अधिकांश योजनाएं लोगों की जानकारी तक ही नहीं पहुंच पाती हैं, या उनमें बजट ही इतना कम होता है कि वे दिखावटी से आगे नहीं बढ़ पाती। जैसे कि सोलर बाड़बंदी न बंदर से फसलें बचा पाई है न अन्य जानवरों से। योजना का फैलाव भी एक प्रतिशत खेतों तक भी नहीं हो पाया है। इसलिए योजनाएं ऐसी हों जो जमीन पर दिख सकें। जैसे बागबानी का काम ठंडे क्षत्रों में दिखता है, निचले क्षेत्रों के लिए बागबानी की भी ऐसी फसलें खोजी जानी चाहिए जो वहां सफल हों...
हमारे देश को विकास की बीमारी आजादी के बाद ही लग गई थी। जो भी सत्ता में आया उसने विकास का नारा दिया। आप विकास चाहें या न चाहें परंतु सरकार ने कहा कि विकास तो कराना ही होगा। विकास नहीं होगा तो सरकार के कार्यक्रम और योजनाओं का क्या होगा? सो विकास की मारामारी ऐसी चली कि विकास चल निकला। हम विकासशील हो गए। कोई क्षेत्र इस छूत से अछूता नहीं रहा, विकास हुआ भी तो ऐसा कि चारों दिशाओं में इसकी रोशनी फैल गई। यही वि
इसके बाद हम जो भी चाहते हों, जैसा भी चाहते हों, उस इच्छा पर मनन करते रहें, उसके बारे में सोचते रहें तो प्रकृति उसे पूरा करने के लिए खुद-ब-खुद रास्ते निकालती है, हमें उन लोगों से मिलने का संयोग बना देती है जो उस इच्छा की पूर्ति में हमारी सहायता कर सकते हैं या हमें मार्गदर्शन दे सकते हैं। इस दौरान हम अगर प्रयत्न जारी रखें तो कड़ी से कड़ी जुड़ती चलती है और हमारे सपने साकार हो जाते हैं। तर्कशील लोगों को यह बेकार की बात लग सकती है, पर यह जी
रोहतांग, मनाली और शिमला जैसे पर्यटक स्थलों में स्थानीय लोगों एवं बाहरी पर्यटकों के बीच अक्सर होने वाली झड़पों की रोकथाम के लिए पुलिस के पुख्ता बंदोबस्त होने चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह हिमाचल आने वाले पर्यटकों में सुरक्षा का पूर्ण भरोसा जगाए तथा अपने पुलिस अधिकारियों एवं जवानों को बैरकों से निकालकर प्रमुख पर्यटक स्थलों में तैनात करे...
लोग खुश थे कि देश तरक्की कर गया है। यहां इस खुशी को बढ़ाने वाले बहुत से बाजार थे। एक बाजार में तो शेयर बेचे और खरीदे जाते हैं। उन बाजारों में खुशी खुलती है। सरकार की पैसा लगाने वाली नीतियों के बारे में कोई और टैक्स छूट या राहत की घोषणा के साथ उनका दिल बल्लियों उछलने का सामां हो जाता है। ऐसे बाजारों की खबर अखबारों में छपती है। रोज सुबह वे अगर आसमां छू लें, तो अट्टालिकायें आकाश छूने लगती हैं। गिर कर धराशायी हो जायें तो इन प्रासादों की बत्तियां बुझ जाती हैं। लेकिन इन आंकड़ों का कोई संबंध फुटपाथी लोगों से नहीं होता। उनसे पूछने जाओ तो वे शायद इन शेयर प्रमाणपत्रों को पहचानें भी नहीं। वे तो अपने राशन कार्डों को पहचानते हैं
पांचतात्त्विक पारिस्थितिकी परिवर्तन के ऐसे मूल कारणों पर ध्यान लगाने के बदले देश-दुनिया के कर्ताधर्ताओं का ध्यान अनियंत्रित तथा असंतुलित आधुनिक प्रगति पर ही लगा हुआ है। ऐसी प्रगति के भावी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जो-जो अप्राकृतिक उत्पादन, खनन-उत्खनन व साधन-संसाधन प्रतिदिन ही बढ़ रहे हैं, क्या उस कारण मानवास्तित्व के सम्मुख उठ खड़े हुए जलवायु परिवर्तन कारकों के निवारण की दिशा में कत्र्तव्य निर्धारित होंगे...
देर आए दुरुस्त आए, अब भी इस योजना को लागू कर देना चाहिए, ताकि पेंशनर्ज को इंसाफ मिल जाए। यदि ऐसा तत्काल संभव नहीं तो सरकार को चाहिए कि कोरपस फंड के रूप में पांच सौ करोड़ या जितना संभव हो, उतना दे दे, ताकि गाड़ी बिना गड़बड़ चलती रह सके। नहीं तो त्राहिमाम-त्राहिमाम की ध्वनि पेंशनरों के गले से गुंजायमान होती ही रहेगी। कृषि विश्वविद्यालय को आईसीयू से बाहर निकालो...
वे रोज मिलते रोज हैं, सो कल फिर मिले। पर मुंह पर मास्क लगाए तो मैं डरा कि कहीं फिर कोई वायरस तो नहीं आ गया होगा? अब सर्दी खांसी होने पर मुंह पर मास्क लगाने के दिन गए। बदतमीजियां करके मुंह छिपाने के दिन गए। अब तो जनाब! अव्वल दर्जे की बदतमीजियां करने के बाद नजरें झुकाने के बदले मुंह फाड़ फाड़ मंचों पर मुस्कुराने के दिन हैं। वैसे वायरसशील समाज में कोई वायरस आते कौनसी देर लगती है? वायरस को समाज में आने के लिए कौनसी समाज की पर
यूरोपीय देश, जो भारत से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और अन्य प्रकार के सहयोग से बचते थे, अब भारत को प्रतिरक्षा के क्षेत्र में भी वैश्विक मूल्य श्रृंखला में शामिल करने के लिए आतुर हैं...