प्रतिबिम्ब

हिमाचल में मीडिया की ग्रोथ के साथ आए भाषायी परिवर्तन – 1 अब वह जमाना नहीं रहा जब जालंधर, चंडीगढ़ या दिल्ली से प्रकाशित अखबार हिमाचल में आया करते थे। अव हिमाचल, खासकर कांगड़ा खुद एक मीडिया हब बन गया है। हिमाचल में अब यहीं से प्रकाशित अखबार बिकते हैं। मीडिया की इस ग्रोथ के

क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है -2 क्या वास्तव में हिमाचल हिंदी राज्य है? क्या हिंदी को राज्य में वांछित सम्मान मिल पाया है अथवा नहीं? इस बार राष्ट्र भाषा से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रश्नों पर विभिन्न साहित्यकारों के विचारों को लेकर हम आए हैं। 14 सितंबर को विश्व हिंदी दिवस है। इसलिए

डा. हेमराज कौशिक मो.- 9418010646 भारतीय संविधान सभा में 14 सितंबर, 1949 को हिंदी भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकृत हुई थी। वह राजभाषा के साथ-साथ राष्ट्र भाषा और व्यापक जनसमुदाय से जुड़ी भाषा है। हिंदी की क्षमता और समृद्धि हिंदी प्रदेशों के सामान्य लोगों के जीवन में परिलक्षित होती है। हिमाचल प्रदेश हिंदी

रचतीं कथा लेखिकाएं साहित्य के मर्म से-2 ‘लमही’ और ‘दोआबा’ नामक लघु पत्रिकाओं के ताजा अंक पाठकों के सामने आ चुके हैं। इन पत्रिकाओं के नए अंकों की समीक्षा यहां दी जा रही है : लमही : लखनऊ से विजय राय के संपादन में 12 साल से छप रही ‘लमही’ पत्रिका वाराणसी के समीप प्रेमचंद

जयंती पर विशेष 1962 की भारत-चीन लड़ाई के समय ‘सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात, नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात, कोई कहे ये खयालों और ख्वाबों से, दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात’ लिखने वाले फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर

तन को शीतल करतीं कविताओं ने बाकायदा मौसम के झूले तैयार किए, तो मन की निर्मलता में गहरे तक प्रवेश करते कवियों ने योल कैंप के वेद मंदिर में अपने-अपने आसन जमा दिए। कांगड़ा लोक साहित्य परिषद के तत्त्वावधान में करीब दो दर्जन कवियों ने वर्षा ऋतु की कविताओं से मन के अनेक आंगन धो

फैली जड़ें, होते ही बड़े, वहां से उखड़े निज माटी से बिछड़े, अंतर्मन रो पड़े रोपी जहां जाए, पराई कहलाए दे अपनी सेवाएं, सर्वस्व उन पर लुटाए खोए क्या पाए, अपने हैं बेगाने बेगाने हैं अपने, समझे क्या समझाए स्वयं को, उधेड़बुन में, जीवन बिताए ढूंढे हर पल, अपना धरातल, चिंतित व्याकुल बौखलाई सी सोचे,

सिर्फ होते आए को जीवन की सच्चाई बना लेने से वर्तमान की किताब कभी नहीं खुलती। बीत चुके को माथे का ताज बनाकर हम अपाहिज होने के श्राप से मुक्त नहीं हो सकते। साधनों की शुचिता को तिरस्कार कर कभी कोई महामानव नहीं हुआ। जिंदगी को हमारे द्वारा दिया गया आदर ही हमें सत्कार दिलाया

किस्त – 2 युवा वर्ग साहित्य से दूर होता जा रहा है। इसका पहला संभावित कारण है कि साहित्य व्यावहारिक नहीं रहा। दूसरा कारण है कि युवा करियर की स्पर्धा में हैं तथा उनका रुझान सोशल मीडिया व इंटरनेट की ओर है। इसके अलावा अध्ययन व अध्यापन में साहित्य का घटता दायरा भी इसके लिए