प्रतिबिम्ब

मुरारी शर्मा के संपादकत्व में प्रतिबिंब के पोस्टमार्टम के बहाने टिप्पणी आवश्यक जान पड़ती है। हिमाचल प्रदेश में दिव्य हिमाचल दैनिक अपने जन्म से लेकर आज तक निरंतर साहित्य कला संस्कृति का पक्षधर तो है ही साथ में संवेदना, सत्य-न्याय, जल-जंगल-जमीन जंतुओं का रक्षक, जन आंदोलनों का समर्थक भी रहा है। प्रारंभ से साहित्य और

नवनीत शर्मा विशुद्ध पारिभाषिक सारांशों से बचते हुए यह सभी मानेंगे कि साहित्य और मीडिया दोनों अपने समय और समाज के दर्पण हैं। इस नाते दोनों की प्रकृति और प्रवृत्ति एक सी लगती है। साहित्य धीमा चलता है लेकिन उसका असर जहां तक वह पहुंच पाता है, वहां तक मुकम्मल ही रहता है। मीडिया में

नासिर युसुफजई साहित्य समाज का आईना होता है, जो अपने समय के समाज का इतिहास, कला एवं संस्कृति का सच्चा स्वरूप दर्शाता है। यह अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ माध्यम भी है।  ाहित्य प्रायः समाचार-पत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओं, संग्रहों और रचनाकारों की पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचता है। एक समय था जब स्तरीय साहित्य पढ़ा जाता

मीडिया और साहित्य को मैं एक दूसरे का पूरक मानता हूं यानी एक ही सिक्के के दो पहलू। मीडिया कर्मी और साहित्यकार दोनों का समाज की नब्ज पर हाथ रहता है। समाज के भीतर क्या कुछ पल रहा है, दोनों इसकी टोह लेते रहते हैं। भारत में एक दौर ऐसा भी था जब अधिकतर समाचार-पत्रों

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के व्यक्तित्व में साहित्य और पत्रकारिता का मणिकांचन संयोग देखने को मिलता है। अज्ञेय को प्रतिभा सम्पन्न कवि, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबंधकार, संपादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक

अजय पराशर अतिथि संपादक शब्द को ब्रह्म मानने वाली भारतीय परंपरा अभिव्यक्ति के माध्यमों को लेकर भी बहुत सजग रही है। इस परंपरा में शब्दों का अपव्यय एक अक्षम्य अपराध था और असामयिक उपयोग एक हिंसा। इतनी सजग विरासत का वारिस होने के बावजूद आधुनिक संदर्भों में हम इसका उपयोग नहीं कर सके। साहित्य और

अनुपम मिश्र को पर्यावरणविद के रूप में ही प्रसिद्धि मिली, लेकिन ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ और ‘साफ माथे का समाज’ जैसी पुस्तकें उन्हें उत्कृष्ट साहित्यकार और चिंतक के रूप में भी स्थापित करती हैं। वह लोक जीवन और लोक ज्ञान के साधक रहे। उनका मानना था कि पर्यावरणीय समस्याओं का

सुरेश सेन निशांत हमेशा जन के लिए लिखा जाता है और ऐसा साहित्य संघर्षों से उपजता है। इसलिए ऐसे साहित्य को किसी प्रोमोशन की जरूरत नहीं। भला कबीर का साहित्य किसी अकादमी विभाग या संस्था के कारण जिंदा रहा …? कदापि नहीं। वह जिंदा रहा जन के बीच …उनके मन में । सदियों के बाद

मुरारी शर्मा अतिथि संपादक सही नब्ज पकड़ना, भले ही वह व्यक्ति की हो अथवा समाज की, भारत में विशेषज्ञता का एक पैमाना रहा है। एक वैद्य सही नब्ज पकड़ ले तो रोगी का स्वस्थ होना तय है। ठीक इसी तरह समाज की सही नब्ज पकड़ते ही साहित्यकार आईना बन जाता है, संवेदना की मरहम पट्टी