आस्था

मिथुन संक्रांति को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर प्रांतों में माता पृथ्वी के वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से जानते हैं। मिथुन संक्रांति उन 12 राशियों में एक है जिसमें सूर्य अलग अलग राशि नक्षत्र पर विराज होता है। इस संक्रांति में दान दक्षिणा, स्नान व पुण्य कमाने का बहुत महत्व रहता है। मिथुन संक्रांति से सौरमंडल में बहुत बड़ा बदलाव आता है, यानी मिथुन संक्रांति के बाद से ही वर्षा होने जल जाती है, जिसे हम वर्षा ऋतु कहते हैं। यह वह दिन होता है जब सूर्य वृषभ राशि से बाहर निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश कर लेता है और सारी राशियों में नक्षत्र की दिशा बद

प्राचीन काल में अलकापुरी में राजा कुबेर के यहां हेम नामक एक माली रहता था। उसका कार्य नित्यप्रति भगवान शंकर के पूजनार्थ मानसरोवर से फूल लाना था। एक दिन उसे अपनी पत्नी के साथ स्वछंद विहार करने के कारण फूल लाने में बहुत परेशानी हो गई। वह दरबार में विलंब से पहुंचा। इससे क्रोधित होकर कुबेर ने उसे कोढ़ी होने का शाप दे दिया। शाप से कोढ़ी होकर हेम माली इधर-उधर भटकता हुआ एक दिन दैवयोग से मार्कंडेय ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा। ऋषि ने अपने योगबल से उसके दुखी होने का कारण जान लिया। तब उन्होंने उसे योगिनी एकादशी का व्रत करने को कहा। व्रत के प्रभाव से हेम माली का कोढ़ समाप्त हो गया और वह दिव्य शरीर धारण कर स्वर्गलोक को प्रस्थान कर गया।

यह एक ऐसी विश्लेषणात्मक दृष्टि है, जो किसी भी विषय की तर्क और प्रमाण के माध्यम से उसकी सार्थकता और सत्यता की खोज करती है। यह विशुद्ध रूप से चिंतन की वह पद्धति है जो पूर्वाग्रह, रूढि़ और अंधविश्वास से ऊपर उठकर युक्तियुक्त निर्णय की संस्कृति को पुष्ट करती है...

फिर भी नवद्वीप, वाराणसी एवं भारत के अन्यान्य स्थानों के पंडितों में विशेषकर संन्यासियों में हम आज भी ऐसे वृद्ध और युवक देख सकते हैं, जो विद्या के लिए भी विद्याभ्यास में रत हैं, ज्ञान के लिए ज्ञानलाभ की तृष्णा में उन्मत्त हैं। ऐसे विद्यार्थी जिन्हें आधुनिक यूरोपीय भावपन हिंदुओं की विशाल सामग्रियों का अभास होने पर भी तथा उनकी अपेक्षा अध्ययन के लिए सहस्र गुना कम सुविधाएं उपलब्ध रहने पर जो रात भर तैलद्वीप के धीमे प्रकाश में हस्तलिखित ग्रंथों का किसी विख्यात अध्यापक की खोज में कोसों भिक्षा पर ही निर्वाह करते हुए पैदल चले जाते हैं एवं जो मन और शरीर की समग्र शक्ति अपने पाठ्य विषय में तब तक नियोजित करते रहते हैं जब तक उनके बाल सफेद नहीं हो जाते तथा उनका शरीर अधिक आयु होने के कारण क्षीण हो जाता।

एक साधु के आश्रम में एक युवक बहुत समय से रहता था। फिर ऐसा संयोग आया कि युवक को आश्रम से विदा होना पड़ा। रात्रि का समय है, बाहर घना अंधेरा है। युवक ने कहा, रोशनी की कुछ व्यवस्था करने की कृपा करें। उस साधु ने एक दीया जलाया, उस युवक के हाथ में दीया दिया और उसे सीढिय़ा उतारने के लिए खुद उसके साथ हो लिया। और जब वह सीढिय़ा पार कर चुका और आश्रम का द्वार भी पार कर चुका, तो उस साधु ने कहा, अब मैं अलग हो जाऊं, क्योंकि इस जीवन के रास्ते पर बहुत दूर तक कोई किसी का साथ नहीं दे सकता है। और अच्छा है कि मैं इसके पहले इससे विदा हो जाऊं कि तुम साथ के आदि हो जाओ। इतना कहकर उस घनी रात में, उसने उसके हाथ के दीये को फूंक मार कर बुझा दिया। वह युवक बोला, यह क्या पागलपन हुआ? अभी तो आश्रम के हम बाहर भी नहीं निकल पाए, साथ भी छोड़ दिया और दीया भी बुझा दिया। उस साधु ने कहा, दूसरों के जलाए हुए दीयों का कोई मूल्य नहीं है। अपनी दीया हो तो अंधे

श्रीश्री रवि शंकर भगवद्गीता में एक सुंदर दोहा है, जिसमें कहा गया है, जो शब्द लोगों के मन को विचलित नहीं करते और जो सत्य हैं, सत्य जो कल्याणकारी है और जो सुखद है, ऐसे शब्द बोलने चाहिए। इसे वाणी का तप कहा जाता है। वाणी के लिए तपस (तपस्या) केवल वही शब्द बोलना है जो दूसरों के मन को झकझोर न दें...

महात्मा फरमाते हैं कि इस संसार में हम मांगते इसलिए हैं कि हम अपनी ‘मैं’ को सिद्ध कर सकें कि हमारे पास किसी भी चीज की कमी नहीं। हमारे पास धन होगा तो हमारी ‘मैं’ बड़ी होगी, हमारे पास पद होगा तो हमारी ‘मैं’ बड़ी होगी। मानो मांग की सारी चेष्टाएं अपनी ‘मैं’ को बड़ा करने की चेष्टाएं हैं। अब हमारी ‘मैं’ हमारे मेरे के भोजन पर जीती है। हमारे अंदर मेरे का जितना विस्तार बढ़ता जाता है उतनी ही मजबूत हमारी ‘मैं’ होती चली जाती है। अत: छोटे मकान वाले की छोटी ‘मैं’ होती है, बड़े मकान वाले की बड़ी ‘मैं’ होती है। मानो छोटी संपत्ति में छोटी ‘मैं’ बड़ी संपत्ति में बड़ी ‘मैं’। हमारे पास जितना होगा ‘परिग्रह’ उतनी ही ‘मैं’ की अ

आंतरिक शांति के लिए देश और दुनिया से हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आना पसंद करते हैं। कैंची धाम मंदिर के स्थापना दिवस के अवसर पर हर साल यहां 15 जून को एक बड़ा मेला लगता है। इस मेले में बड़ी संख्या में भक्त पहुंचते हैं और नीम करोली बाबा के दर्शन करते हैं...

सीताबाड़ी राजस्थान के बारां से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जिसका संबंध सीता माता से जुड़ा है। सीता माता को एक आदर्श पत्नी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने कभी अपने सतीत्व को भंग नहीं किया। रावण की कैद में रहने के बाद भी वह सदैव पतिव्रता नारी रहीं...