आस्था

श्रीराम शर्मा कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था। एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिडि़या ने उस पर बीट कर दी। कौशिक को क्रोध आ गया। लाल नेत्र करके ऊपर को देखा, तो तेज के प्रभाव

प्रेम का मार्ग बनाने का एक ही अर्थ होता है कि प्रेम के नैसर्गिक प्रवाह में जो पत्थर डाल दिए गए हैं, वह हटा दो। प्रेम का मार्ग नहीं बनाना होता, सिर्फ बाधाएं हटानी होती हैं। जैसे कि दर्पण है, धूल जमी है, दर्पण नहीं बनाना है, सिर्फ  धूल हटा देनी है, दर्पण तो है

बाबा हरदेव गतांक से आगे… इसके साथ ही विद्वानों का मानना है कि अध्यात्म में चाह अकसर बाधा बन जाती है। चाह अर्थात वासना इसलिए चाह को समझना और इसकी प्रकृति को पहचानना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए लोग धन को चाहते हैं, पदवी, प्रतिष्ठा और यश को चाहते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग मोक्ष

स्वामी  रामस्वरूप अतः श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन को आज से लगभग पांच हजार तीन सौ वर्ष पहले उपदेश दे रहे हैं कि हे अर्जुन तू केवल मेरी ही बात मान किसी अन्य की नहीं और न ही अपने मन की बात मान, मेरी आज्ञानुसार युद्ध कर। श्लोक 9/31 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं

श्रीश्री रवि शंकर वो लोग जो जिम्मेदारी लेते हैं, वो अकसर प्रार्थना नहीं करते और जो प्रार्थना करते हैं, वो जिम्मेदारी नहीं लेते। अध्यात्म एक ही समय में दोनों को एक साथ लाता है। सेवा, सर्विस और आध्यात्मिक अभ्यास एक दूसरे से जुड़ता हुआ आगे बढ़ता है। आप अध्यात्म की गहराई में जितना जाते हैं,

स्वामी विवेकानंद गतांक से आगे… ये विदेशी शिष्याएं कुछ तो मकान में, कुछ कुटीर में रहने लगीं। भारतीयता में उन्हें शिक्षित करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने स्वामी स्वरूपानंद जी को नियुक्त किया, लेकिन कुमारी नोबल ने संघ के साथ एकात्मभाव से सम्मिलित होने के उद्देश्य से गुरुदेव से अनुमाफी मांगी।  स्वामी जी ने उसे

– डा. जगीर सिंह पठानिया सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक, आयुर्वेद, बनखंडी निर्गुंडी के औषधीय गुण निर्गुंडी का पांच मीटर तक ऊंचाई वाला वृक्ष होता है, जो कि प्रायः 1500 मीटर के ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक सारे भारत वर्ष में पाया जाता है। निर्गुंडी नील पुष्पी व श्वेत पुष्पी दो तरह की होती है। इसका हिंदी नाम

विश्व-भ्रमण – डा. चिरंजीत परमार,  186/3 जेल रोड, मंडी गतांक से आगे… वे दबी जुबान में डॉलर-डॉलर बोल रहे थे। उस समय मास्को अंग्रेजी बहुत कम समझी जाती थी, इसलिए बात करने में मुश्किल हो रही थी। खैर हमने वीसीआर वहां जमा करा दिया और रसीद ले ली, जो रूसी भाषा में थी। वहां हवाई

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्। एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।। 1।। ध्यात्वा नीलोत्पलश्याम रामं राजीवलोचनम। जानकी लक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम।। 2।। सासितूण दृ धनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम। स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम।। 3।। रामरक्षां पठेत प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम। शिरो में राघवं पातु भालं दशरथात्मजः।। 4।। कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती। घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः।। 5।। जिव्हां विद्यानिधि पातु कण्ठं भरतवन्दितः। स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ