आस्था

सद्गुरु  जग्गी वासुदेव हमारे वेद आज की किताबों की तरह नहीं हैं। न ही उनके विषय हमारे पुराणों की तरह मनगढ़ंत हैं। वे कोई नैतिक धर्म संहिता भी नहीं हैं, जिसकी किसी एक ने या कुछ निश्चित लोगों ने मिल कर रचना की हो। वे बाहरी और आंतरिक दोनों तरह के खोजों की एक शृंखला

पराग-लोलुप भ्रमर कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है, वह सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप एवं

गतांक से आगे… येन विश्वमिंद व्याप्तं यन्न व्याप्नोति किंचन। आभारूपमिदं सर्वं यं भांतमनुभात्ययम्।। जिसने संपूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है,किंतु जिसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभास रूप सारा जगत भासित हो रहा है। यस्य सन्निधिमात्रेण  देहेंद्रियमनोधियः। विषयेषु स्वीकीयेषु वर्तंते प्रेरिता इव।। जिसकी सन्निधि मात्र से देह, इंद्रिय, मन

तात्पर्य यह है कि मठ आदि समस्त पदार्थों  का ममत्व त्याग करके सदैव ब्रह्म में ही स्थित रहे। ब्रह्मवेता पुरुष को चाहिए कि समस्त वस्तुओं में उत्पन्न पुत्र की तरह स्नेह मानना उचित है यदि वह उनका स्पर्श करता हो, तो वह संन्यासी नहीं कहा जा सकता तथा उसे इन सबसे त्याग रखना चाहिए। जो

कुंडलिनी साधना एक कठिन साधना है। योगीगण इसकी सिद्धि में बीस-तीस वर्ष व्यतीत कर देते हैं। इसलिए इसकी साधना का प्रयत्न उन्हीं लोगों को करना चाहिए, जो धैर्य के साथ अभ्यास कर सकें। 2. ऊर्जा की धारा को सहस्रार चक्र में पहुंचाने में समय लगता है, लेकिन ऐसा नहीं कि इस साधना से पूर्व में

-गतांक से आगे… बालिका तरुणी वृद्धा वृद्ध-माता जरातुरा। सुभ्रुर्विलासिनी ब्रह्म-वादिनि ब्रह्माणी मही।। 51।। स्वप्नावती चित्र-लेखा लोपा-मुद्रा सुरेश्वरी। अमोघाऽरुन्धती तीक्ष्णा भोगवत्यनुवादिनी।। 52।। मंदाकिनी मंद-हासा ज्वालामुख्यसुरांतका। मानदा मानिनी मान्या माननीया मदोद्धता।। 53।। मदिरा मदिरोन्मादा मेध्या नव्या प्रसादिनी। सुमध्यानंत-गुणिनी सर्व-लोकोत्तमोत्तमा।। 54।। जयदा जित्वरा जेत्री जयश्रीर्जय-शालिनी। सुखदा शुभदा सत्या सभा-संक्षोभ-कारिणी।। 55।। शिव-दूती भूति-मती विभूतिर्भीषणानना। कौमारी कुलजा कुंती कुल-स्त्री कुल-पालिका।।

दस, युद्ध से कुछ दिन पूर्व जब कर्ण को यह ज्ञात होता है कि पांडव उसके भाई हैं तो उनके प्रति उसकी सारी दुर्भावना समाप्त हो गई, पर दुर्योधन के प्रति निष्ठ होने के कारण वह पांडवों अर्थात अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। जबकि कर्ण की मृत्यु होने तक पांडवों को यह नहीं पता था

श्रीराम शर्मा कई बार हमें जीवन में इतनी तकलीफ  और कष्टों का सामना करना पड़ता है कि हम समझ नहीं पाते हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है और इन सबसे कैसे निपटा जाए। समस्त दुःखों का कारण है, अज्ञान, अशक्ति व अभाव। जो व्यक्ति इन तीनों कारणों को जिस सीमा तक अपने

जिस प्रकार एक छोटे और साधारण से बीज में सूक्ष्म रूप से एक विशाल वृक्ष छिपा रहता है और दिखाई नहीं देता, फिर भी मिट्टी, जल तथा खाद आदि के संपर्क से वह फल-फूल आदि से लदा एक बृहद एवं विशाल वृक्ष बन जाता है, उसी प्रकार विभिन्न बीजाक्षरों में तत्संबंधी देवताओं की महान शक्ति