आक्रमणकारी कौन थे? किसलिए गुरु जी को मारना चाहते थे? इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद पाया जाता है, परन्तु प्राय: कहा जाता है कि पठान सरहिन्द के नवाब ने गुरु जी की हत्या के लिए भेजे थे। देहावसान के समय गुरु जी की आयु 42 वर्ष की थी और विक्रमी 1765 की शुचि पंचमी थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के दक्षिण प्रयाण से भारतीय इतिहास ने नई करवट ली। उन्होंने बंदा बैरागी को जो सीख दी, उससे बंदा बैरागी ने स्वाधीनता के संघर्ष का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करता है। इसी तरह गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान भी भारतवासियों को सीख देता है। बलिदानों की यह परंपरा गुरु गोबिंद सिंह जी ने जारी रखी...
ब्राह्मणों ने अत्याचारों की लंबी गाथा बताई। अकल्पनीय अत्याचारों की यथार्थता का बोध कराया। धर्म परिवर्तन की मदांधता का वेग बताया। हिंदू जाति पर हो रहे अत्याचारों को सुनकर गुरु तेग बहादुर गंभीर हो गए।
अमेरिका के इन सात सूबों को छोडक़र शेष 43 सूबों में परम्परा से ही निश्चित है कि किस सूबे से डेमोक्रेटिक जीतेंगे और किस सूबे से रिपब्लिकन जीतेंगे। इसलिए सारा दारोमदार इन सात स्विंग स्टेट पर रहता है...
इतनी विवेचना के बाद भी मेरा कहना है कि शहजाद पूनावाला जो कह रहे हैं कि पसमांदा होने के कारण उनसे मुसलमान भेदभाव कर रहे हैं, वह शत-प्रतिशत सही है। बस फर्क इतना ही है कि पूनावाला को लगता है कि तथाकथित छोटी जातियों से इस्लाम में चले जाने वाले देसी मुसलमानों से ही भेदभाव किया जाता है। जमीनी असलियत यह है कि अरब मूल के सैयदों व शेखों के लिए हर देसी मुसलमान पसमांदा ही है, चाहे वह ब्राह्मण या राजपूत, पश्तून या बलोच बिरादरी से ही इस्लाम पंथ में क्यों न गया हो। उनके लिए क्या पठान, क्या ‘बिरहमन’, सब दोयम दर्जे के ही हैं। यह अलग बात है कि पश्तून या ब्राह्मण सैयदों या शेखों के बराबर बैठने की बचकानी हरकतें करते रहें...
यह पहली बार हुआ कि इतने ज्यादा विधायकों ने कश्मीरी भाषा में शपथ ली। यहां तक कि मुश्किल से कश्मीरी भाषा बोलने वाले उमर अब्दुल्ला ने विधायक पद की शपथ कश्मीरी में ली..
कुल मिलाकर यदि पूरे जम्मू-कश्मीर की बात की जाए तो वहां प्रदेश की राजनीति भाजपा और नेशनल कान्फ्रेंस के बीच सीमित होती जा रही है। यदि संभाग के अनुसार आकलन किया जाए तो जम्मू संभाग में मामला भाजपा और कांग्रेस के बीच है और कश्मीर संभाग में नेशनल कान्फ्रेंस दिखाई देती है...
अरबों में हजरत मोहम्मद के उत्तराधिकारी को लेकर विवाद तो उनके देहावसान के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था। अरबों के बड़े व ताकतवर कबीलों ने हजरत मोहम्मद (उनका कोई बेटा नहीं था) के दामाद हजरत अली को उत्तराधिकारी, जिसे खलीफा कहा गया, मानने से इन्कार कर दिया। यह स्थान अबू बकर को दिया गया। इसके बाद भी बारी हजरत उमर और उस्मान की ही आई। हजरत अली को दूर ही रखा गया। तीसरे खलीफा के देहांत के बाद अली खलीफा तो बना दिए गए, लेकि
पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान अपनी सम्पत्ति मजहबी संस्थाओं के लिए दान करके नहीं गए थे। वे अपनी इच्छा या विवशता में भारत विरोध के कारण पाकिस्तान गए थे। इसलिए इस्लाम की मंशा के अनुसार भी उनकी सम्पत्ति वक्फ की तो हो ही नहीं सकती थी। वह सरकार के पास जानी चाहिए थी। लेकिन कांग्रेस भी अंग्रेज सरकार की तरह देसी मुसलमानों पर शिकंजा बनाने के लिए सैयदों और शेखों के आगे ही सिजदा करने लगी थी...
राहुल गांधी की उम्र पचपन को छू गई, लेकिन कांग्रेस सांसदों की संख्या सौ को नहीं छू पाई। इतिहास 1947 के मोड़ पर ही पहुंच गया है। उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरु की उम्र 57 साल की थी और उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए लार्ड माऊंटबेटन और श्रीमती माऊंटबेटन के मोहरे बन कर देश विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। अब उन्हीं के वंशज राहुल गांधी उम्र के उसी मोड़ पर पहुंच गए हैं। वर्ष 2029 को जब अगले लोकसभा चुनाव होंगे, तो उनकी उम्र साठ साल के आसपास
दरअसल ममता जानती हैं कि बंगाल सरकार के सभी अवरोधों के चलते भी सीबीआई पर्दे के बाहर के और पर्दे के अंदर के अपराधियों को ही पकडऩे का प्रयास कर रही है। उसी से ध्यान बंटाने के लिए ममता अपने पुराने घिसे पिटे हथकंडे अपना रही हैं...