विचार

अंग्रेजी भाषा की हुकूमत से यदि भारतीय भाषाएं बहरों की अंजुमन में दर्द की गजल पेश करके अपने वजूद पर अश्क बहा रही हैं तो मैकाले का तस्सवुर यही था। अत: अपनी शिक्षा-संस्कृति का वजूद बचाने के लिए भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता अवश्य देनी होगी...

मेरा एक सवाल है, शायद आपको पसंद आए या न आए। यह जो माननीय निर्दलीय विधायक इस्तीफा देने पर अड़े हैं, उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जनता पर उपचुनाव का बोझ क्यों डाला जा रहा है? जो इस चुनाव का खर्च होगा, वह कौन वहन करेगा? इस चुनाव खर्च को, इस पैसे को हम अपने प्रदेश की जनता का भला करने में भी लगा सकते थे। एक तरफ हम कहते हैं कि प्रदेश पर लोन का ब

पुनर्वास के मानदंड पर सुक्खू सरकार ने, कांगड़ा एयरपोर्ट विकास के सभी पहलुओं को एक नई परिभाषा दी है। विकास की जरूरतों में महज योजना नहीं, इनसान की सहमति का नया परिदृश्य भी खड़ा करना पड़ता है। भीतर ही भीतर हर विकास की कडिय़ों में मानव की गतिविधियों का संसार भी बसाना पड़ता है। जाहिर तौर पर कांगड़ा एयरपोर्ट सिर्फ विस्तार का नक्शा नहीं, सरकार की इच्छाशक्ति और भविष्य के समर्थन की सहमति भी है। यहां महज विकास का भविष्य नहीं, विस्थापित जनता का भविष्य भी सर्वोपरि दिखाई दे रहा है, इसलिए अब मुआवजे की राशि वास्तविक कीमत को पांच गुना तक पहुंचा रही है तो कर्मक्षेत्र को भी

क्या अद्र्धराज्य दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है? यह स्थिति 2014 में भी आई थी। तब आम आदमी पार्टी (आप) की अल्पमत सरकार थी और कांग्रेस के बाहरी समर्थन पर आश्रित थी। मुख्यमंत्री केजरीवाल ही थे। वह जनलोकपाल बिल पेश करने की जिद पर थे, लेकिन उसे रोका जा रहा था। नतीजतन 49 दिन की केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दे दिया और दिल्ली में राष्ट्रपति शासन

एक उड़ता हुआ पोस्टर बुद्धिजीवी के करीब आया और उसके साथ ही चलने लग पड़ा। पोस्टर पहले भी बुद्धिजीवी के आसपास से गुजरे हैं, लेकिन इस बार यह अति गतिशील था। बुद्धिजीवी आज तक वहीं का वहीं है, लेकिन तरह-तरह के पोस्टर उससे कहीं आगे निकल गए। पोस्टर की अपनी देह भाषा रही है, जिसे बुद्धिजीवी समझकर भी नहीं समझ सका। बुद्धिजीवी ने तय किया कि इस बार वह दौड़ते पोस्टर को पकड़ कर पूछ ही लेगा कि तेरी रजा क्या है। बुद्धिजीवी न देश की गति और न ही पोस्टर की प्रगति समझ पाया। वह बड़े ही आदर से पोस्टर से विनती करने लगा, ‘एक पल के लिए रुक जाओ। हम आपके सेवक-आपके प्रशंसक हैं। हमारी सारी औकात लिए यूं मत भागो। हमारे पास जीने के सारे सबूत और देश का विश्वासपात्र होने का सारा जज्बा लिए यूं मत भागो।’ पहली बार पोस्टर के कान खुले उसे बुद्धिजीवी की फरियाद से लगा कि उसका भी अपना साम्राज्य है। दरअसल

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया।

दिव्य हिमाचल का हिंदी दैनिक समाचारपत्रों में अनूठा नाम है। गत 28 मार्च के संपादकीय पृष्ठ पर हैपीनेस गुरु पीके खुराना का लेख ‘कर करनी, कर जोड़ कर’ वर्तमान समय में भी बहुत प्रासंगिक लगा। इसके अलावा अनुज आचार्य का ‘बड़ा भंगाल : चुनौतियां अपार,

कहीं टीस, कहीं उम्मीद के साथ कांग्रेस से छिटके छह विधायकों का सम्मान समारोह भाजपा के बैनर तले, कुछ कह गया, कुछ सुन गया। टीस पहले कांग्रेस में बगावत तक पहुंची और अब भाजपा के भीतर अपनी अंगुलियां मरोड़ रहे नेताओं तक पहुंच गई। भाजपा काफिला बनाने में माहिर है, इसलिए उपचुनावों की पारी में खुद के साथ पूर्व कांग्रेसी विधायकों को तराश रही है। यह दीगर है

भर्तृहरि मेहताब बीजू जनता दल के संस्थापक सदस्य हैं और कटक से छह बार लोकसभा सांसद भी रह चुके हैं। अब उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है। संभवत: वह अपनी परंपरागत सीट से ही, भाजपा उम्मीदवार के तौर पर, चुनाव में उतरेंगे। भाजपा ओडिशा की 21 लोकसभा सीटों में से 18 पर प्रत्याशी घोषित कर चुकी है। भर्तृहरि को अब राजनीति में और क्या हासिल करना था कि उन्हें अपनी