प्रतिबिम्ब

कहां से आए बादल काले? कजरारे मतवाले! शूल भरा जग, धूल भरा नभ, झुलसीं देख दिशाएं निष्प्रभ, सागर में क्या सो न सके यह करुणा के रखवाले? आंसू का तन, विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण, धीर पदों से छोड़ चले घर, दुख-पाथेय संभाले! लांघ क्षितिज की अंतिम दहली, भेंट ज्वाल की बेला

गुरु दत्त फिल्म निर्माता-निर्देशक और अभिनेता थे। ‘गुरु दत्त’ का वास्तविक नाम ‘वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण’ था। गुरु दत्त अपने आप में एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे। वे विश्व स्तरीय फिल्म निर्माता और निर्देशक थे। साथ ही उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक हमें उनकी सभी फिल्मों में

बारिश की बूंदों से धरती पर ही कोंपलें नहीं फूटतीं, मन की मिट्टी में भी नवांकुर निकल आते हैं। इस मौसम में सृजनात्मकता अपने चरम पर होती है। प्रकृति के सभी अंग-उपांग सक्रिय हो जाते हैं और इसी कारण, धरती  सोलह शृंगार करके नववधू जैसी बन जाती है। सृजन का यह मौसम हमारे अंतस में

ये मेघ साहसिक सैलानी! ये तरल वाष्प से लदे हुए द्रुत सांसों से लालसा भरे, ये ढीठ समीरण के झोंके, कंटकित हुए रोएं तन के किन अदृश करों से आलोडि़त स्मृति शेफाली के फूल झरे! झर-झर झर-झर अप्रतिहत स्वर जीवन की गति आनी-जानी! झर – नदी कूल के झर नरसल झर – उमड़ा हुआ नदी

बना बना कर चित्र सलोने यह सूना आकाश सजाया राग दिखाया रंग दिखाया क्षण-क्षण छवि से चित्त चुराया बादल चले गए वे आसमान अब नीला-नीला एक रंग रस श्याम सजीला धरती पीली हरी रसीली शिशिर-प्रभात समुज्जल गीला बादल चले गए वे दो दिन दुख के दो दिन सुख के दुख सुख दोनो संगी जग में

पी के फूटे आज प्यार के पानी बरसा री हरियाली छा गई, हमारे सावन सरसा री बादल छाए आसमान में, धरती फूली री भरी सुहागिन, आज मांग में भूली-भूली री बिजली चमकी भाग सरीखी, दादुर बोले री अंध प्रान-सी बही, उड़े पंछी अनमोले री छिन-छिन उठी हिलोर मगन-मन पागल दरसा री फिसली-सी पगडंडी, खिसकी आंख

देवकीनंदन खत्री  हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होंने ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संतति’, काजर की कोठरी’, ‘नरेंद्र-मोहिनी’, ‘कुसुम कुमारी’, ‘वीरेंद्र वीर’, , ‘कटोरा भर’ और ‘भूतनाथ’ जैसी रचनाएं कीं। ‘भूतनाथ’ को उनके पुत्र ‘दुर्गा प्रसाद खत्री’ ने पूरा किया था। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उनके उपन्यास ‘चंद्रकांता’ का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास

कुलदीप चंदेल, अतिथि संपादकविस्थापन प्रायः विवशताओं से उपजता है। बाध्यताओं के कारण शरीर तो एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है, लेकिन स्मृतियां अपनी जड़ों में उलझी रहती हैं। वे बार-बार उस परिवेश की तरफ लौटना चाहती हैं, जिसने उन्हें गढ़ा है। यह आकर्षण शारीरिक सुख-सुविधाओं के अंबार के बीच भी व्यक्ति को लहूलुहान

मैं हूं एक ऐसी पौध जो अपनी ही जमीन से उखाड़ कर बेदखली के रूप रोपित कर दी गई पराई जमीन पर हवा, पानी, खाद भी जिंदा न रख पाई मुझे क्योंकि  अपनी ही जड़ों से कटी तलाशती रही ताउम्र अपनी पुश्तैनी जड़ें बिन पुष्पित, पल्लवित ढूंढ बन रह गई, एक पेड़ बनने की आस