संपादकीय

ये कुंठित और घिसे-पिटे आरोप हैं। चुनावी जनादेश के बाद मतदान की ईवीएम को कोसना विपक्ष की फितरत रही है। उसके आरोप रहे हैं कि ईवीएम में चिप का इस्तेमाल किया जाता है, लिहाजा उसे ‘हैक’ किया जा सकता है। ऐसी दलीलें दी जाती रही हैं मानो देश भर की ईवीएम में भाजपा घुस कर बैठी है और वह जनादेश को पलट देती है। यह हमारे लोकतंत्र और करोड़ों मतदाताओं का अपमान भी है। दिसंबर, 1998 में ‘जनप्रतिनिधित्व कानून’ में संशोधन किया गया था और बैलेट पेपर के स्थान पर ईवीएम के जरिए मतदान करने की व्यवस्था लागू की गई थी। उसके बाद 2004 का लोकसभा चुनाव सब

समाज में लोकतांत्रिक मूल्य और समुदाय में प्रदेश की छवि को निहारने के लिए स्थनीय निकाय अपने चुनावों के मार्फत मूल्यांकन करते रहते हैं और इसी कड़ी में नगर निगम मेयरों की नुमाइश में सियासी संस्कृति की घुसपैठ देखी जा सकती है। दरअसल जिस बिसात तक मेयर चुनने की तफतीश ले आए हैं, वहां मुद्दे नहीं मंडी के हिसाब से बिकने की नौबत आन खड़ी हुई है। आखिर जनता के पास अब तो इतना कौशल भी नहीं बचा कि वह योग्यता व दक्षता के आधार पर अपने लिए पार्षद चुन सके, तो मेयर चुनना उसके लिए एक अद्भुत लाटरी सरीखा हो गया। पार्षदों की संख्या में मेयर की बाजी अब विधायक के मत से दखलंदाजी हो गई या यही करिश्मा निगम को महज एक चुनाव बना रहा है। धर्मशा

मिजोरम में पांच साल पुराने क्षेत्रीय दल ‘जोराम पीपुल्स मूवमेंट’ (जेडपीएम) को जनादेश देकर 35 साल पुरानी राजनीतिक जुगलबंदी को तोड़ा गया है। यह एक नए क्षेत्रीय दल की नाटकीय जीत है। जेडपीएम के पक्ष में ऐसी लहर थी, जिसमें मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी पराजित हो गए। मिजो नेशनल फ्रंट जैसे ताकतवर दल का लगभग सूपड़ा साफ हो गया। भाजपा और कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय दलों के हिस्से क्रमश: 2 और 1 सीट ही आई। अब मुख्यमंत्री पद पर एक नया चेहरा होगा-लालदुहोमा। अभी तक सत्ता की बंदरबांट जोरमथांगा और ललथनहवला के बीच जारी र

राष्ट्रीय परिधान से कहीं भिन्न हैं हिमाचल में सत्ता के वादों के रंग और यही दस्तूर सरकार के आईने में उजली छवि के दस्तावेज बन जाते हैं। इन्हीं दस्तावेजों की पालकी सजाए पुन: मंत्रिमंडल की बैठक ने रुकी हुई सरकारी नौकरियों की धडक़न तेज कर दी है। पुलिस भर्ती के माध्यम से 1226 कांस्टेबलों को नियमित वेतन की वर्दी पहनाने के अलावा यह भी सुनिश्चित हो रहा है कि आइंदा तीस प्रतिशत ऐसे पद महिलाओं के बीच आबंटित होंगे। नारी चरित्र में कानून के पहरों का सामाजिक व मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखते हुए यह फैसला घर-परिवार में बेटियों के अस्तित्व व स्वाभिमान को ऊंचा कर रहा है। यह स्वाभाविक क्षमता है जिसके तहत हिमाचली बेटियां कल तक पुरुष क्षेत्र के लिए समझे गए दायित्व में अपनी श्रेष्ठता की नई क

जातीय गणना का मुद्दा, राज्यों के चुनाव में, फ्लॉप रहा। हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का अनुसरण करते हुए जातीय गणना का मुद्दा खूब उछाला गया। यहां तक वायदा किया गया कि 2024 में केंद्र में विपक्ष की सरकार बनी, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना कराई जाएगी। इस पर आरक्षित जमात के युवाओं ने भी कांग्रेस को समर्थन नहीं दिया। हालांकि विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में जातीय गणना को ‘तुरुप के पत्ते’ के तौर पर ग्रहण किया गया था, लेकिन बिहार के अलावा किसी अन्य राज्य में जातिगत सर्वे नहीं कराए गए। कांग्रेस ने मप्र, राजस्थान और छत्ती

जिस तीन दिसंबर पर आकर देश का रथ खड़ा था, वहां अब 2024 के सफर का सारा कारवां बदल रहा है। पांच राज्यों के चुनाव में डंके की चोट पर कोई तो चोटिल हुआ। देश को बदलने की राजनीतिक मंशा में कहीं तो कांग्रेस अपने बुनियादी प्रश्रों से घायल और अपाहिज नजर आई। खास तौर पर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई सेंधमारी बताती है कि भाजपा की चुनावी मशीनरी बेहतर नहीं, घातक भी है। अब इसमें शंका करने की वजह घट रही है कि भाजपा का यही अभियान 2024 के चुनावी मैदान में भारी नहीं पड़ेगा। देश के मुद्दे एक तरफ, दाल-आटा एक तरफ, लेकिन भूगोल से गणित तक भाजपा अपने लिए पैरवी का ऐसा मजमून बनाती है, जिसके आगे कांग्रेस गच्चा खा रही है। कम से कम विपक्ष में एक साथ खड़ा होने के सपने तो चूर-चूर हो रहे हैं। यकीनन सियासत बदल गई है, लेकिन कांग्रेस फिर अपनी ही पिच पर यह भूल जाती है कि सामने खिला

पहली बार किसी गैर सरकारी संगठन ने अपने दायित्व की मचान पर दूर तक देखा, न•ार आया कि इस तरह चलें तो मंजिलें आसमान तक पहुंच जाएंगी। धर्मशाला युद्ध स्मारक की देखरेख और प्रबंधन कर रही युद्ध स्मारक विकास समिति ने इसके विस्तार को ‘अंतरराष्ट्रीय शौर्य पर्यटन’ का मक्का बनाने की ठान ली है। पिछले एक दशक में स्मारक में आए बदलाव व निखार अब ऐसे मुकाम को आवाज देने लगे हैं कि आने वाले समय में वीर योद्धाओं का यह प्रदेश, इस स्मारक की वजह से राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन जाएगा। सोसायटी ने बारह लाख खर्च करके एक ऐसा मास्ट

राज्यों के विधानसभा चुनावों के जनादेश प्रमुख तौर पर भाजपा के नाम ही रहे। पार्टी ने उत्तर भारत के दो बड़े और प्रमुख राज्यों-मध्यप्रदेश और राजस्थान-में जनादेश हासिल किया है। मप्र में तो 160 से अधिक सीट जीत कर भाजपा को ‘प्रचंड बहुमत’ मिला है, जबकि राजस्थान में 110 से अधिक सीटों का स्पष्ट बहुमत

हिमाचल में अब यह पूछे जाने का वक्त आ गया है कि क्या यहां सरकार के भीतर मंत्रियों की आवश्यकता रही है या नहीं। जितने तर्कों से मंत्री ढूंढे जाते हैं, क्या उतने ही औचित्यपूर्ण ढंग से ये काम भी कर पाते हैं। कम से कम पूरे प्रदेश की दृष्टि में हिमाचल के मंत्रियों को कभी भी पूर्ण नहीं माना गया, जबकि विभागीय दायित्व से भी कई मंत्री दूर या कमजोर दिखाई दिए। इसका एक कारण छोटे राज्य की राजनीति या राजनीति में असुरक्षा की भावना रही, फिर भी कुछ मंत्रियों की छवि, उनका व्यवहार तथा विभागीय समझ का बोलबाला रहा है। दरअसल हिमाचल के भीतर उभरता क्षेत्रवाद हमेशा सरकारों के मंत्रिमंडल में देखा व समझा गया। दूसरी ओर सत्ता के शिखर ने हमेशा मुख्यमंत्री के पद को