कुलदीप चंद अग्निहोत्री

यदि कोई कला अपने युग को उत्तर नहीं देती तो वह कला न रह कर वल्गर बन जाती है। मुझे नहीं पता लैपिड अपनी फिल्मों में अपने युग को कितनी अभिव्यक्ति देते हैं लेकिन क्या वे सचमुच मानव को, उसके भाव प्रकटीकरण की प्रक्रिया को जानते भी हैं? यह दोष लैपिड का नहीं है बल्कि

पश्चिमी भारत में शिवाजी मराठा ने मुग़लों की नाक में दम किया हुआ था। पश्चिमोत्तर में दशगुरु परम्परा से नई चेतना जागृत हो गई थी जिसके चलते मुगल सत्ता चौकन्ना हो गई थी। अब यदि असम में औरंगजेब जीत जाता तो पूरे भारत में मुग़लों को नई ऊर्जा मिल जाती। इसलिए इस मुगल प्रवाह को

टीआरएस के अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री केसीआर केन्द्र सरकार का मुद्दों पर आधारित समर्थन कर ही रहे थे। लेकिन भाजपा दक्षिण में अन्य पार्टियों के सहारे ज्यादा देर नहीं रह सकती थी। अत: पार्टी ने जैसे ही तेलंगाना में पैठ बनानी शुरू की तो केसीआर भाजपा के खिलाफ हो गए। लेकिन केसीआर यह अनुमान

सेना पर पंजाब के मुसलमानों का कब्जा है और सेना अमेरिका के इशारे पर चलती है। तो सिंध, बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनखवा पाकिस्तान में क्या कर रहे हैं? जम्मू-कश्मीर के जिस हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा जमा रखा है, उस गिलगित-बलतीस्तान में भी शिया मजहब को मानने वाले लोगों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया है।

जब ऋषि ने घोषणा की कि वे इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं, तो पार्टी के भीतर किसी में भी उतना साहस नहीं था कि वे ऋषि को चुनौती दे सकें। पुराने प्रधानमंत्री बोरिस जोहनसन ने शुरू में तो कहा कि वे भी मुकाबले में हैं लेकिन हालत की नजाकत को भांपते हुए वे जल्दी

जब गिनती पूरी हुई तो कुल मिला कर 9385 वोटों में से खडग़े को 7897 वोट मिले। शशि थरूर को 1072 वोट मिले। 416 वोट रद्द कऱार दिए गए क्योंकि वोट डालने वाले को वोट डालना आता नहीं था। वैसे शशि थरूर को बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने पार्टी में परिवार की इजारेदारी के

अरविन्द केजरीवाल इतना तो जानते ही हैं कि उनके ये प्रयोग देश की सामाजिक संरचना में दरारें डालने वाले हो सकते हैं, समरसता के वाहक नहीं। केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि उनके राजेन्द्र पाल के गौतम में और आम्बेडकर के गौतम में जमीन-आसमान का अंतर है। बाबा साहिब का गौतम उनकी लम्बी आध्यात्मिक साधना

यदि पीर पंजाल के पहाड़ी व गुज्जर एसटी का दर्जा पा सकते हैं तो डीएम यानी देसी मुसलमानों के ओबीसी क्यों नहीं? यही डर गुपकार रोड को खा रहा है। यदि ये परिवर्तन हो गए तो एटीएम के बच्चे क्या कश्मीरियों की पत्तलें साफ करेंगे? महबूबा मुफ़्ती को भविष्य की चिंता खा रही है। इसलिए

अशोक गहलोत इस ग़लतफहमी में अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो गए थे कि वे अध्यक्ष के साथ-साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री भी बने रहेंगे। उनको लगता था कि मुख्यमंत्री पद छोडऩे की कथा तो तब शुरू होगी, जब वे कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके होंगे। उस वक्त वे अध्यक्ष की हैसियत से अपने अनुकूल फैसला करवा

इन मुफ्तियों, मौलवियों और काजियों की यही सबसे बड़ी दिक्कत है। वे पांच सौ साल रह कर भी कश्मीरियों की संस्कृतियों को आत्मसात नहीं कर पाए। वे आज भी यही आशा लगाए बैठे हैं कि कश्मीरी कभी न कभी अपनी केसर क्यारियों में से केसर के पौधे उखाड़ कर यहां अरबी खजूरों के पेड़ लगा