प्रतिबिम्ब

मेरी किताब के अंश : सीधे लेखक से किस्त : 16 ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, ‘दिव्य हिमाचल’ ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है,

पुस्तक समीक्षा * पुस्तक का नाम : तुम्हारे लिए (लघुकथा संग्रह) लेखक का नाम  : कृष्णचंद्र महादेविया प्रकाशक : पार्वती प्रकाशन, इंदौर        मूल्य : 200 रुपए प्रसिद्ध लेखक कृष्णचंद्र महादेविया का लघुकथा संग्रह ‘तुम्हारे लिए’ साहित्यिक बाजार में है। 128 पृष्ठों के इस लघुकथा संग्रह में जहां दो आलेख हैं, वहीं 81

आपने कई ऐसे होटलों के नाम सुने होंगे जो ग्राहकों की आवभगत के उद्देश्य से बनाए गए हैं, किंतु ऐसे होटल का नाम नहीं सुना होगा जो प्रतिस्पर्धा के इस युग में भी अपने व्यावसायिक हितों को छोड़कर साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रोत्साहन में लगा है। यह होटल है डलहौजी का मेहर नामक होटल

काव्य की लेखन विधा को लेकर मिर्जा गालिब की तरह आज का कवि चिंतित नहीं है। वह हिंदी तथा उर्दू में एक जैसे शिल्प अपनाने लगा है। अब तो इसके मापदंड की आवश्यकता भी नहीं रही है, जो गालिब के दौर में अत्यधिक जरूरी थी। सब कुछ बदल चुका है। महाकाव्य लेखन के वापसी सफर

हर मौसम में हरा-भरा सर्दी-गर्मी में तनकर खड़ा देवदार का ऊंचा पेड़ यह धरती की विषम ढलान में भी नहीं छोड़ता अपना प्राकृतिक गुण-धर्म नहीं होता टेढ़ा-मेढ़ा और न ही झुकना चाहता कभी भी बना कर रखे हुए अपना स्वाभिमान ढलानदार धरती नहीं कर सकती इसे अपने निश्चित स्वरूप से विकृत और परवाह किए बिना

शिमला पुस्तक मेले की हलचल में अब तक पुस्तकालयों में हाजिरी लगा रहे छात्र, शिक्षक व अन्य लोग पुस्तक मेले में भी शिरकत करने आए। पुस्तकालयों व पुस्तक मेले में वे कौनसी पुस्तकें ढूंढ रहे हैं, पाठ्यक्रम से इतर उनकी पसंदीदा पुस्तकें कौनसी हैं, भविष्य का पुस्तकालय कैसा होना चाहिए, पुस्तक मेले की क्या खूबी

हाल ही में दक्षिण भारतीय राज्यों के विरोध के कारण केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे से हिंदी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया। अब संशोधित शिक्षा नीति के मसौदे में हिंदी की अनिवार्यता का कोई जिक्र नहीं है। केंद्र सरकार के इस फैसले ने एक बार फिर से इस सवाल को खड़ा

हर साल की तरह पहाड़ों पर जले जंगल घाटी से चोटी तक जाते हुए ठंडी बयार फिर नहीं बही जलती सांसों जैसी हवा ने घेर लिया घुटता हुआ दम आदत हो गई फिर भी सपने देखने का गुनाह करते रहे। बहुमंजिली इमारत के शीर्ष पर बैठा दीर्घकाय भारी भरकम अल्प बूझ मसीहा नीचे हर मंजिल

जब हम खुश नहीं होते, तभी खुशी के आकार में समय की प्रताड़ना समझ पाते हैं। वैसे समय को सोशल बना देना इससे पहले नामुमकिन था, लेकिन मुमकिन बाजार में अब समय की क्या कीमत। हर व्यक्ति अपनी आयु के हर पड़ाव में खुद की बोली लगाकर समय को छलता है, फिर भी हर दिन