वैचारिक लेख

हाल ही में 24 मई को नीति आयोग ने बताया कि जापान को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और आगामी 2.5 से 3 सालों में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में रेखांकित होते हुए भी दिखाई दे सकेगा। इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि 26 मई को दुनिया के ख्याति प्राप्त अरबपति निवेशक मार्क मोबियस ने कहा कि जापान को पछाड़ते हुए चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना भारत की एक अविश्वसनीय उपलब्धि है। वास्तव में भारत के विश्व की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में आगे बढऩे के पीछे जो प्रमुख कारण हैं, उनमें 140 करोड़ की जनसंख्या, देश के मध्यम वर्ग की बढ़ती क्रयशक्ति, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूरदर्शी नेतृत्व और मजबूत आर्थिक नीतियां शामिल हैं। साथ ही इस समय भारत जिस ऊंची विकास दर और आ

रक्षा विश्लेषकों का मानना है कि भारत को अपनी साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष युद्ध क्षमताओं को मजबूत करना होगा। भारत को अपनी सुरक्षा एवं कूटनीतिक तैयारियों में किसी प्रकार की ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए। यह अभियान न केवल वर्तमान में भारत के बढ़ते प्रभुत्व का द्योतक है, बल्कि भावी पीढिय़ों के लिए एक प्रेरक गाथा भी है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत ने यह सिद्ध कर दिया कि वह न केवल अपने नागरिकों की सुरक्षा के प्रति समर्पित है, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता का भी संरक्षक है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि आधुनिक युद्ध केवल सैन्य बल तक सीमित नहीं, बल्कि तकनीकी वर्चस्व पर भी निर्भर करते हैं...

अचानक मुद्दों ने उछलना बंद कर दिया। विपक्ष की निगरानी में अनेकों मुद्दे असहाय हो चुके थे। सारा का सारा स्टॉक खराब हो रहा था। इन्हें उछालने के प्रयास में देश का विपक्ष कमजोर हो रहा था। किसी ने राय दी कि मुद्दों की झाडफ़ूंक कराई जाए। किसी ने कहा इन्हें चिट्टा सुंघाया जाए। जनता चाहती थी कि विपक्ष का कहना मानकर मुद्दे उछलते रहें, लेकिन मुद्दों के सामने विपक्ष की बोलती बंद हो रही थी। हद तो यह कि आबकारी नीति का विरोधी मुद्दा भी उछलने में असमर्थ पाया गया। कानून व्यवस्थआ का मुद्दा पुलिस की तरह ‘सीन’ से ही गायब रहने लगा था। विपक्ष उसे जगा रहा था, लेकिन वह शहरी कानून व्यवस्था की

दोस्तो! देश में ईमानदार कौन और भ्रष्टाचारी कौन, इस चर्चा के बीच में भी चर्चा में आ गया हूं। जिधर देखो, उधर मेरी ही चर्चा हो रही है। लोग महंगाई भूल गए हैं। अपनी परेशानियां भूल गए हैं। पति पत्नी एक दूसरे को ताने मारना भूल गए हैं। सबका फोकस मेरी ईमानदारी पर हो गया है। मैंने काम ही ऐसा किया है कि जो कोई नहीं कर सका, वह मैंने कर दिया है। मैंने अपने आपको खुले मंच से अपने ही हाथों ईमानदारी का सर्टिफिकेट प्रदान कर दिया है और बड़े अदब के

तारीखें अक्सर इतिहास रचती हैं, पर कुछ तारीखें इतिहास नहीं, चेतावनी बन जाती हैं। 31 मई, एक ऐसी ही तारीख है। यह महज कैलेंडर का एक कोना नहीं, बल्कि जिंदगी और मौत के बीच खिंची हुई वह लकीर है, जिसके एक तरफ धुआं है, और दूसरी तरफ उम्मीद की हवा। यह दिन पूरे विश्व में एक ज्वर बनकर उठता है- तंबाकू के खिलाफ नशे की कालिख पर उजाले की एक पुकार बनकर। हर वर्ष, यह दिन आता है और चला जाता है, लेकिन इसके पीछे छिपा संदेश अगर सही अर्थों में आत्मसात

इस ऑपरेशन की एक खास बात यह थी कि राज्यों को साथ लेकर चला गया। वहां विकास की गति बढ़ाई गई और शिक्षा को भी बढ़ावा दिया गया। इन्फ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा दिया गया। बड़े पैमाने पर सडक़ें बनाई गईं और स्कूल तथा अस्पताल बनाए गए। आदिवासियों को अपनी उपज बेचने के लिए उनके गांवों में ही सुविधाएं प्रदान की गई। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई कदम उठाए गए जिससे वहां के निवासियों का सरकार पर विश्वास बढ़ा। 19 मई को शुरू हुए ऑपरेशन कगार के तहत 50 घंटे चली भयंकर मुठभेड़ में नक्सलियों का सबसे बड़ा कमांडर बसवराजू मारा गया। उस पर डेढ़ करोड़ रुपए का इनाम था और वह सीआरपी

तंबाकू के सेवन व इसके उद्भव का इतिहास काफी पुराना है। पादप अनुवंशिकिविदों के अनुसार तंबाकू की उत्पत्ति पेरुवियन और एक्वाडोरियन एंडीज में 5000 से 3000 ई. पू. के बीच में हुई मानी जाती है। तब से लेकर ही वहां के लोग इसका किसी न किसी रूप में प्रयोग करते आए हैं। तंबाकू की मादक क्षमता का पता क्रिस्टोफर कोलंबस ने सन् 1492 ई. में अपनी अमरीका यात्रा के दौरान लगाया था। कोलंबस व उसके लोगों ने टोबाको आइलैंड में पाया कि यहां के स्थायी निवासी पीसे हुए सूखे पत्तों

मणिपुर में बहुत समय से अशांति है। उस अशांति ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली और और उसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह के मंत्रिमंडल की बलि भी ली। समाज शास्त्री कहते हैं कि संकट काल में किसी बहुमूल्य चीज की बलि देकर बडे नुकसान को रोकने की कोशिश की जाती है। मणिपुर में भी भारतीय जनता पार्टी ने शायद इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने मंत्रिमंडल की बलि दी होगी। लेकिन जिस शांति की आशा में यह बलि दी गई थी, वह पूरी होती नहीं लगती। शांति क्यों नहीं हो पा रही

अधिकांश योजनाएं लोगों की जानकारी तक ही नहीं पहुंच पाती हैं, या उनमें बजट ही इतना कम होता है कि वे दिखावटी से आगे नहीं बढ़ पाती। जैसे कि सोलर बाड़बंदी न बंदर से फसलें बचा पाई है न अन्य जानवरों से। योजना का फैलाव भी एक प्रतिशत खेतों तक भी नहीं हो पाया है। इसलिए योजनाएं ऐसी हों जो जमीन पर दिख सकें। जैसे बागबानी का काम ठंडे क्षत्रों में दिखता है, निचले क्षेत्रों के लिए बागबानी की भी ऐसी फसलें खोजी जानी चाहिए जो वहां सफल हों...