प्रताप सिंह पटियाल

मौजूदा दौर में जम्मू-कश्मीर राज्य के सियासी रहनुमां जश्न-ए-जम्हूरिया मना रहे हैं, मगर 1947-48 के युद्ध में कश्मीर के मुहाफिज शेर जंग थापा, कमान सिंह पठानिया, अनंत सिंह पठानिया, ठाकुर पृथी चंद व खुशाल ठाकुर की शूरवीरता पर गुमनामी का तमस छा चुका है...

मुल्क के इंतखाबी दौर में यदि बेतुकी बयानबाजी नहीं होगी तो सियासी हरारत का एक मजमून अधूरा रह जाएगा। सियासी रहनुमां की तकरीर में जहरीले बोल तथा जराफत भरे अंदाज का संगम नहीं होगा तो सियासी अंजुमन की आंखें उदास रह जाएंगी। चुनावी तशहीर में अपने मुखालिफ पर जुबान नहीं फिसलेगी या तोहमतों से भरे इल्जाम नहीं बरसेंगे तो सियासत की तबीयत नासाज हो जाएगी। इंतखाबी दौर में दहशतगर्दों की मौत का मातम नहीं मनाया जाएगा तो सियासत की तौहीन हो जाएगी। जम्हूरियत के महापर्व में यदि आब-ए-तल्ख की महफिल नहीं सजेगी तो सियासी बज्म का रंग फीका रह जाएगा। सियासी मुजाहिरों में यदि जाति, मजहब, आरक्षण, संविधा

प्राचीन भारत में विद्याध्ययन केंद्रों की स्थापना तथा गुरु-शिष्य संस्कारों की परंपरा को विस्तार देने में महर्षि वेदव्यास, शौनक, धौम्य, उद्दालक, वैश्म्पायन व बहुश्रुति जैसे प्रतिष्ठित आचार्यों तथा गार्गी, मैत्रेयी व विश्ववारा जैसी ऋषिकाओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था...

बहरहाल कई देशों में आतंक व मजहबी उन्माद का शिकार होकर बेवतन हो रहे मजलूमों को शरण देकर भारत एक मुद्दत से मानवता के तकाजे निभा रहा है। लेकिन पड़ोसी मुल्कों पर चीन का दबदबा तथा विदेशी खूफिया एजेंसियों की बढ़ती पैठ से उत्पन्न माहौल भारत की सुरक्षा को सीधी चुनौती है...

मायानगरी के अदाकार लाहौर की ‘हीरामंडी’ पर फिल्में जरूर बनाते हैं, मगर 1965 की जंग में लाहौर के बुर्की, डोगराई, बाटापुरा व सियालकोट तथा हाजीपीर क्षेत्रों पर कब्जा करके पाकिस्तान का भूगोल तब्दील करने वाले शूरवीरों को राष्ट्र भूल चुका है। इन शूरवीरों को सम्मानित किया जाना चाहिए...

प्रश्न यह है कि क्या विश्व को तीसरी आलमी जंग के मुहाने पर ले जा रहे बड़े देशों के हुक्मरानों के जहन में युद्ध के बजाय बुद्ध की चेतना जागृत होगी? क्या भारत दुनिया को महात्मा बुद्ध, महावीर व महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों के शांति संदेश देकर मानवता के तकाजे निभाता रहेगा...

भारत की महानता केवल ब्रह्मांड के ज्ञान से भरपूर वेदों, पुराणों, उपनिषदों व श्रीमद्भागवदगीता जैसे महान ग्रंथों में ही लिपिबद्ध नहीं है, बल्कि प्राचीन से समूची दुनिया का नेतृत्व करने वाले ‘विश्व गुरु’ भारत की राष्ट्रवादी विचारधारा, शिक्षा, संस्कृति व संस्कारों का अक्स धरातल पर आज भी दिखाई देता है। अलबत्ता भारत ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की नीति व ‘अतिथि देवो भव’ की पुरातन परंपरा को वर्तमान में भी निभा रहा है, लेकिन हालात बदल चुके हैं...

एक सौ पचास करोड़ की आबादी वाले भारत में खेल प्रतिभाओं की खेल क्षमता में कमी नहीं है, लेकिन ओलंपिक जैसे वैश्विक खेल पटल पर तिरंगा फहराने के लिए खिलाडिय़ों को खेल प्रतिभाओं के खेल हुनर का सामना करना पड़ता है...

भारत के पड़ोसी मुल्कों तथा कई अन्य देशों में विदेशी खूफिया एजेंसियां भारत विरोधी ताकतों की हिमायत कर रही हैं। अत: विश्व की चौथी ताकतवर सैन्यशक्ति की हैसियत रखने वाले भारत को अपनी ताकत का एहसास कराना होगा। देश के सियासी नेतृत्व को आगामी नीति पर विचार करना चाहिए...

उन क्रांतिवीरों के नाम पर कोई बड़ा शिक्षण संस्थान, खेल स्टेडियम या राष्ट्रीय राजमार्ग भी नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ लडऩे वाले वजीर राम सिंह पठानिया, मेजर दुर्गामल व कैप्टन दल बहादुर के बलिदान से युवा पीढ़ी परिचित है...