संपादकीय

राष्ट्रीय परिधान से कहीं भिन्न हैं हिमाचल में सत्ता के वादों के रंग और यही दस्तूर सरकार के आईने में उजली छवि के दस्तावेज बन जाते हैं। इन्हीं दस्तावेजों की पालकी सजाए पुन: मंत्रिमंडल की बैठक ने रुकी हुई सरकारी नौकरियों की धडक़न तेज कर दी है। पुलिस भर्ती के माध्यम से 1226 कांस्टेबलों को नियमित वेतन की वर्दी पहनाने के अलावा यह भी सुनिश्चित हो रहा है कि आइंदा तीस प्रतिशत ऐसे पद महिलाओं के बीच आबंटित होंगे। नारी चरित्र में कानून के पहरों का सामाजिक व मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखते हुए यह फैसला घर-परिवार में बेटियों के अस्तित्व व स्वाभिमान को ऊंचा कर रहा है। यह स्वाभाविक क्षमता है जिसके तहत हिमाचली बेटियां कल तक पुरुष क्षेत्र के लिए समझे गए दायित्व में अपनी श्रेष्ठता की नई क

जातीय गणना का मुद्दा, राज्यों के चुनाव में, फ्लॉप रहा। हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का अनुसरण करते हुए जातीय गणना का मुद्दा खूब उछाला गया। यहां तक वायदा किया गया कि 2024 में केंद्र में विपक्ष की सरकार बनी, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना कराई जाएगी। इस पर आरक्षित जमात के युवाओं ने भी कांग्रेस को समर्थन नहीं दिया। हालांकि विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में जातीय गणना को ‘तुरुप के पत्ते’ के तौर पर ग्रहण किया गया था, लेकिन बिहार के अलावा किसी अन्य राज्य में जातिगत सर्वे नहीं कराए गए। कांग्रेस ने मप्र, राजस्थान और छत्ती

जिस तीन दिसंबर पर आकर देश का रथ खड़ा था, वहां अब 2024 के सफर का सारा कारवां बदल रहा है। पांच राज्यों के चुनाव में डंके की चोट पर कोई तो चोटिल हुआ। देश को बदलने की राजनीतिक मंशा में कहीं तो कांग्रेस अपने बुनियादी प्रश्रों से घायल और अपाहिज नजर आई। खास तौर पर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई सेंधमारी बताती है कि भाजपा की चुनावी मशीनरी बेहतर नहीं, घातक भी है। अब इसमें शंका करने की वजह घट रही है कि भाजपा का यही अभियान 2024 के चुनावी मैदान में भारी नहीं पड़ेगा। देश के मुद्दे एक तरफ, दाल-आटा एक तरफ, लेकिन भूगोल से गणित तक भाजपा अपने लिए पैरवी का ऐसा मजमून बनाती है, जिसके आगे कांग्रेस गच्चा खा रही है। कम से कम विपक्ष में एक साथ खड़ा होने के सपने तो चूर-चूर हो रहे हैं। यकीनन सियासत बदल गई है, लेकिन कांग्रेस फिर अपनी ही पिच पर यह भूल जाती है कि सामने खिला

पहली बार किसी गैर सरकारी संगठन ने अपने दायित्व की मचान पर दूर तक देखा, न•ार आया कि इस तरह चलें तो मंजिलें आसमान तक पहुंच जाएंगी। धर्मशाला युद्ध स्मारक की देखरेख और प्रबंधन कर रही युद्ध स्मारक विकास समिति ने इसके विस्तार को ‘अंतरराष्ट्रीय शौर्य पर्यटन’ का मक्का बनाने की ठान ली है। पिछले एक दशक में स्मारक में आए बदलाव व निखार अब ऐसे मुकाम को आवाज देने लगे हैं कि आने वाले समय में वीर योद्धाओं का यह प्रदेश, इस स्मारक की वजह से राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन जाएगा। सोसायटी ने बारह लाख खर्च करके एक ऐसा मास्ट

राज्यों के विधानसभा चुनावों के जनादेश प्रमुख तौर पर भाजपा के नाम ही रहे। पार्टी ने उत्तर भारत के दो बड़े और प्रमुख राज्यों-मध्यप्रदेश और राजस्थान-में जनादेश हासिल किया है। मप्र में तो 160 से अधिक सीट जीत कर भाजपा को ‘प्रचंड बहुमत’ मिला है, जबकि राजस्थान में 110 से अधिक सीटों का स्पष्ट बहुमत

हिमाचल में अब यह पूछे जाने का वक्त आ गया है कि क्या यहां सरकार के भीतर मंत्रियों की आवश्यकता रही है या नहीं। जितने तर्कों से मंत्री ढूंढे जाते हैं, क्या उतने ही औचित्यपूर्ण ढंग से ये काम भी कर पाते हैं। कम से कम पूरे प्रदेश की दृष्टि में हिमाचल के मंत्रियों को कभी भी पूर्ण नहीं माना गया, जबकि विभागीय दायित्व से भी कई मंत्री दूर या कमजोर दिखाई दिए। इसका एक कारण छोटे राज्य की राजनीति या राजनीति में असुरक्षा की भावना रही, फिर भी कुछ मंत्रियों की छवि, उनका व्यवहार तथा विभागीय समझ का बोलबाला रहा है। दरअसल हिमाचल के भीतर उभरता क्षेत्रवाद हमेशा सरकारों के मंत्रिमंडल में देखा व समझा गया। दूसरी ओर सत्ता के शिखर ने हमेशा मुख्यमंत्री के पद को

पांच राज्यों-मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम-में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी है। अब 3 दिसंबर को जनादेश सार्वजनिक किए जाएंगे, लेकिन मतदान के बाद एग्जिट पोल के अनुमान चौंका देने वाले हैं। हालांकि विभिन्न अनुमानों में विरोधाभास हैं। निष्कर्ष भी विभाजित हैं, लेकिन एक चुनावी रुझान स्पष्ट हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के संबोधनों का असर कहीं 20 फीसदी के करीब है, तो किसी राज्य में 5 फीसदी का अनुमान लगाया गया है। प्रधानमंत्री के चेहरे और संबोधन से भाजपा को अब भी वोट मिल रहे हैं, यह निश्चित लगता है। एग्जिट पोल की परंपरा भारत में नहीं थी। यह चुनावी मूल्यांकन की पश्चिमी पद्धति है, लेकिन वहां काफी सटीक साबित होती रही है। हमारे देश में भी कुछ चुनावी अनुमान 65 फीसदी से 95 फीसदी तक सही रहे हैं, लिहाजा एग्जिट पोल को नकारा नहीं जा सक

उत्तराखंड की उत्तरकाशी सुरंग के निर्माण से जुड़ी अनियमितताओं और अहम शर्तों, प्रावधानों की अनदेखी पर सवाल करना उतना ही उचित है, जितना फंसे 41 मजदूरों की जिंदगियां बचाना जरूरी था। चूंकि सर्वोच्च अदालत उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सुरंग बनाने और मार्गों के विस्तार के खिलाफ नहीं है, लेकिन उसके फैसले आते रहे हैं कि निर्माण-कार्य, मानकों की तुलना में, घटिया स्तर के हैं, लिहाजा पहाड़ और मानवीय जीवन लगातार खतरे में बने रहे हैं। सर्वोच्च अदालत ने फैसलों के अलावा, विशेषज्ञ समितियां भी बनाईं, लेकिन सभी के निष्कर्ष कमोबेश यही रहे हैं। अलबत्ता वे

स्कूली शिक्षा के चरम बिंदु पर कलस्टर के अधीन प्राथमिक स्कूलों को छांव मुहैया करवाई जा रही है, यानी कुछ ऐसी सीढिय़ां विकसित की जा रही हैं जो व्यवस्था को मुकम्मल करेंगी। राज्य के जमा दो, हाई व मिडल स्कूल अपने दायरे के आधा किलोमीटर तक आने वाले प्राइमरी स्कूलों के अभिभावक बन जाएंगे। इस तरह अब करीब पांच हजार संस्थानों के तहत शिक्षा की बुनियादी प्रश्र हल होंगे, हालांकि अतीत में भी एक ही स्कूल के तहत छात्र जीवन की सीढिय़ां मुकम्मल होती थीं। शिक्षा की मात्रात्मक वृद्धि ने अब फिर गुणात्मक अर्थ पुख्ता करने के लिए उन्हीं रास्तों को चुना है, जो पहले मंजिलों के वाहक रहे। जाहिर है कलस्टर पद्धति से शिक्षा का उच्चारण ही एक जैसा नहीं होगा, बल्कि प्रबंधन, अनुशासन व वित्तीय उपयोगि