक फैला है। इसके अलावा न्यायपालिका या मीडिया के कुछ हिस्सों में भी यह अपनी पहुंच बना चुका है। एक मुख्यमंत्री सरकारी भूमि को अपने निजी प्रयोग के लिए वास्तविक मूल्य की चौथाई में खरीदने में सफल हो जाता है। एक अत्यंत वरिष्ठ अधिकारी अपने मकान के निर्माण के लिए निःशुल्क मार्बल, लकड़ी व अन्य चीजों का प्रबंध करता है। एक नवनिर्वाचित स्वतंत्र विधायक को शासक दल का समर्थन करने के लिए  75 लाख से एक करोड़ और मंत्री पद का लोभ दिया जाता है। एक सरकारी दफ्तर में चपरासी फाइल ढूंढने में 500 रुपए मागता है। एक आयकर आयुक्त के निवास पर सीबीआई छापे में करोड़ों की अघोषित संपत्ति मिलती है। ईमानदार राजनीतिज्ञ वर्तमान में लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। भ्रष्ट राजनीतिज्ञ न केवल बेदाग, बिना दंड के बच निकलते हैं, बल्कि वे तो राजनीति के मंच पर सम्माननीय नेता के रूप में अकड़ कर चलते हैं। लाल बहादुर शास्त्री और सरदार वल्लव भाई पटेल जैसे मंत्रियों के उदाहरण कम हैं, जिनकी मृत्यु पर बैंक में जमा राशि नगण्य थी। हमारी इस धरती पर जब एक व्यक्ति बेरोजगारी के कारण अपने भूखे बच्चों की रोटी का प्रबंध करने के लिए चोरी करता है, तो उसको जेल की हवा खानी पड़ती है, जबकि जो लोग देश को दोनों हाथों से लूटने में लगे हैं, वे आज भी सम्मानीय नागरिक होते हैं। भारत में भ्रष्टाचार स्थायी भाव बन चुका है, जिसकी जड़ें गहराई तक पहुंच चुकी हैं और देश को दीमक की तरह चाट रही हैं। कौटिल्य ने तो इस संदर्भ में कहा है कि राजस्व वसूली व व्यय कार्य में संलग्न व्यक्ति के द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को रोकना उतना ही मुश्किल कृत्य है, जितना जीभ पर रखे शहद का स्वाद लेने से जीभ को रोकना। भ्रष्टाचार की जड़ें किसी समाज की सामाजिक, प्रशासनिक प्रथाओं और परंपराओं में होती हैं। भ्रष्टाचार के अनादि स्वरूप के बावजूद भ्रष्टाचार भारत में इतना सर्वव्यापी एवं संस्थागत कभी नहीं था ,जितना कि हाल के दशकों में हो गया है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अगर जनता स्वयं को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं करेगी, तो शासन कभी स्वच्छ नहीं होगा। उन्हें संकल्प लेना पड़ेगा कि वे अपना कोई भी काम करवाने के लिए रिश्वत कभी नहीं देंगे? थोड़ी परेशानी सहेंगे, थोड़ा नुकसान भरेंगे, थोड़ी लड़ाई लड़ेंगे, लेकिन भ्रष्टाचार के आगे घुटने नहीं टेकेंगे। अगर वे ऐसा संकल्प ले लें, तो फिर वे उस हद तक भी जा सकते हैं, जो गांधी जी ने कहा है-उस सरकार को टैक्स देने से मना कर दें जो भ्रष्टाचारियों से पैसा वसूलने या विदेशी बैंकों से हमारा वह पैसा लाने में असमर्थ हैं, जो काले धन के रूप में भ्रष्ट राजनेताओं द्वारा जमा किया गया है। ऐसी तड़क-भड़क वाला और उपभोक्तावादी समाज बनने ही नहीं देंगे, जिसके मूल में प्रलोभन है और जो सारे भ्रष्टाचार की जड़ है।


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